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This Article is From Dec 15, 2016

प्राइम टाइम इंट्रो : दो महाशक्तियों की लड़ाई का शिकार अलेप्पो

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 15, 2016 21:46 pm IST
    • Published On दिसंबर 15, 2016 21:45 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 15, 2016 21:46 pm IST
महाशक्ति बनने का ख़्वाब अंत में मुल्कों को हैवान बना देता है. अलेप्पो को वर्ल्ड हेरिटेज सिटी में शुमार किया जाता था. अब न तो वहां शहर बचा है, न हेरिटेज. बल्कि वहां के लोग उस दुनिया को पुकार रहे हैं जो पांच-छह साल पहले तक अलेप्पो को अपनी विरासत समझती थी. अलेप्पो का मैदान गवाह है कि सरकारें लेफ्ट की हों या राइट की या फिर सेंटर की, साम्राज्यवादी विस्तार की महत्वाकांक्षा से कोई मुक्त नहीं है. अलेप्पो को महाशक्तियों ने आपस में बांट लिया है. कोई विद्रोहियों के साथ के नाम पर आतंकवादियों को फंड कर रहा है तो कोई आतंकवाद को कुचलने के नाम पर सामान्य नागरिकों का कत्लेआम कर रहा है. आतंक से लड़ने के नाम पर वहां ये शक्तियां वीडियो गेम खेल रही हैं. संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि सीरिया की सरकार, रूस और ईरान की सेना ने 80 नागरिकों को उड़ा दिया है. असद की सेना पूर्वी अलेप्पो के घरों में घुसकर महिलाओं और बच्चों का नरसंहार कर रही है. दुनिया के अख़बार और वेबसाइट उठाकर देखिये अलेप्पो की ख़बरों से भरे हुए हैं. एक डॉक्टर ने बताया है कि एक ऐसी इमारत पर हमला होता रहा जहां 100 बच्चे छिपे हुए थे. अलेप्पो में फंसे लोग दुनिया को पुकार रहे हैं. किसी मुल्क, किसी नेता या कहीं के लोगों की अंतरात्मा तो चीखेगी. कोई तो उनके लिए आगे आएगा. वे ट्वीट कर रहे हैं. वीडियो संदेश जारी कर रहे हैं. गुहार लगा रहे हैं कि कुछ कर सकते हैं तो कीजिए, इस नरसंहार को रोकिये.

पूर्वी अलेप्पो पर सीरिया और रूस का कब्ज़ा उनके लिए बड़ी ख़बर है. मगर इस जीत से मिला ही क्या. अपने ही लोगों को मारकर, शहर की तमाम निशानियां मिटाकर आखिर इन मुल्कों ने क्या हासिल किया. बताया जाता है कि ढाई किमी के छोटे से इलाके में नागरिक फंस गए हैं. इनकी संख्या कोई 30 हज़ार बताता है तो कोई 50 हज़ार तो कोई एक लाख. इतने छोटे से इलाके में कहीं भी धमाका होता, हर किसी को लगता है कि वो मारा गया है. यही लोग दुनिया से अपील कर रहे हैं. इनका इस्तेमाल आतंकवादी गुट भी कर रहे हैं. इन पर निशाना महाशक्तियां भी साध रही हैं. दोनों तरफ से ये मारे जा रहे हैं. छह साल पहले अरब स्प्रिंग के साथ लगभग पूरे सीरिया में असद की तानाशाही के ख़िलाफ़ बग़ावत हुई थी. लेकिन यहां ये बगावत एक साल बाद शुरू हुई. बग़ावत करने वाले विद्रोहियों को तो मिटा दिया गया मगर उनकी जगह महाशक्तियों ने आतंकवादी गुट खड़े कर दिये. फिर उनसे लड़ने के नाम पर युद्ध जारी रखने का मौका भी हासिल कर लिया. एक संदेश ऐसा भी है कि अब संयुक्त राष्ट्र पर भरोसा मत करो. अंतर्राष्ट्रीय समुदाय पर भरोसा मत करो. वो जानते हैं कि हम लोग मारे जा रहे हैं, हम सबसे भीषण नरसंहार का सामना कर रहे हैं.

