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This Article is From Sep 30, 2015

आप दादरी की भीड़ से अलग हैं या उसका हिस्सा

Reported By Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    September 30, 2015 17:56 IST
    • Published On September 30, 2015 18:02 IST
    • Last Updated On September 30, 2015 18:02 IST
इतना सब कुछ सामान्य कैसे हो सकता है? बिसाहड़ा गांव की सड़क ऐसी लग रही थी जैसे कुछ नहीं हुआ हो और जो हुआ है वो ग़लत नहीं है। दो दिन पहले सैंकड़ों की संख्या में भीड़ किसी को घर से खींच कर मार दे। मारने से पहले उसे घर के आख़िरी कोने तक दौड़ा ले जाए। दरवाज़ा इस तरह तोड़ दे कि उसका एक पल्ला एकदम से अलग होने के बजाए बीच से दरक कर फट जाए। सिलाई मशीन तोड़ दे। सिलाई मशीन का इस्तेमाल मारने में करे। ऊपर के कमरे की खिड़की पर लगी ग्रि‍ल तोड़ दे। उस भीड़ में सिर्फ वहशी और हिंसक लोग नहीं थे बल्कि ताक़तवर और ग़ुस्से वाले भी रहे होंगे। खिड़की की मुड़ चुकी ग्रि‍ल बता रही थी कि किसी की आंख में ग़ुस्से का खून इतना उतर आया होगा कि उसने दांतों से लोहे की जाली चबा ली होगी। भारी भरकम पलंग के नीचे दबी ईंटें निकाल ली गई थी।

कमरे का ख़ूनी मंज़र बता रहा था कि मोहम्मद अख़लाक़ की हत्या में शामिल भीड़ के भीतर किस हद तक नफरत भर गई होगी। इतना ग़ुस्सा और वहशीपना क्या सिर्फ इस अफवाह पर सवार हो गया होगा कि अख़लाक़ ने कथित रूप से गाय का मांस खाया है। यूपी में गौ मांस प्रतिबंधित है लेकिन उस कानून में यह कहां लिखा है कि मामला पकड़ा जाएगा तो लोग मौके पर ही आरोपी को मार देंगे। आए दिन स्थानीय अखबारों में हम पढ़ते रहते हैं कि भीड़ ने गाय की आशंका में ट्रक घेर लिया। यह काम तो पुलिस का है। पुलिस कभी भी कानून हाथ में लेने वाली ऐसी भीड़ पर कार्रवाई नहीं करती।

बिसाहड़ा गांव के इतिहास में सांप्रदायिक तनाव की कोई घटना नहीं है। गांव में कोई हिस्ट्री शीटर बदमाश भी नहीं है। मोहम्मद अख़लाक़ और उनके भाई का घर हिन्दू राजपूतों के घरों से घिरा हुआ है। यह बताता है कि सबका रिश्ता बेहतर रहा होगा। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि एक अफवाह पर उसे और उसके बेटे को घर से खींच कर मारा गया। ईंट से सिर कुचल दिया गया। बेटा अस्पताल में जिंदगी की लड़ाई लड़ रहा है। उसकी हालत बेहद गंभीर है।

हर जगह वही कहानी है जिससे हमारा हिन्दुस्तान कभी भी जल उठता है। लाउडस्पीकर से ऐलान हुआ। व्हाट्सऐप से किसी गाय के कटने का वीडियो आ गया। एक बछिया ग़ायब हो गई। लोग ग़ुस्से में आ गए। फिर कहीं मांस का टुकड़ा मिलता है। कभी मंदिर के सामने तो कभी मस्जिद के सामने कोई फेंक जाता है। इन बातों पर कितने दंगे हो गए। कितने लोग मार दिए गए। हिन्दू भी मारे गए और मुस्लिम भी। हम सब इन बातों को जानते हैं फिर भी इन्हीं बातों को लेकर हिंसक कैसे हो जाते हैं। हमारे भीतर इतनी हिंसा कौन पैदा कर देता है।

दादरी दिल्ली से बिल्कुल सटा हुआ है। बिसाहड़ा गांव साफ सुथरा लगता है। ऐसे गांव में हत्या के बाद सब कुछ सामान्य हो जाएगा ये बात मुझे बेचैन कर रही है। आस पास के लोग कैसे किसी की सामूहिक हत्या की बात पचा सकते हैं। शर्म और बेचैनी से वे परेशान क्यों नहीं दिखे? भीड़ बनने और हत्यारी भीड़ बनने के ख़िलाफ़ चीख़ते चिल्लाते कोई नहीं दिखा। जब मैं पहुंचा तो गांव नौजवानों से ख़ाली हो चुका था।

