मुख्यमंत्री कमलनाथ के बयान के बहाने आपने देखा कि भारत के कई राज्यों में उद्योगों में 70 से 90 प्रतिशत स्थानीय लोगों को रोज़गार देने की नीति है. मगर हमारे पास यह देखने का आंकड़ा नहीं है कि इस नीति से स्थानीय लोगों को कितना रोजगार मिला और वह रोज़गार उस राज़्य के कुल बेरोज़गारों का कितना प्रतिशत था. यह इतना ज़रूरी मसला है कि इस पर बहस करने के लिए हमारे पास व्यापक और ठोस आंकड़े नहीं हैं. इस साल जून तक श्रम मंत्रालय लेबर रिपोर्ट जारी करता था जिससे रोज़गार की स्थिति का कुछ पता चलता था. मगर इस साल जून महीने में सरकार ने उसे बंद कर दिया और रोज़गार के आंकड़ों का सही मूल्यांकन करने के लिए एक नई कमेटी बना दी.
शहर और गांवों में रोज़गार और बेरोज़गार को लेकर क्या स्थिति है इसे जानने के लिए सरकार के अलग-अलग विभागों से आंकड़े जारी होते थे. श्रम मंत्रालय का लेबर ब्यूरो दो प्रकार के सर्वे कराता था. Annual Employment-Unemployment Survey और Quarterly Employment Survey होता था. इसके अलावा सांख्यिकी विभाग भी Periodic Labour Force Survey (PLFS) कराता था. ईपीएफओ का आंकड़ा अलग होता है. तो इन सबकी की जगह इस साल जून में एक टेक्निकल कमेटी बना दी गई. अब इस पैनल ने प्रधानमंत्री कार्यालय से छह महीने का और समय मांगा है. यानी जून 2019 तक रोज़गार के नए आंकड़ों की गुंज़ाइश कम ही लगती है. मीडिया रिपोर्ट में ये सब छपा है.
ईपीएफओ के आंकड़ों को लेकर शुरू में उत्साह दिखाया गया मगर हर नए आंकड़े के साथ पिछले आंकड़े में सुधार किया जाता है और पहले की तुलना में कम हो जाता है. 26 नवंबर के बिजनेस स्टैंडर्ड में ईशान बख़्शी ने कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (EPFO) पर विस्तार से लिखा है कि इसमें संख्या इसलिए ज़्यादा दिख रही है क्योंकि प्रधानमंत्री रोज़गार प्रोत्साहन योजना के तहत कंपनियों को योगदान दिया गया. कंपनियों ने योगदान पाने के लिए पहले से काम कर रहे कर्मचारियों का नाम EPFO की फाइल में चढ़ा दिया. ठीक-ठीक बताना मुश्किल है कि नई नौकरियां हैं या पुरानी नौकरी को नई फाइल में चढ़ा दिया गया है. यह आंकड़े भी पूरे नहीं हैं क्योंकि EPFO के सभी 120 कार्यालय समय पर अपडेट नहीं करते हैं. इसलिए EPFO के डेटा से नौकरी की स्थिति का सही अंदाज़ा नहीं मिलता है. दि प्रिंट वेबसाइट पर रम्या नायर ने लिखा है कि अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष IMF का मुख्य अर्थशास्त्री बनाया गया है, ने नोटबंदी की आलोचना की थी, उनके साथ तीन और अर्थशास्त्रियों ने एक रिपोर्ट तैयार की है. इसके अनुसार नोटबंदी के फैसले वाली तिमाही में जीडीपी 2 प्रतिशत घट गई थी. इसका असर रोज़गार पर पड़ा, कंस्ट्रक्शन और वित्तीय सेवाओं पर बुरा असर पड़ा.
भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने डॉ. प्रणॉय रॉय से कहा है कि भारत में नौकरी की स्थिति बहुत खराब है. रेलवे की 90,000 नौकरियों के लिए ढाई करोड़ फार्म भरे जाने का उदाहरण दिया. यही बता दें कि रेलवे ने 400 रुपये फार्म का लौटाना शुरू कर दिया है. 19 दिसंबर के प्राइम टाइम में हमने कहा था कि अभी तक 400 रुपये वापस नहीं किए गए तो कई छात्रों ने स्क्रीन शाट भेजकर बताया कि पैसा आने लगा है. यही नहीं आप नौकरियों से संबंधित खबरों को याद कीजिए. सितंबर महीने में यूपी पुलिस के टेलिकाम विंग के लिए 62 मेसेंजर पदों के लिए पांचवी पास की योग्यता मांगी गई थी लेकिन 62 पदों के लिए 93,000 आवेदन आ गए. 50,000 ग्रेजुएट और 28,000 पोस्ट ग्रेजुएट ने अप्लाई कर दिया. 3700 पीएचडी थे और पांचवीं से 12वीं के बीच वाले तो मात्र 7000 ही थे.
हम इन ख़बरों को हल्के में लेते हैं मगर इससे पता चलता है कि बेरोज़गारी की क्या हालत है. इसी महीने ऑल इंडिया मैन्यूफैक्चरर एसोसिशएशन ने 34,700 ट्रेडर्स, छोटे और मझोले किस्म की कंपनियों का सर्वे किया गया है. इसमें पेशेवर हैं, सर्विस सेक्टर है, एक्सपोर्ट है. इन सेक्टरों पर मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, नोटबंदी और जीएसटी वगैरह के असर का अध्ययन किया गया है. यह सर्वे अक्तूबर महीने में किया गया है. ट्रेडर्स सेक्टर की 12000 कंपिनयों का अध्ययन बताता है कि 2014-15 में 100 कर्मचारी थी 2015-16 में बढ़कर 111 कर्मचारी हो गए. 2016-17 में घट कर सीधा 65 कर्मचारी हो गए. नोटबंदी के कारण कर्मचारियों की संख्या 111 से 65 हो गई. जीएसटी और फंड की कमी का भी असर इस सर्वे में देखा गया. इसके कारण ट्रेडर्स सेक्टर में कर्मचारियों की संख्या 55 पर आ गई.
कहां एक ट्रेडिंग कंपनी में साढ़े चार साल पहले 100 कर्मचारी थे जो घटकर 55 पर आ गए. रोज़गार में इतनी कमी हो गई. इस सर्वे से बताया गया है कि साढ़े चार साल में 35 लाख नौकरियां खत्म हो गईं. 34,700 कंपनियों का सर्वे अगर 35 लाख नौकरियों के खत्म होने का आंकड़ा बताता है तो समझिए स्थिति कितनी गंभीर है. अब अगर इसी तरह सरकारी नौकरियों का हाल निकालें तो पता चलेगा. क्या बैंकिंग सेक्टर में नौकरियां आ रही हैं? इस साल जुलाई महीने में विश्वास मत के दौरान प्रधानमंत्री ने कहा कि एक साल में एक करोड़ नौकरियां सृजित की गई हैं. इस आंकड़े को भी चुनौती दी जा चुकी है. उससे पहले 2017 में अमित शाह दावा कर चुके थे कि मुद्रा लोन के कारण 7 करोड़ रोज़गार सृजित हुए हैं. अब पता चल रहा है कि मोदी सरकार के समय मुद्रा लोन कम हो गया है. 2017-18 में जीडीपी का 2.8 प्रतिशत जो 2013-14 में 4.2 प्रतिशत था. तो फिर रोज़गार कहां पैदा हो रहा है. किसे नौकरी मिल रही है. इस बीच इंडियन एक्सप्रेस ने खबर छापी है कि त्रिपुरा में नई सरकारी नौकरियों की भर्ती पर रोक लगा दी गई है. मुख्य सचिव का बयान छपा है कि सरकार का वेज बिल काफी बढ़ गया है. त्रिपुरा में आबादी के अनुपात में सबसे अधिक सरकारी नौकरी है.
CMIE सेंटर फॉर मोनिटरिंग इंडियन इकोनोमी के महेश व्यास की संस्था रोज़गार को लेकर नियमित सर्वे कराती है. हमने CMIE की वेबसाइट पर देखा कि 19 दिसंबर तक बेरोज़गारी का आंकड़ा 7 प्रतिशत हो गया है जो काफी है. नवंबर महीने में यह 6.62 प्रतिशत है और अक्तूबर में 6.91 प्रतिशत है.