अलेप्पो के पूर्वी हिस्से में बिना सोचे समझे बमों की बरसात हुई है. अस्पताल ध्वस्त हैं. सड़कों पर घायल लाशों की तरह बिछे हैं. बच्चे, औरतें सभी दुनिया से मदद की अपील कर रहे हैं. दुनिया खामोश है. बीते एक महीने में 400 से अधिक नागरिक मारे गए हैं. गार्डियन अख़बार के एक पत्रकार जेनिन जियोवानी का लिखा पढ़िये. 25 साल से दुनिया के अलग-अलग इलाकों में उन्होंने युद्ध कवर किये हैं. उन्होंने हर तरह की बर्बरता देखी है लेकिन अलेप्पो की बर्बरता ने उन्हें हिला दिया है. उन्होंने लिखा है कि एक युद्ध संवाददाता के रूप में उन्हें लगता है कि वह फेल हो गए हैं. उनकी दिलचस्पी किसी राजनीतिक पक्ष में नहीं है. उनकी संवेदना उन लोगों के प्रति है जो राज्य के आतंक का शिकार हुए और इस गृह युद्ध में फंस गए हैं. 25 साल में इससे बुरा युद्ध मैंने कभी नहीं देखा. इसमें विपक्ष भी अपराधी है, सत्ता पक्ष भी अपराधी है. लोग तहखानों में छिपने जा रहे हैं मगर तहखाने भी बचाने के लायक नहीं रहे. जेनिन ने लिखा है कि उन्होंने बोस्निया युद्ध के दौरान सरायेवो को कवर किया था। उन्हें याद है कि तहखाने में छिपकर रूसी टैंकों का इंतज़ार कितना ख़ौफनाक होता है. उन्होंने कहा, मैं उन नागरिकों के बारे में सोच रहा हूं जिनके बीच रहकर मैंने किताब लिखी है. संयुक्त राष्ट्र के लिए रिपोर्ट लिखी है. मैं सोच रहा हूं कि क्या वो बचेंगे भी. मैंने आज खूब ट्वीट किया, लेकिन लोगों की खामोशी से मुझे सबक मिली है. मुझे पता चला है कि लोगों की जागरूकता मर चुकी है. दुनिया का समाज कैसे फेल हो चुका है. हमारे नेता इस युद्ध को न तो खत्म कर रहे हैं और न ही इस बर्बर नरसंहार के बारे में दुनिया को बता रहे हैं. सीरिया में जो युद्ध हो रहा है वो आतंकवाद के खिलाफ युद्ध नहीं है. आईसीस या अल नुसरा के ख़िलाफ युद्ध नहीं है. अलकायदा के खिलाफ युद्ध नहीं है. रूस और उसकी सहयोगी सेनाएं दुनिया को यही यकीन दिलाना चाहती हैं लेकिन 2011 में एक शांतिपूर्ण बगावत को किस तरह से गृह युद्ध में बदल दिया गया और फिर इसे नरसंहार में बदला गया, अलेप्पो की यही कहानी है. इस कहानी की कोई बात नहीं करता है.

पूर्वी अलेप्पो में नागरिकों के मारे जाने की ख़बरें आते ही मीडिया में एक दूसरा ही युद्ध छिड़ गया. एक पर आरोप लगा कि वो अब इन नागरिकों के मारे जाने के बहाने बाग़ी और आतंकी गुटों का समर्थन करेगा तो एक पर आरोप लगा कि वो अमेरिका और सऊदी गुटों के हितों को चमकाने के लिए बढ़ा-चढ़ाकर पेश करेगा. रूस का मीडिया कुछ और कहता है अमेरिका का मीडिया कुछ और. इन सबसे अलग बहुत से लोग हैं जो लिख रहे हैं मगर शायद लोग बदल गए हैं.
तहखाने में छिपे बच्चों को मारा जा रहा है अगर इससे दुनिया नहीं हिलती है तो फिर उस दुनिया से कोई क्या उम्मीद करे. खूब लेख छप रहे हैं कि दुनिया अलेप्पो के मामले में फेल हो गई है. लेफ्ट के नाम पर कोई असद का समर्थन कर रहा है तो कोई लोकतंत्र के नाम पर अमरीका का. आम लोगों की ज़िंदगी के समर्थन में कोई नहीं है. जब पत्रकार जेनिन ने अपनी बेचैनियों को ट्वीट किया तो उसे आतंकवाद का समर्थक कहा गया. उनका जवाब था कि जो मुझे आतंकवाद का समर्थक समझते हैं, उन्हें पता रहे कि आईसीस ने मेरे पत्रकार दोस्त स्टीव का सिर कलम कर दिया था. लेकिन जो नागरिक मारे जा रहे हैं वो तो आतंकवादी नहीं हैं. सीरिया में छाया युद्ध चल रहा है. आम नागरिकों के भागने की कोई जगह नहीं है. वो अपनी सरकार के नियंत्रण के इलाके में नहीं भाग पा रहे हैं. कोई उनकी मदद के लिए अपने दरवाज़े नहीं खोल रहा है.

