"उन्हें कामयाबी में सुकून नज़र आया तो वो दौड़ते गए...."

बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे से मिले, क्या दोनों पार्टियों के बिगड़े रिश्ते पटरी पर वापस आ पाएंगे?

तो बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे से उनके घर मातोश्री पर आखिर मिल ही लिए. दोनों नेताओं के बीच क्या बातचीत हुई, इसका खुलासा तो अभी पूरी तरह से नहीं हुआ. लेकिन सवाल यही है कि क्या इससे दोनों पार्टियों के बिगड़े रिश्ते पटरी पर वापस आ पाएंगे या नहीं? चाहे बीजेपी इस बैठक को लेकर बहुत आशान्वित हो लेकिन कम से कम शिवसेना के तेवर तो तीखे ही बने हुए हैं. आज शिवसेना के मुखपत्र सामना में इस बैठक का भी मखौल बनाया गया.  

इससे पहले अमित शाह मातोश्री पिछले साल 18 जून को गए थे. तब वे राष्ट्रपति चुनाव के लिए एनडीए के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद के लिए समर्थन जुटा रहे थे. पिछले दो राष्ट्रपति चुनाव में शिवसेना बीजेपी को अंगूठा दिखा चुकी थी. इसलिए शाह शिवसेना के समर्थन को लेकर आश्वस्त होना चाहते थे. उद्धव ने उन्हें निराश नहीं किया.

एक बार फिर काम अमित शाह को ही पड़ा है. लोकसभा उपचुनावों की करारी हार ने बीजेपी के मिशन 2019 पर सवालिया निशान लगा दिया है. नए सहयोगी मिलना तो दूर की बात, मौजूदा सहयोगी दलों ने ही आंखें दिखाना शुरू कर दिया है.

उधर, विपक्ष एकता की एक से एक नई नुमाइश कर रहा है तो वहीं उत्तर प्रदेश में केवल चार एमएलए वाले ओमप्रकाश राजभर बात-बात पर बीजेपी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की खिल्ली उड़ाते नज़र आ रहे हैं. राज्य सभा चुनाव में वे बीजेपी का साथ तभी देते हैं जब उनकी मुलाकात सीधे अमित शाह से होती है. शाह को अब आगे आकर मोर्चा संभालना पड़ रहा है. वे पासवान पिता-पुत्र से मिल लिए.

कल वे बादल पिता-पुत्र से चंडीगढ़ में मिलेंगे. बच गए नीतीश और उपें कुशवाहा. उनसे भी जल्दी ही मुलाकात हो जाएगी. लेकिन क्या केवल इन मुलाकातों से रिश्तों की तल्खी दूर होगी? चार साल से हाशिए पर पड़े और अपमान का घूंट पी चुके सहयोगी दल अब सम्मान नहीं सत्ता में बड़ी हिस्सेदारी की तलाश में हैं.

नीतीश और उद्धव दोनों चाहते हैं कि बिहार और महाराष्ट्र में बीजेपी उन्हें बड़ा भाई माने, यानी लोकसभा चुनाव में ज़्यादा सीटें उन्हें मिलें. ज़ाहिर है बीजेपी ऐसा नहीं करेगी. तो ऐसे में सुलह होगी या कलह यह बाद में पता चलेगा. लेकिन शिवसेना के मुखपत्र सामना के तेवर अलग इशारा कर रहे हैं.
 
सामना ने पूछा कि उपचुनाव में हार के बाद ही एनडीए के दलों से मुलाकात क्यों? शिवसेना को किसी पोस्टर बॉय की जरूरत नहीं है. संपर्क बनाना और तोड़ना बीजेपी का व्यापारिक गणित है. सामना कड़वे अंदाज़ में लिखता है कि सरकार और जनता के बीच संपर्क टूट चुका है. पेट्रोल-डीज़ल के दाम बढ़ गए हैं और किसानों का आंदोलन जारी है. आखिर में सामना बीजेपी के मिशन 2019 का मज़ाक बनाकर लिखता है कि 2019 में अपने दम पर 350 सीटें जीतने की शाह की जिद को सलाम. लेकिन शिवसेना 2019 में अकेले ही चुनाव लड़ेगी.

तो क्या शाह की मुलाकात से भी नहीं पिघलेंगे उद्धव और शिवसेना के बिना कितना मुश्किल है बीजेपी का मिशन 2019? इन दिनों दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में उर्दू के मशहूर शायर बशर का एक शेर गूंज रहा है. सहयोगी दलों के पास अमित शाह की दौड़ पर बीजेपी के सहयोगी दल के एक नेता ही आजकल इस शेर को सुना रहे हैं-

उन्हें कामयाबी में सुकून नजर आया
तो वो दौड़ते गए,
हमें सुकून में कामयाबी दिखी
तो हम ठहर गए....!
ख़्वाहिशों के बोझ में बशर
तू क्या-क्या कर रहा है...
इतना तो जीना भी नहीं
जितना तू मर रहा है...!



(अखिलेश शर्मा एनडीटीवी इंडिया के राजनीतिक संपादक हैं)

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