वाराणसी : शिवालों के घंटे ही मेरी पहचान नहीं हैं, ना ही अजान की वो पाक आवाज़। गंगा के घाटों पर उतरती सुबह की मुलायम धूप भी मेरी तबीयत का एक हिस्सा भर है। सती, सांड, सीढ़ी और संन्यासी से आगे मैं तो अपने ब्रह्मांड में और भी बहुत कुछ समाए हुए हूं। मैं शिव की काशी हूं। मैं भारत का वाराणसी हूं। मुझमें वो उम्मीदें, वो सपने भी हैं, जो पिछले साल सत्ता की आंच पर पक कर पक्के हो गए हैं।
पिछले साल मई में जब नरेंद्र मोदी यहां से चुनाव लड़ने के लिये परचा भरने आए थे तो हमारी सड़कों पर पैर रखने की जगह नहीं थी। मैंने तो जमाने के बहुत रंग देखे हैं, लेकिन मेरे आज के लोगों के सामने वक्त का पहिया नरेंद्र मोदी की मुखर आवाज पर घूम रहा था। मेरे लोग नरेंद्र मोदी में एक ऐसे नायक की छवि देख रहे थे, जो चुटकी में उनकी हर समस्या को हल कर देंगे। उन्हें भरपूर समर्थन मिला और जब वो देश के प्रधानमन्त्री बने तो घुटनों के बल चलती हमारी ये उम्मीदें मैराथन के धावक की तरह दौड़ने लगीं। लेकिन इंतजार में एक साल गुजर गया। मेरे दामन पर पड़ा गंदगी का कूड़ा नहीं हटा। ना हटने के आसार दिख रहे हैं।
इन दिनों गंगोत्री यूथ ब्रिगेड के सदस्य हमारे क्षेत्र के नए सफाईकर्मी हैं। 30 से ज़्यादा कामकाजी लड़के अपने काम पर या पढ़ाई के क्लास जाने से पहले सुबह मोहल्ले का कूड़ा उठाते हैं, नाली साफ़ करते हैं, साथ में झाड़ू लगा कर अपनी गली की सफाई करते हैं। मोहल्ले में बजबजाते कूड़े, अफसरों की नाफरमानी, नगर निगम में की गई शिकायतों को नगर निगम ने जब कूड़े में डाल दिया तो इस अनदेखी ने इनके हाथ में झाड़ू, फावड़ा और सफाई की ट्रॉली पकड़ा दी। गंगोत्री यूथ ब्रिगेड अध्यक्ष गोपाल सिंह बताते हैं, 'इतनी गन्दगी थी यहां कि जीवन बसर करना मुश्किल हो गया था और हम लोग सरकारी दफ्तरों में शिकायत कर के हार चुके थे। हम लोगों को सफाई की कोई सरकारी व्यवस्था नहीं मिल पा रही थी तब हम लोगों ने स्वयं जिम्मा उठाया कि हम लोग साफ़ करेंगे।'
ये हाल सिर्फ हमारे इसी मोहल्ले का नहीं बल्कि हर गली में, हर सड़क पर आपको कूड़े का अम्बार लगा मिल जाएगा। कूड़े के प्रबन्धन के इसी गड़बड़झाले ने इस शहर को देश के गंदे शहरों की पहली फेहरिस्त में शुमार करा दिया है। गौरतलब है कि 19 लाख की आबादी वाले शहर में हर रोज़ कूड़े की निकासी 600 मीट्रिक टन होती है। 500 मीट्रिक टन कूड़ा उठाने का दावा है लेकिन रमना डम्पिंग क्षेत्र का रास्ता खराब है और ग्रामीणों के विरोध से वहां कूड़ा नहीं जा रहा। करसड़ा डम्पिंग क्षेत्र में प्लान्ट का संचालन ठप्प है। कूड़ा घरों में 23 बंद हैं सिर्फ दो खुले हैं। हालांकि नगर निगम के पास 2700 सफाईकर्मी, 7 जेसीबी, 18 डम्फर, 9 डम्फर क्रेसर, 17 टैंकर, 11 हॉपर और 32 छोटा हॉपर है। बावज़ूद इसके नगर निगम के अधिकारी और मेयर ये दावा करते हैं कि कूड़ा उठाने की जल्द व्यवस्था हो जायेगी।