किसी ने लिखा है और इसे खूब साझा भी किया जा रहा है कि 1839 से सीरिया शरणार्थियों के लिए अपने दरवाज़े खोल रहा है. 1914 में आर्मिनिया के शरणार्थियों को जगह दी. 1967 में फिलिस्तीन के शरणार्थियों को जगह दी. 1990 में कुवैत के शरणार्थी आए तो 2003 में इराक के शरणार्थी. 2006 में लेबनान के शरणार्थियों के लिए सीरिया ने दरवाज़े खोल दिये. यह इतिहास की किताब में लिखा जाएगा कि सीरिया ने कभी अपने दरवाज़े उनके लिए बंद नहीं किये जो पनाह मांग रहे थे उन्हें तंबुओं में नहीं रखा बल्कि अपने घरों के दरवाज़े उनके लिए खोले. सड़कों को ख़ाली कर दिया गया. शहरों के नाम बदल दिये गए. इतिहास की किताब में यह भी लिखा जाएगा ताकि पीढ़ियां याद रख सकें. यही कि जब सीरिया को मदद की ज़रूरत थी, उसके लोग पनाह मांग रहे थे तो दुनिया ने अपनी सीमाओं को बंद कर दिया था.

अलेप्पो का कोई एक सच नहीं है. विरोधियों की बर्बरता कम नहीं है. सरकार का नरसंहार कम नहीं है. वहां लड़ रही आतंकवादी ताकतें बम प्लांट कर भागने वाली ताकतें नहीं हैं. बकायदा सैनिक क्षमता के साथ महाशक्तियों का मुकाबला कर रही है. दो-चार या दस दिन से नहीं बल्कि तीन चार पांच साल से. अगर वे सिर्फ आतंकवादी हैं तो उनके पास संसाधन कहां से आ रहे हैं. अमेरिका और रूस दोनों महाशक्तियों के खेमे आतंक से लड़ने के नाम पर एक-दूसरे से लड़ रहे हैं. असद की जीत के लिए अलेप्पो ज़रूरी है मगर पांच साल की कवायद के बाद भी इस्लामिक स्टेट का वजूद अब भी कायम है. सवाल है कि क्या यह जंग है या जंग के नाम पर कोई खेल चल रहा है. साम्राज्यवादी ताकतों के इस खेल को आतंकवाद से लड़ने के नाम पर खेला जा रहा है.

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद भी एक चीज़ है. इसकी भूमिका क्या है. खबरों में लिखा है कि जब भी युद्ध और नरसंहार के खिलाफ कोई प्रस्ताव आता है रूस वीटो कर देता है. बाकी दुनिया खामोश रह जाती है. संयुक्त राष्ट्र कहता है कि 80 से अधिक नागरिक मारे गए. सीरिया और रूस की सरकार कहती है कि ये ख़बर ग़लत है. कोई कहता है कि 50,000 लोग फंसे हुए हैं. कोई कहता है एक लाख लोग फंसे हुए हैं. सरकार कहती है कि 15 हज़ार आम लोग निकाले जाएंगे.
विद्रोही कहते हैं कि सिर्फ घायल ही बाहर भेजे जाएंगे. नागरिकों को आतंकवादी गुट भी मार रहे हैं और आतंकवादियों से लड़ने आ रही महाशक्तियां भी मार रही हैं. इस युद्ध के कवरेज में पत्रकारिता की गिरावट भी एक पहलू है. हर तरफ से प्रोपेगैंडा है. हर किसी का अपना सत्य है, लेकिन मारे जा रहे निर्दोष बच्चों से किसी को कोई लेना-देना नहीं है. इस तूफान में भी उन बहादुर डॉक्टरों की सोचिये जो जान पर खेल वहां मौजूद हैं लोगों की जान बचाने.

अजीब त्रासदी है अलेप्पो शहर की. व्यापारिक राजधानी कहा जाता है. यहां पर तुर्क, ईरानी, कुर्द, आर्मिनियाई, अरब सब रहते रहे हैं. जब अरब स्प्रिंग के दौरान सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद सरकार के खिलाफ पूरे देश में विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ तो क़रीब साल भर अलेप्पो शांत ही रहा. बल्कि असद के समर्थन में यहां प्रदर्शन हुए. बाद में विद्रोही यहां आ गए और अलेप्पो को अपना ठिकाना बना लिया.

रूस की सरकारी एजेंसी तास ने कहा है कि विद्रोहियों के कब्ज़े वाले इलाके से लोगों को निकाला जा रहा है. सीरिया का सरकारी टीवी कहता है कि चार हज़ार विद्रोहियों और उनके परिवारों को पूर्वी ज़िलों से निकालने का काम शुरू हो गया.

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