अपनी पुस्तक 'आज भी खरे हैं तालाब' के साथ अनुपम मिश्र (फाइल फोटो)
अनुपम...! उन्होंने अपने नाम को सार्थक कर दिया... जैसा उनका नाम था, व्यक्तित्व भी उतना ही सुंदर और कृतित्व भी... अपने पिता, हिन्दी के ख्यात साहित्यकार-कवि भवानीप्रसाद मिश्र से उन्हें जो चीज़ विरासत में मिली थी, वह थी भाषा... उनके जैसी भाषा विरलों के पास होती है... यही वजह है, उनके द्बारा तालाबों पर लिखी गई किताबें किसी फिक्शन की तरह लगती हैं... अगर एक बार पढ़ना शुरू कर दो तो अंत तक छोड़ने का मन नहीं करता... उन्होंने तालाबों की कहानी इस तरह की भाषा में पिरोई है कि वह हर वर्ग को समझ तो आती ही है, उस दौर के समाज की उस समृद्ध विरासत से भी परिचित कराती है, जो हमारे पूर्वजों ने बहुत सोच-समझकर गढ़ी थी... ख्यात साहित्यकार अशोक बाजपेयी का भी यही मानना है कि अनुपम जैसी भाषा बहुत कम लोगों की होती है, इसलिए वह तथा अन्य साहित्कार अक्सर अनुपम को भी साहित्यिक आयोजनों में आग्रहपूर्वक ले जाते थे, जबकि उनका साहित्य से उस तरह का कोई नाता नहीं था...
अनुपम का जन्म वर्धा में हुआ था... उस समय उनके पिता भवानीप्रसाद मिश्र गांधीजी के वर्धा स्थित आश्रम में शिक्षक और प्राचार्य के रूप में कुछ समय तक कार्यरत थे... इसके बाद वह अन्य शहरों में रहे... वहां से वह अक्सर अपने पिता के जन्मस्थान होशंगाबाद आते रहते थे... यहां उनके पिता को जानने वाले और उनके कई साथी रहा करते थे... उस दौरान हुआ औपचारिक परिचय धीरे-धीरे कब गहरी मित्रता में बदल गया, पता ही नहीं चला... वह अपनी पढ़ाई पूरी कर दिल्ली के गांधी प्रतिष्ठान से जुड़ गए, लेकिन उसके बाद भी उनका होशंगाबाद आना-जाना चलता रहा... अनुपम के कारण हमारा भी दिल्ली जाना शुरू हो गया...
इसी दौरान सन 1973-74 में गांधीवादी व विचारक बनवारी लाल चौधरी के निर्देशन में हमने तवा बांध के कारण उपजी समस्याओं को लेकर होशंगाबाद में 'मिट्टी बचाओ अभियान' शुरू किया था... हम जो भी काम करते थे, उसके प्रचार-प्रसार का जिम्मा अनुपम के पास था... इस दौरान अनुपम और दिलीप चिंचालकर के साथ मिलकर इसी नाम से किताब लिखी, जो उनकी पहली किताब थी... इस आंदोलन पर उनका लिखा एक आलेख उस समय की बेहद प्रतिष्ठित पत्रिका 'दिनमान' में छपा था...
इसके बाद हमने मिलकर कई काम किए... जब उत्तराखंड में पेड़ों को बचाने के लिए 'चिपको आंदोलन' चलाया गया, तो अनुपम ने उस पर भी एक किताब लिखी... अनुपम का मानना था कि पानी और जंगल का गहरा संबंध है... अगर जंगल खत्म होगा तो इसका असर पानी पर भी पड़ेगा... इसके बाद एक बार अनुपम किसी काम से जब राजस्थान गए तो वहां पानी को लेकर काम कर रहे तरुण भारत संघ से उनका परिचय हुआ... इसके बाद उन्होंने इस संगठन के साथ मिलकर करीब 10 साल काम किया... इस काम के लिए उन्हें केके बिड़ला फाउंडेशन की फेलोशिप भी मिली... इस दौरान उन्होंने जो किताब लिखी, वह थी 'राजस्थान की रजत बूंदें'... यह बहुत अद्भभुत है... इसके बाद हमने और भी जगहों पर कुछ करने के लिए सोचा... अनुपम ने कहा कि सब अपने-अपने क्षेत्र में कुछ करो...
