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This Article is From Feb 22, 2016

छत्तीसगढ़ की सोनी सोरी भी हिंदुस्तान की बेटी है

Apoorvanand
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 22, 2016 12:49 pm IST
    • Published On फ़रवरी 22, 2016 11:43 am IST
    • Last Updated On फ़रवरी 22, 2016 12:49 pm IST
सोनी सोरी भी मादरे हिन्द की बेटी है लेकिन भारत माता की इस बेटी पर ' राष्‍ट्रवादी रक्षकों' ने हमला किया है। मैं जब ये पंक्तियां लिख रहा हूँ, सोनी सोरी दिल्ली पहुंच चुकी हैं।अपोलो अस्पताल में उनका इलाज चल रहा है।

इससे पहले वह जगदलपुर के महारानी जिला अस्पताल में पुलिस और सैन्य बलों से घिरी हुई थीं। पिछली रात उन्हें जगदलपुर से गीदम के रास्ते में, जहां उनका घर है, घेर लिया गया। वह मोटर साइकिल पर पीछे बैठी थीं और उनकी सहकर्मी रिंकी मोटर साइकिल चला रही थीं। रिंकी को चाकू दिखाया गया और सोनी को कुछ दूर ले जाकर उन पर हमला किया गया। उनके चेहरे पर कोई जलनेवाली चीज़ मल दी गई जिससे उनका चेहरा सूज गया और उन्हें दिखाई नहीं दे रहा है। उन्हें बोलने में भी परेशानी हो रही है। अभी उनकी सूजन खत्म हो गई है लेकिन देखने और बोलने में दिक्कत बनी हुई है।

आज सुबह उन्होंने किसी तरह बताया कि जिन लोगों ने हमला किया उन्होंने धमकी दी है कि अगर उन्होंने मारडुम की मुठभेड़ का मामला उठाना बंद नहीं किया और वहां के पुलिस अधिकारियों के खिलाफ जांच और  कार्रवाई की मांग बंद नहीं  की तो यही सलूक उनकी बेटी के साथ भी किया जाएगा। यहां यह बात दिलचस्प है कि पुलिस ने तुरंत कहा कि मामला गंभीर नहीं है। सोनी के चेहरे पर सिर्फ कालिख पोती गई है। यह सुनकर फौरन दिल्ली पुलिस प्रमुख का बयान याद आ गया जिसमें उन्होंने कहा था कि दिल्ली की पटियाला अदालत में कन्हैया पर हमला नहीं हुआ, मामूली धक्का-मुक्की हुई है।

एएनआई ने उनके सूजे हुए चेहरे की जो तस्वीर ट्विटर पर प्रसारित की है, उस पर ऐसी टिप्पणियां आई हैं कि यह सब कुछ नाटक है, कि वे चेहरे पर पेंट लगाकर बैठी हैं। सोनी आदिवासी हैं और आदिवासियों पर हो रहे जुल्म का लगातार विरोध कर रही हैं। वे हाल में बस्तर के मारडुम में  हुई एक फर्जी मुठभेड़ की जांच की मांग कर रही थीं। इस मुठभेड़ में हिडमा नाम के एक आदिवासी को मार डाला गया था। पुलिस ने दावा किया कि हिडमा इनामी नक्सली है लेकिन हिडमा के गांववालों ने पुलिस के मुठभेड़ के दावे को गलत बताया और कहा कि हिडमा को पुलिस उसके घर से उठाकर ले गई थी। उन्हें उस पुलिस ऑफिसर का नाम भी याद था, जो वहां आया था। सोनी इन गांववालों के इस सच को दुनिया के सामने लाने के लिए उन्हें रायपुर ले गई थीं और उनकी प्रेस कांफ्रेंस आयोजित करवाई थी। वह इस घटना के लिए एफआईआर दायर करवाने की कोशिश कर रही थीं। वह इसके पहले भी आदिवासियों पर सुरक्षा बलों के हमले का विरोध करती रही हैं। इसके लिए वह कानूनी रास्ता अपनाती हैं और जनतांत्रिक गोलबंदी का भी।

सोनी को इन सबके लिए धमकियां मिल रही थीं और इस हमले के पहले भी उन्हें सावधान किया गया था। आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने का संकल्प हमारी राष्ट्रीय पार्टियां करती रही हैं। वह आदिवासियों पर आरोप लगाती रही हैं कि वे संसदीय राजनीति की जगह माओवादी राजनीति का साथ दे रहे हैं। इसकी सजा उनके घर उजाड़कर, उनके मुर्गे, बकरियां लूटकर, उनकी फसल और फिर गांव के गांव जलाकर दी जा रही है। पिछले दस साल से भी ज्यादा से राज्‍य सरकार का यह भयानक आक्रमण छत्तीसगढ़ के आदिवासियों पर चल रहा है।

यह बात हमारे सामने साफ़ होनी ही चाहिए कि यह सब माओवादियों के सफाए के नाम पर हो रहा है लेकिन यह तब भी होता, जब माओवादी वहां नहीं होते। आदिवासियों की जमीन हड़पे बिना अब विश्‍व के पूंजीवाद की भूख मिट नहीं सकती। उसे इस जमीन में दबे खनिज चाहिए और इसके लिए जिसकी भी बलि देनी हो, वह इसके लिए तैयार है। सोनी सोरी आदिवासी हैं और शिक्षित हैं, वह अध्यापिका थीं। वह अपने जनतांत्रिक अधिकारों से परिचित हैं और उनका प्रयोग करना चाहती हैं। सिर्फ अपने लिए नहीं, अपने आदिवासी बंधुओं के लिए भी।