प्रधानमंत्री के लिये हमारे शहर यानी अपने ही संसदीय क्षेत्र में कूड़ा प्रबन्धन एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। करसड़ा और रमना प्लान्ट का हाल बेहाल है। कूड़ा निस्तारण के लिये नगर निगम के पास उपयुक्त ठिकाना नहीं है। शहर संकरी गलियों का है। यहां कूड़ा घर के लिए खाली जगह नहीं मिलती। कन्टेनर रखने में भी फजीहत है। कूड़ा घर ध्वस्त हैं ऐसे में हर रोज़ 600 मीट्रिक टन निकलने वाला कूड़ा सडकों और गलियों के बीच लोगों के नाक में दम किये हुए है और ये हाल तब है जब पिछले कई दशकों से हमारे सांसद, विधायक और मेयर बीजेपी के ही रहे हैं। जो आज भी इन कूड़ों की नहीं बल्कि स्वच्छ और सुन्दर काशी के सपने ही दिखा रहे हैं। बीजेपी के नेताओं को मोदी में रब दिखता है तो दिखे। काशी तो शिव की है और मुझे सारी हकीकत पता है।
कभी मेरे आंगन में आकर मोदी ने कहा था कि उन्हें तो गंगा ने बुलाया है। प्रधानमंत्री बन गए तो भी आए थे। मेरे अस्सी घाट पर। झाड़ू भी उठाया। फावड़ा भी चलाया। जिस गंगा से लोगों को मोक्ष मिलता है, जब प्रदूषण के हथियारों से उसे ही मारा जा रहा हो, तब उसे बचाने का वादा भी किया था। लेकिन वादे हैं, वादों का क्या। मेरी उंगलियों को जब भी गंगा छूती हैं तो गंदगी और प्रदूषण से उसकी आत्मा पर छाई पीड़ा मुझे महसूस होती है। मोदी आए थे। कल भी आएंगे। लेकिन हमारा दर्द तो जस का तस है।
मेरे गांव आज भी पिछड़े हैं। उनमें से ही एक पिछड़े गांव जयापुर को प्रधानमंत्री मोदी ने गोद लिया था। मुझे भी खुशी हुई कि मेरे एक गांव का कायाकल्प हो जाएगा। ये ख़ुशी हक़ीक़त में भी बदलती दिख रही है वहां सड़के बीजली पानी के साथ दूसरी बुनियादी सुविधायें शहरों जैसी हो गई है। पर हम आपको ये अपने शहर की हक़ीक़त बताते हैं कि कैसे खस्ताहाल सड़क और धूल की वजह से शहर की ज़िन्दगी बेज़ार हो गई है। अगर आप सांस के रोगी, दमा और अस्थमा से पीड़ित है और इन दिनों अपने प्रधानमन्त्री के संसदीय क्षेत्र में आना चाहते हैं तो संभल के आएं क्योंकि यहां की हवा में उड़ रहे धूल के कण और गाड़ियों के कार्बन आप की बीमारी को बढ़ा सकते हैं। और जो लोग इन बीमारियों से ग्रस्त नहीं हैं वो भी सतर्क रहें क्योंकि बनारस की फ़िज़ा खतरनाक स्तर तक प्रदूषित हो चुकी है। ये बाते हम ही नहीं प्रदूषण विभाग भी कह रहा है।
प्रदूषण विभाग के टी एन सिंह बताते है कि वैस्कुलर पॉल्यूशन है, जो गाड़ियां शहर में आ रही हैं, बनारस शहर में दशकों से खुदाई चल रही है, उसके जो पार्टिकल हैं वो उड़ रहे हैं, जेनसेट से बहुत समस्या है, उसका भी बहुत असर पड़ रहा है और मेनली जो वैस्कुलर पॉल्यूशन है वो 80 से 85 फीसदी काउंट कर रहा है।
बनारस की हवा में घुलते इस ज़हर के हैरान करने वाले आंकड़े तब सामने आए जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक हफ्ते पहले राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता सूचकांक लागू किया। इसके सूचकांक बता रहे हैं कि बनारस की फ़िजा सांस लेने लायक नहीं है।
बनारस के अर्दली बाजार स्थित सूचकांक का सेंसर बताता है कि पीएम 10 की मात्रा का औसत 244 माइक्रॉन प्रति घन सेन्टीमीटर है। यह न्यूनतम 110 और अधिकतम 427 दर्ज़ किया गया। जबकि इसका स्तर 60 माइक्रॉन प्रति घन सेंटीमीटर से कम होना चाहिये। इसी तरह 10 माइक्रॉन से छोटे आकार के धूल के कण मानक से 7 गुना ज़्यादा पाए गए। इसी क्रम में पीएम 2.5 की मात्रा का औसत मिला 220। चौबीस घंटे में इसका न्यूनतम 50 और अधिकतम 500 रिकॉर्ड किया गया जबकि इसकी मात्रा 40 से कम होनी चाहिये। यानी ये मानक से 12 गुना अधिक है।