लोग बता रहे थे कि लाउडस्पीकर से ऐलान होने के कुछ ही देर बाद हज़ारों लोग आ गए। मगर वो कौन थे यह कोई नहीं बता रहा। सब एक दूसरे को बचाने में लगे हैं। यह सवाल पूछने पर कि वो चार लोग कौन थे सब चुप हो जाते हैं। यह सवाल पूछने पर उन चार पांच लड़कों को कोई जानता नहीं था तो उनके कहने पर इतनी भीड़ कैसे आ गई, सब चुप हो जाते हैं। अब सब अपने लड़कों को बीमार बता रहे हैं। दूसरे गांव से लोग आ गए। हज़ारों लोग एक गली में तो समा नहीं सकते। गांव भर में फैल गए होंगे। तब भी किसी ने उन्हें नहीं देखा। जो पकड़े गए हैं उन्हें निर्दोष बताया जा रहा है।

जांच और अदालत के फ़ैसले के बाद ही किसी को दोषी माना जाना चाहिए लेकिन हिंसा के बाद जिस तरह से पूरा गांव सामान्य हो गया है उससे लगता नहीं कि पुलिस कभी उस भीड़ को बेनक़ाब कर पाएगी। वैसे पुलिस कब कर पाई है। मांस गाय का था या बकरी का फ़ोरेंसिक जांच से पता चल भी गया तो क्या होगा। जनता की भीड़ तो फ़ैसला सुना चुकी है। अख़लाक़ को कुचल कुचल कर मार चुकी है। अख़लाक़ की दुलारी बेटी अपनी आंखों के सामने बाप के मारे जाने का मंज़र कैसे भूल सकती है। उसकी बूढ़ी मां की आंखों पर भी लोगों ने मारा है। चोट के गहरे निशान हैं।

दादरी की घटना किसी विदेश यात्रा की शोहरत या चुनावी रैलियों की तुकबंदी में गुम हो जाएगी। लेकिन जो सोच सकते हैं उन्हें सोचना चाहिए। ऐसा क्या हो गया है कि हम आज के नौजवानों को समझा नहीं पा रहे हैं। बुज़ुर्ग कहते हैं कि गौ मांस था तब भी सजा देने का काम पुलिस का था। नौजवान सीधे भावना के सवाल पर आ जाते हैं। वे जिस तरह से भावना की बात पर रिएक्ट करते हैं उससे साफ पता चलता है कि यह किसी तैयारी का नतीजा है। किसी ने उनके दिमाग़ में ज़हर भर दिया है। वे प्रधानमंत्री की बात को भी अनसुना कर रहे हैं कि सांप्रदायिकता ज़हर है।

मेरे साथ सेल्फी खिंचाने आया प्रशांत जल्दी ही तैश में आ गया। ख़ूबसूरत नौजवान और पेशे से इंजीनियर। प्रशांत ने छूटते ही कहा कि किसी को किसी की भावना से खेलने का हक नहीं है। हमारे सहयोगी रवीश रंजन ने टोकते हुए कहा कि मां बाप से तो लोग ठीक से बात नहीं करते और भावना के सवाल पर किसी को मार देते हैं। अच्छा लड़का लगा प्रशांत पर लगा कि उसे इस मौत पर कोई अफ़सोस नहीं है। उल्टा कहने लगा कि जब बंटवारा हो गया था कि हिन्दू यहां रहेंगे और मुस्लिम पाकिस्तान में तो गांधी और नेहरू ने मुसलमानों को भारत में क्यों रोका। इस बात से मैं सहम गया। ये वो बात है जिससे सांप्रदायिकता की कड़ाही में छौंक पड़ती है।

प्रशांत के साथ खूब गरमा गरम बहस हुई लेकिन मैं हार गया। हम जैसे लोग लगातार हार रहे हैं। प्रशांत को मैं नहीं समझा पाया। यही गुज़ारिश कर लौट आया कि एक बार अपने विचारों पर दोबारा सोचना। थोड़ी और किताबें पढ़ लो लेकिन वो निश्चित सा लगा कि जो जानता है वही सही है। वही अंतिम है। आख़िर प्रशांत को किसने ये सब बातें बताईं होंगी? क्या सोमवार रात की भीड़ से बहुत पहले इन नौजवानों के बीच कोई और आया होगा? इतिहास की आधू अधूरी किताबें और बातें लेकर? वो कौन लोग हैं जो प्रशांत जैसे नौजवानों को ऐसे लोगों के बहकावे में आने के लिए अकेला छोड़ गए? खुद किसी विदेशी विश्वविद्यालय में भारत के इतिहास पर अपनी फटीचर पीएचडी जमा करने और वाहवाही लूटने चले गए।

हम समझ नहीं रहे हैं। हम समझा नहीं पा रहे हैं। देश के गांवों में चिंगारी फैल चुकी है। इतिहास की अधकचरी समझ लिये नौजवान मेरे साथ सेल्फी तो खींचा ले रहे हैं लेकिन मेरी इतनी सी बात मानने के लिए तैयार नहीं है कि वो हिंसक विचारों को छोड़ दें। हमारी राजनीति मौकापरस्तों और बुज़दिलों की जमात है। दादरी मोहम्मद अख़लाक़ की मौत कवर करने गया था। लौटते वक्त पता नहीं क्यों ऐसा लगा कि एक और लाश के साथ लौट रहा हूं।

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