किसानों से जुड़े कानूनों के विरोध में शिरोमणि अकाली दल (SAD) की हरसिमरत कौर बादल ने नरेंद्र मोदी मंत्रिपरिषद से त्यागपत्र दे दिया. हालांकि उन्होंने कहा है कि अकाली दल उनके इस्तीफे के बाद भी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन, यानी NDA में बना रहेगा. लेकिन दोनों पार्टियां कब तक साथ रह पाएंगी, यह कह पाना अभी मुश्किल है. दोनों दलों के साथ आने और बिछुड़ने का लंबा इतिहास रहा है. हालांकि 1997 से दोनों दल मज़बूती से एक साथ रहे हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में दोनों के बीच खटपट बहुत ज़्यादा बढ़ गई है.
अकाली दल और BJP का रिश्ता काफी पुराना है. 53 साल पहले दोनों दल साथ आए थे. तब भारतीय जनता पार्टी (BJP) अपने पुराने स्वरूप भारतीय जनसंघ में थी. यह एक चुनाव-बाद गठबंधन था. पंजाब और हरियाणा के गठन के बाद हुए चुनाव में 104 सदस्यों की विधानसभा में अकाली दल को 36 और जनसंघ को 9 सीटें मिली थीं. अकाली नेता संत फतेह सिंह ने दोनों दलों को साथ लाने में बड़ी भूमिका निभाई थी. हालांकि सरकार बनाने के लिए अन्य विपरीत विचारधाराओं वाले दलों को भी साथ लिया गया. इस तरह अकाली दल के नेतृत्व में जनसंघ, CPI, CPM, रिपब्लिकन पार्टी और कुछ निर्दलीयों को साथ लेकर यूनाइटेड फ्रंट बनाया गया था.
यहां इस बात का उल्लेख करना ज़रूरी है कि अकाली दल और जनसंघ में विचारधारा को लेकर गंभीर मतभेद थे. पंजाबी और हिन्दी की बात हो या चंडीगढ़ का मुद्दा, दोनों दलों के बीच मतभेद बने रहे. जल्द ही, केवल आठ महीनों के भीतर सरकार गिर गई और मध्यावधि चुनाव कराए गए. एक बार फिर त्रिशंकु विधानसभा बनी और दोनों दलों को साथ आना पड़ा. इस बार भी पंजाबी और चंडीगढ़ को पंजाब की राजधानी बनाने को लेकर दोनों दलों के बीच गंभीर मतभेद रहे और केवल 13 महीने बाद जनसंघ ने समर्थन वापस ले लिया. तीसरी बार प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व में सरकार बनी और गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी के अधिकार क्षेत्र, पंजाबी बोली वाले क्षेत्रों और राज्य की स्वायत्तता जैसे मुद्दों पर खटपट के चलते केवल 15 महीने सरकार चल सकी. 1977 में आपातकाल के बाद हुए चुनाव में जनसंघ का विलय जनता पार्टी में हो गया और तब अकाली-जनता पार्टी गठबंधन ने साझा चुनाव लड़ा और जीता. लेकिन इंदिरा गांधी की वापसी पर सरकार को बर्खास्त कर दिया गया और उसके बाद हुए चुनाव में जनसंघ जनता पार्टी से निकलकर भारतीय जनता पार्टी बन गया और अकाली दल ने अलग-अलग चुनाव लड़ा और हार का मुंह देखना पड़ा.