हवा में घुले पार्टिकल कितने खतरनाक हैं, इस पर बीएचयू के प्रोफ़ेसर बी डी त्रिपाठी कहते हैं, 'पार्टिकुलेट मैटर का साइज़ जिसको की 100 माइक्रॉन प्रति घन सेंटीमीटर होना चाहिये वो 300 से 400 मिल रहा है। ये बहुत खतरनाक द्योतक है। ये इंडीकेट करता है कि बनारस की हवा सांस लेने लायक नहीं है।
जैसे शिव के अस्तित्व का कोई आदि नहीं है वैसे ही मैं कब से हूं, ये मेरे सिवा किसी को पता नहीं। मैं शिव के त्रिशूल बसी हूं या शेषनाग के फन पर, इसपर लोग बातें करते हैं लेकिन एक वक्त था कि आर्यवर्त का कोई भी शहर मुझसे ज्यादा अनुशासित, सभ्य और तरक्की वाला नहीं था। लेकिन आज मेरी संकरी गलियों में आबादी का दबाव बहुत है। गाड़ियों का आना जाना भी बहुत है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक़ तक़रीबन 11 लाख स्कूटर और मोटर साइकिल है। 1 लाख से ऊपर कार और जीप हैं, ट्रैक्टर 5300 हज़ार है तो ट्रेलर 10 हज़ार। इसी तरह ट्रक और बसे हैं जिनके धुओं से बीमारियां बढ़ रही हैं। आजकल के धन्वंतरी बताते हैं कि इन दिनों सांस और और दमे के मरीज मेरे शहर में बहुत बढ़ गए हैं।
इन सबके बीच सीवर की समस्या कोढ़ में खाज है। जगह-जगह पाइप लाइन टूटे है। उनका पानी सड़कों पर है। घरों में जो पानी की सप्लाई है उसमें भी सीवर का पानी मिल जाता है जिसे लोग पीने के लिये मज़बूर हैं। ये बदहाली सिर्फ खस्ताहाल, धूल भरी सड़क और सीवर की ही नहीं है। बल्कि हमारे अपने आंगन के ठठेरी बाज़ार की गली में कभी गुजरते वक़्त छेनी हथौड़ी सी निकलने वाली आवाज़, गोप की बिनावट, मुग़ल परताजी, बंगाली नखास, गढ़ाई का काम, बर्तन का काम, तबक के काम जैसे दो दर्जन से ज्यादा कलाओं की दास्तान सुनाया करती थी। लेकिन आज यहां सन्नाटा है।
यही हाल बुनकरों का है। बनारसी साड़ी का कारोबार तक़रीबन 1 हज़ार करोड़ का है जिसमें 300 से 400 करोड़ का हर साल एक्सपोर्ट होता है। कभी ये आंकड़ा इससे कई गुना ज़्यादा था। क्योंकि तब इससे जुड़े रॉ मैटेरियल बनारस और देश के कई हिस्सों में ही बनता था। लेकिन आज हालत ये है कि चाइना से यार्न आने लगा है। इस पर बड़ी विडम्बना ये है कि कच्चे माल चाइनीज यार्न पर तो सरकार 25 फीसदी टैक्स लगा रही है जबकि इसी धागे से बने तैयार माल जो चाइना से आ रहा है उस पर सिर्फ 10 फीसदी टैक्स लगा रही है जो यहां के उद्योग को ख़त्म कर रहा है। यही हॉल पॉलिस्टर, नायलॉन, कॉटन, मर्सराइज्ड, विस्कोर्स, जैसे देश में बनने वाले धागों का है। जिसके कर्ज से बुनकर कभी उबर नहीं पाता। मोदी जी से उन्हें उम्मीद जगी थी लेकिन हाथ मायूसी ही लगी।