सरकारें नहीं चाहतीं कि आदिवासियों को जुबान मिले इसलिए सोनी सोरी को सजा दी गई। उन पर हमला हुआ, वह गिरफ्तार हुईं, उनके साथ पुलिस ने बलात्कार किया। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सोनी अभी आज़ाद हैं। सोनी आज़ाद हैं और नहीं हैं। वह ऐसे राज्य में हैं जहां पुलिस और व्‍यवस्‍था की मेहरबानी पर ही ज़िंदा हैं। अभी इसी हफ्ते जगदलपुर लीगल ऐड ग्रुप की शालिनी गेरा और इशा खंडेलवाल को उनका मकान ही नहीं, जगदलपुर छोड़ने को मजबूर कर दिया गया। वह अभी ढाई साल पहले आदिवासियों को कानूनी मदद दिलाने के ख्याल से दिल्ली, मुम्बई जैसे शहरों की महानगरीय सुविधा छोड़कर जगदलपुर गई थीं। ऐसा ही मालिनी सुब्रमण्यम के साथ हुआ जो अंतर्राष्ट्रीय गैरसरकारी संस्था का अपना काम छोड़कर छत्तीसगढ़ के असली हालात से दुनिया को परिचित कराने के विचार से वहां रह कर पत्रकारिता कर रही थीं।

शालिनी और ईशा पर लंबे समय से दबाव बढ़ रहा था। पहले वहां के वकीलों ने, पुलिस ने उनके खिलाफ अभियान चलाया और उनके वकालत करने में हर संभव रुकावट डाली। पुलिस की मिलीभगत से उनके खिलाफ पर्चे निकलवाए गए। बस्तर के पुलिस प्रमुख ने उनके बस्तर छोड़ने को उचित ठहराते हुए कहा कि वह स्थानीय लोगों का रोजगार छीन रही थीं। लिखने  की तैयारी में जब मैंने अपने मित्र पत्रकार आलोक पुतुल को फोन किया तो उन्होंने बताया कि वह किसी तरह बस्तर से सुरक्षित वापस रायपुर पहुंचे हैं। वह दस दिन रहकर रिपोर्टिंग के इरादे से वहां गए थे और रास्ते में ही सर्वोच्च पुलिस अधिकारियों को अपने आने की खबर तो की ही थी, उनसे मिलने का वक्त भी मांगा था। लंबे समय तक कोई जवाब नहीं आया। इसी बीच सोनी पर हमले की घटना हुई, आलोक ने इसकी रिपोर्ट की।

इस रिपोर्ट के जारी होते ही उनके पास दोनों ही पुलिस आधिकारियों के सन्देश आए। उन्होंने आलोक को दुत्कारते हुए कहा कि उनकी तरह के पूर्वाग्रहग्रस्त पत्रकारों के लिए उनके पास समय नहीं है। उनके पास राष्ट्र के लिए करने को बहुत कुछ है और वह उन पर अपना कीमती वक्त बर्बाद नहीं कर सकते। एक ने कहा कि उन्हें आलोक जैसे पत्रकारों की ज़रूरत भी नहीं, कई राष्ट्रवादी पत्रकार उनके साथ काम कर रहे हैं.

आलोक को बताया गया कि वह खतरे में हैं और उन्हें सुरक्षित जगह लौट जाना चाहिए। वह किसी तरह रायपुर लौटे।
रायपुर भी छत्तीसगढ़ है और बस्तर या दंतेवाड़ा भी। लेकिन यह दोनों अलग-अलग राज्य हैं। रायपुर हवाई अड्डे से शहर जाते और लौटने के वक्त आपको इसका अंदाज़ा भी नहीं होगा कि जिस राज्य की यह राजधानी है, उसी में उसी वक्त आदिवासियों को कितनी 'नकली मुठभेड़ों' का सामना करना पड़ रह होगा।

बस्तर को माओवादग्रस्त इलाका कहा जाता है। सरकारों का कहना है कि वह देश को माओवादियों के चुंगल से आज़ाद करने के उपाय कर रही हैं। यह दुखदाई हो सकता है लेकिन आवश्यक हैं। जो दिख रहा है वह यह कि बस्तर एक अतिवादी, विकासवादी राष्ट्रवाद की चपेट में है। वहां भारतीय नागरिकों को वह अधिकार नहीं हैं जो बिहार, उत्तर प्रदेश या दिल्ली में हैं। आदिवासी दोयम दर्जे के नागरिक हैं और उन्हें कमतर इंसान माना जा रहा है। आदिवासी और ‘सभ्य’ भारत एक-दूसरे से संवाद न  कर सकें, इसके सारे उपाय छत्तीसगढ़ की पुलिस और सरकार करती आ रही है। क्या भारत की सबसे ऊंची अदालत अपनी निगाह इस अभागे प्रदेश की ओर फेरेगी? क्या वह इस इलाके को सुरक्षा बलों के कब्जे से आज़ाद करने में कोई पहल करेगी? क्या वह छत्तीसगढ़ में भारतीय क़ानून का पूर्ण रूप से शासन बहाल करेगी? क्या यह सवाल सिर्फ सोनी सोरी के होने चाहिए? और क्या इसकी कीमत उन्हें देते हुए हम देखते रहें?  

अपूर्वानंद दिल्‍ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और टिप्‍पणीकार हैं।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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