अकाली दल की गुटबाजी भी चरम पर पहुंची और सिख-निरंकारी विवाद ने नुकसान पहुंचाया. इस बीच राज्य में चरमपंथी गतिविधियों ने सियासत को काफी हद तक प्रभावित किया. हालांकि 1997 में दोनों पार्टियों ने अपनी विचारधारा में नर्मी लाते हुए फिर साथ आने का फैसला किया. दोनों ही पार्टियों के साथ आने की बड़ी वजह पंजाब की सामाजिक परिस्थितियां भी रहीं, क्योंकि जहां अकाली दल को ग्रामीण इलाकों में जाट सिखों का समर्थन था, वहीं BJP को शहरी क्षेत्रों में हिन्दुओं का समर्थन हासिल था. तब से यह गठबंधन चला आ रहा है. प्रकाश सिंह बादल के अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी से व्यक्तिगत मधुर संबधों ने BJP-अकाली दल गठबंधन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. हालांकि 2014 में मोदी-शाह के अभ्युदय के बाद रिश्तों में खटास आनी शुरू हो गई. 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले तो BJP राज्य में ड्रग्स के विरोध में यात्रा निकालने के बारे में सोच रही थी, जिसे तत्कालीन सत्तारूढ़ अकाली दल के कुछ नेताओं के पर लगे आरोपों से जोड़कर देखा गया. जबकि BJP खुद ही इस सरकार में शामिल थी. विधानसभा चुनाव में हुई करारी हार ने दोनों ही पार्टियों को भविष्य की रणनीति पर विचार करने पर मजबूर कर दिया. 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बावजूद अकाली दल पंजाब में बड़े भाई की भूमिका में रहा और सीटों के बंटवारे में बड़ा हिस्सा अपने पास रखा. चुनाव नतीजे आए, तो दोनों ही पार्टियों को जमकर नुकसान उठाना पड़ा.
अटल-आडवाणी-बादल युग समाप्त होने के बाद दोनों पार्टियों के बीच रिश्तों को संभाले रखने की ज़िम्मेदारी अरुण जेटली और सुखबीर बादल-हरसिमरत कौर की थी. लेकिन अरुण जेटली के अचानक निधन के बाद यह सूत्र भी टूट गया. दोनों पार्टियों के बीच गाहे-बगाहे मतभेद खुलकर सामने आने लगे. गुरुद्वारों के प्रबंधन में RSS के कथित हस्तक्षेप को मुद्दा बनाकर अकाली दल ने 2019 में बजट सत्र से पहले NDA बैठक का बहिष्कार किया. बाद में CAA के मुद्दे पर भी अकाली दल ने किसानों के कानून जैसा ही यू-टर्न लिया. पहले CAA का समर्थन किया, लेकिन बाद में इसका विरोध शुरू कर दिया. दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी दोनों पार्टियों के बीच टकराव हुआ और ऐन मौके पर अकाली दल ने समर्थन का फैसला किया.
दरअसल, पंजाब की त्रिकोणीय राजनीति में अब अकाली दल को अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए नई सोच अपनाने पर मजबूर होना पड़ रहा है. अकाली दल के भीतर भी गंभीर मतभेद हैं. सुखबीर बादल की कार्यशैली से अकाली दल के कई पुराने नेता नाराज़ हैं. सुखदेव सिंह ढींढसा को पद्म सम्मान देने का मोदी सरकार का फैसला बादल के गले नहीं उतरा. बादल को लगता है कि BJP ग्रामीण इलाकों में अपना विस्तार कर अकाली दल के वर्चस्व को चुनौती देना चाहती है और 2022 के चुनाव में अकेले लड़ने की तैयारी कर रही है. अकाली नेतृत्व को लगता है कि BJP इसके लिए कई अकाली नेताओं पर भी डोरे डाल रही है. उधर, आम आदमी पार्टी के उभार ने BJP के शहरी मतदाताओं में सेंध डाली है. BJP को लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का सीधा लाभ लेने में अकाली दल पर लगे आरोप और परिवारवाद आड़े आ जाता है. ऐसे में दोनों पुराने सहयोगियों के बीच विश्वास की कमी साफतौर पर दिख रही है और कहा नहीं जा सकता कि साथ कब तक बना रहेगा.
अखिलेश शर्मा NDTV इंडिया के राजनीतिक संपादक हैं...
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