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This Article is From May 17, 2016

छात्र संघ के मंच से 'न लाल सलाम' कहें न 'वन्दे मातरम'

Apoorvanand
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    May 17, 2016 14:04 IST
    • Published On May 17, 2016 14:04 IST
    • Last Updated On May 17, 2016 14:04 IST
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों के संघर्ष में एक विराम का बिंदु आया है। अभी उन्हें ज़रा सांस लेने की, कुछ आराम करने की और कुछ ताकत वापस संजो लेने की ज़रूरत है क्योंकि यह कायदे से अर्धविराम भी नहीं है। हमलावर न तो सभ्य है, न किसी नियम का पाबंद, इसलिए अगला आक्रमण कैसे होगा,कहना मुश्किल है।

इस दौर की सबसे ख़ास बात रही छात्रों को अपने अध्यापकों का अनथक समर्थन। यह इस आन्दोलन का सबसे मार्मिक पक्ष भी था। दूसरा, सामाजिक समूहों का निरंतर साथ और तीसरा, मीडिया के एक बड़े हिस्से की सहानुभूति। इन छह माह में कन्हैया ही नहीं, शेहला, अनिर्बान, उमर, रिचा सिंह और प्रशांत धोंढा को भारत की जनता ने ध्यान से सुनने की कोशिश की। इन सभी नौजवानों की राजनीतिक परिपक्वता से प्रभावित होने वाले सिर्फ वामपंथी न थे। पहली बार छात्र राजनीति, बल्कि परिसरों की राजनीति राष्ट्रीय चर्चा का विषय बनी थी। परिसर के भीतर क्या होता है, भीतर किस प्रकार का समाज है,वह बाहरी समाज से किस तरह जुड़ता है और किस तरह उसे चुनौती देता है,यह जानने में लोगों की दिलचस्पी थी।  

संघर्ष के दौरान ही बहस भी होती है। उन तरीकों पर जो इस दौरान अपनाए गए और उन चूकों पर जो इस क्रम में हुई होंगी। आन्दोलन के हाल के दिनों में जब छात्र नेता अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर थे, उनकी हौसला अफजाई और उनके साथ एकजुटता जाहिर करने के लिए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय परिसर में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया गया।  

कार्यक्रम के दौरान एक स्नेहा चक्रधर ने भरतनाट्यम प्रस्तुत किया। नृत्य में शिव और शक्ति के मिथकीय रूपों की व्याख्या थी। स्नेहा को संभवतः इसका भान रहा हो कि उनके नृत्य को धार्मिक, इसलिए कुछ कम धर्मनिरपेक्ष या अराजनीतिक माना जाएगा, इसलिए नृत्य के पहले उन्होंने बताया कि भरतनाट्यम तमिलनाडु के मंदिरों में पैदा हुआ है और उसे उसके धार्मिक सन्दर्भों से अलग करना संभव नहीं। लेकिन मिथकों से  जूझना,उनकी पुनर्व्याख्या भी आवश्यक है। स्नेहा की शिव और शक्ति से जुड़ी स्नेहा की प्रस्तुतियों को ध्यान से देखा गया, लेकिन उसके बाद छात्र संघ की एक प्रतिनिधि ने मंच पर आकर यह कहा कि नृत्य की अंतर्वस्तु से उनकी या दर्शकों में अनेक की सहमति नहीं है। कोई अप्रिय स्थति पैदा हुई,ऐसा न था। नृत्य में रुकावट नहीं डाली गई, सभ्य तरीके से मंच पर आकर एक असहमति जाहिर की गई। फिर क्या परेशानी है?

इस प्रसंग को सुनते हुए मुझे चार साल पहले की जेएनयू की मई याद आ गई। वह भी छात्र संघ का आयोजन था। मई दिवस पर एक सांस्कृतिक संध्या, पाकिस्तान के लाल बैंड का कार्यक्रम। लाल बैंड के गायक ने एक भारतीय गायिका तृथा को मंच पर बुलाया। उन्होंने जब गणपति वंदना शुरू की तो श्रोताओं में और मंच पर बेचैनी देखी गई। वह इतनी बढ़ गई कि नीचे से 'गो बैक' के नारे शुरू हो गए। तृथा अपना तीसरा गाना गा न सकीं।