अनुपम ने तालाबों पर किताब लिखने का सोचा और इसके लिए मैंने मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के कई क्षेत्रों में जाकर जानकारी और आंकड़े एकत्र किए... कई और दोस्तों ने भी इसमें योगदान दिया और उसके बाद अनुपम की एक और अनुपम-अद्भभुत कृति आई 'आज भी खरे हैं तालाब'... दुनिया में शायद ही इस तरह की कोई और कृति होगी... इस किताब ने बिक्री के मामले में कई रिकॉर्ड भी कायम किए हैं... जब इस किताब की एक लाख प्रतियां बिकीं, तो इसके बारे में वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन ने एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था - 'यह रामचरितमानस नहीं है, लेकिन उससे कम भी नहीं है...'
यह किताब अपने कन्टेंट, विषय, रिसर्च से लेकर प्रस्तुतीकरण तक हर मायने में उत्कृष्ट है... इसका कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है... पेरिस यूनिवर्सिटी में भी इसे पढ़ाया गया... वहीं मोरक्को के शाह को तो यह इतनी पसंद आई कि इस किताब से प्रेरित होकर वहां तालाब बनाने का ही काम शुरू कर दिया गया... इस किताब की एक और खास बात यह है कि अनुपम इसका नाम यह भी रख सकते थे कि तालाब बदहाल हैं या वे खराब स्थिति में हैं, लेकिन अनुपम का मानना था कि ये तालाब खत्म नहीं हुए हैं, वरन् आज भी हम इनकी ही वजह से ज़िन्दा हैं... इन तालाबों का अस्तित्व आज भी है... वह कहते थे, बात चाहे भोपाल की हो या राजस्थान के अलग-अलग शहरों-कस्बों की, हमने आज बहुत से नए जलस्रोत बना लिए हैं, लेकिन बुनियादी ज़रूरत आज भी हमारे पूर्वजों की विरासत से ही पूरी हो रही है...
पानी को लेकर अनुपम का मानना था कि इसे सहेजने के लिए सदियों से समाज के अपने ताने-बाने हैं, इसलिए हम ज़िन्दा हैं... आज के समाज को उसका सम्मान करना चाहिए... उसको संवारिए, बिगाड़िए मत... भोपाल को विरासत में इतना बड़ा तालाब मिला... हजार-बारह सौ साल पुराना यह तालाब आज भी हमें पानी पिला रहा है और हमने क्या किया... सारे शहर के गटरों का पानी उसमें छोड़ना शुरू कर दिया... अगर हम इस विरासत का सम्मान नहीं कर सकते, तो अपमानित भी न करें... अगर हम अपने बुज़ुर्गों-पूर्वजों का सम्मान करना भूल जाएंगे, तो उसका खामियाज़ा हमें भुगतना पड़ेगा और हम भुगत भी रहे हैं...
तीन दिन बाद, 22 दिसंबर को अनुपम का जन्मदिन आने वाला था, लेकिन इससे पहले ही वह हम सबसे दूर अनंत यात्रा पर निकल गए... उनके जाने से समाज में दो तरह का शून्य बना है... एक - वह उन लोगों में से थे, जिन्होंने कभी अपने काम का श्रेय नहीं लिया... वह कहते थे, हम तो क्लर्क या बाबू आदमी हैं, समाज में जो अच्छा है, केवल उसे लिखने का काम कर रहे हैं... वह हर बात का श्रेय समाज और सामूहिकता को देते थे... दूसरा शून्य यह है कि हमारे समाज को अभी अनुपम की कम से कम 20 साल और ज़रूरत थी, क्योकि जो काम उन्होंने शुरू किया था, अब जाकर समाजों, सरकारों, नीति निर्माताओं और मीडिया ने समझना शुरू किया है... ऐसे समय में अनुपम जैसे लोगों की ज़्यादा ज़रूरत थी, ताकि उनकी पहल मूर्त रूप ले सके...
राकेश दीवान वरिष्ठ पत्रकार हैं, और उन्होंने अनुपम मिश्र के साथ दशकों तक जल, मिट्टी तथा पर्यावरण के लिए काम किया है...
(यह आलेख मध्य प्रदेश से प्रकाशित अख़बार 'सुबह-सबेरे' की अनुमति से प्रकाशित किया गया है...)
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