उस समय कहा गया कि प्रसंग मई दिवस का था. वैसे मौके पर तृथा को खुद ही ऐसे गीत नहीं गाने थे। कुछ ने गणेश को दमनकारी हिंदू ब्राह्मणवादी व्यवस्था का एक प्रतीक माना और संकेत किया कि प्रकारांतर से यह दलित विरोधी हो जाता है। कुछ का ख्याल था कि गीत की धार्मिक वस्तु मजदूरों के संघर्ष से जुड़े दिन की याद से बेमेल थी। इसका जवाब फिर भी न था कि उसी समय लाल बैंड का सूफी गायन क्यों कर धार्मिक न माना जाए! इसकी एक सफाई यह दी गई कि उसकी अंतर्वस्तु मुक्तिकारी थी। तृथा को मंच से हटाने की कार्रवाई और उनकी गणपति वंदना पर ऐतराज को जनतांत्रिक बताया गया। यह भी कहा गया कि आयोजन छात्र संघ का था, इसलिए यह अधिकार उनका है कि उसमें क्या गाया जाए, क्या नहीं,यह वह तय करे। इस बार जो हुआ, उससे चार साल पुरानी कड़वाहट ताजा हो गई। यह तर्क दिया गया कि मंच छात्र संघ का था, इसलिए उस पर क्या हो क्या नहीं, यह फैसला वह करेगा और इसीलिए वह अपने लिए अस्वीकार्य को नामंजूर कर सकता है। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल नहीं है।

छात्र संघ है क्या, इस पर विचार होना ज़रूरी है। आज अगर उस पर वामपंथी संगठनों का वर्चस्व है तो क्या छात्र संघ भी वामपंथी हो गया? छात्र संघ तो सारे छात्रों का है। उसकी कोई एक विचारधारा कैसे हो सकती है? चुनाव में किसी एक विचारवाले संगठन के विजयी होने का अर्थ यह नहीं है कि छात्र संघ उस विचार का हो गया।  वाम संगठन ही नहीं अन्य संगठन भी इसे समझ लें तो समस्या न खड़ी हो। छात्र संघ के मंच से 'न तो लाल सलाम' का नारा लगना चाहिए और न 'वन्दे मातरम' का! उस पर न लाल झंडा फहराना चाहिए, न भगवा। छात्र संघ धर्म निरपेक्ष तो होगा लेकिन धर्म विरोधी नहीं। वह धार्मिक अनुभव या अभिव्यक्ति का बहिष्कार करे या न करे, यह इससे तय होगा कि वह अभिव्यक्ति किसी अन्य की अवमानना तो नहीं कर रही।

इसलिए 2012 में भी तृथा को मंच से हटाने का निर्णय गलत था। साथ ही,वह सभ्यता के विरुद्ध भी था, गायिका का, जो आपकी मेहमान की मेहमान थी,अपमान था। धर्मनिरपेक्षता अगर इतनी छुईमुई हो कि धर्म के स्पर्श से ही मुरझा जाए तो चिंता की बात है। धार्मिक अनुभव अनेक और बहुविध हैं। कहीं भी शुद्ध धार्मिक क्या है, कहना कठिन है। अनेक बार धार्मिक संकेत या प्रतीक ठेठ धर्मनिरपेक्ष या सांसारिक आशय को कहीं अधिक ताकतवर ढंग से पेश करते हैं। फैज़ की शायरी में इस्लामी संदर्भ और प्रसंग भरे पड़े हैं। उनका शुद्धिकरण कैसे करें? या क्या वह फैज़ में आकर धार्मिकता खो देते हैं? जो अर्थ ऐसी कविताओं का है, वह धार्मिक संकेत के बावजूद है, या उसी की वजह से उसमें जोर आ जाता है? इसके अलावा किसी भी सामाजिक या राजनीतिक संघर्ष में सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों की क्या भूमिका होती है ?वे खुद संघर्ष का एक रूप हैं,उसके भीतर से विकसित हुई हैं,या वे संघर्ष का अलंकार मात्र हैं?

कला या संस्कृति और राजनीति के बीच के रिश्ते में क्या राजनीति का हाथ हमेशा ऊपर होगा और कला उसे सह्य बनाने का या सुगम बनाने का माध्यम भर है? या वह लोगों को संघर्ष में उतारने की तैयारी का काम करती है और उसमें बने रहने की ऊर्जा देती है? याद है कोई दसेक साल पहले शुभा मुद्गल ने इस तरह के कार्यक्रमों में कलाकारों की भागीदारी के तरीके पर असंतोष जाहिर किया था। उन्होंने जो कहा उसका मतलब यह था कि बुलाने वाले मानते हैं कि संघर्ष का अर्थ तो उन्हें पता है, वे संघर्ष कर रहे हैं, हम बस सहारा या राहत हैं! संघर्षरत छात्रों को ही इन प्रश्नों पर विचार करना हो,ऐसा नहीं. ये सवाल आख़िरी तौर पर एक बार नहीं हल हो सकते. लेकिन जनतांत्रिकता के संघर्ष में अपनी जांच करते रहना बुरा नहीं। मसलन, इस सवाल पर हमारे छात्र संगठन विचार करें कि क्यों भरत नाट्यम प्रस्तुत करने के पहले और बाद में गायिका को सफाई देनी पड़ी और क्यों छात्र संघ के प्रतिनिधि को उससे खुद को अलग करने की घोषणा की मजबूरी जान पड़ी? यह किस तरह की असुरक्षा है?

अपूर्वानंद दिल्‍ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और टिप्‍पणीकार हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।
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