बनारस में 2007 के सर्वे के मुताबिक़ तकरीबन 5255 छोटी बड़ी इकाई थी। इसमे साड़ी ब्रोकेड, ज़रदोज़ी, ज़री मेटल, गुलाबीमीनाकारी, कुंदनकारी, ज्वेलरी, पत्थर की कटाई, ग्लास पेंटिंग, बीड्स, दरी, कारपेट, वॉल हैंगिंग, मुकुट वर्क जैसे छोटे मंझोले उद्योग थे। इनमें तक़रीबन 20 लाख लोग काम करते थे और ये कारोबार 7500 करोड़ का था। लेकिन इनमे 2257 इकाई पूरी तरह बंद हो चुकी हैं और बाकी बची भी बंद होने के कगार पर हैं। लेकिन मोदी सरकार आने के बाद और उनके मेक इन इंडिया और स्किल डेवेलपमेंट पर जोर देती उनकी बातों ने इन उद्योगों से जुड़े लोगों को बड़ी उम्मीदें दिलाई थी। पर बजट में इनके लिए कोई ठोस उपाय न होने की वजह से ये लोग बेहद निराश हैं।
यही हाल लकड़ी के खिलौने के उद्योग का है। अपनी तरफ बरबस खींचते ये खिलौने अगर बोल सकते तो अपने गढ़ने वाले की बेबसी ज़रूर बयां करते। बनारस के कश्मीरी गली में तेजी से घूमती ये बेजान लकड़ियां जिस तरह रंगों को अपने पर ओढ़ कर खुशनुमा बनती हैं वैसे ही ये पूरी दुनिया को अपनी खूबसूरती से अपने बस में करती रही हैं। कुछ समय पहले तक ये कारोबार अपने चरम पर था। इनके बनाए खिलौने विदेशों में निर्यात होते थे। करोड़ों का कारोबार होता था। लेकिन सरकार ने अचानक कोइ-रईया की उस लकड़ी के इस्तेमाल पर रोक लगा दिया जिससे ये खूबसूरत खिलौने आकार लेते थे। मजे की बात ये कि इस लकड़ी का जिसका किसी दूसरी चीज में इस्तेमाल भी नहीं होता। बावजूद इसके इस पर रोक लगा दी गई। इस फैसले के बाद से ही खिलौने से चमक गायब हो गई। सदियों से जो खिलौने बच्चों को जवान करते आए थे अचानक वो दुश्मन नज़र आने लगे। इस सरकार से इन्हें बहुत उम्मीद थी लेकिन दूसरी सरकारों की तरह यहां भी इन्हे निराशा ही हाथ लगी।
गंगा और उसके घाटों की व्यथा कथा क्या कहूं। उसे कहने का जी नहीं चाहता क्योंकि उसे तो आप सब जानते ही हैं। उसके दर्द को देख कर हर किसी को रोना आता है। कभी इन्हीं घाटों पर हमारे अपने आंगन के सपूत नज़ीर बनारसी ने गंगा के लिये लिखा था, 'लहराते दबे पांव चली जाती है गंगा, क्या जानिये क्या गाती है गंगा, जा जा के मेरे पास पलट आती है गंगा, मिलते हैं जो अफ़साने वो दुहराती है गंगा।' गंगा दशकों से अपनी बदहाली के अफ़साने दुहरा रही है। पर उसकी सुनने वाला कोई नहीं।
नरेंद्र जब उसकी दहलीज पर आये थे तो गंगा को ही देख कर कहा था की मुझे तो मां ने ही बुलाया है। मां भी लगा की कोई तो सपूत आया जो उसके दर्द को महसूस कर रहा है। नमामि गंगे योजना बानी तो उसकी ये इच्छा और बलवती हुई पर एक साल गुजर गया। इस दरमियान सिर्फ अस्सी घाट की जमा मिटटी ही हटी। बाकी सब जस का तस है। कछुवा सेंचुरी की वजह से गंगा के बालू की निकासी न होने से घाट का कटान ऐसा हो गया है कि एक दशक बाद कभी भी कई घाट जमींदोज़ हो जाएंगे। ये ऐसा सच है जिससे समय रहते नहीं चेता गया तो परिणाम घातक ही होंगे। मां गंगा के इस दर्द को देख कर महाकवि निराला की एक पंक्ति याद आती है कि 'दुःख ही जीवन की कथा रही क्या कहूं आज तक जो नहीं कही।'
ऐसा नहीं की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हमारी इस बदहाली का पता नहीं। उन्हें बाखूबी मालूम है और इसके लिए योजनाओं की घोषणा भी हुई। पर शिलन्यास और घोषणा के बाद शुरुआत के इंतज़ार में कई योजनाएं हैं। इनमे प्रमुख हैं BHU में 600 करोड़ की टीचर्स ट्रेनिंग सेन्टर योजना जिसका शिलन्यास प्रधानमंत्री ने किया था। 500 करोड़ की डीजल रेल इंजन विस्तारीकरण की योजना। 250 करोड़ में बनारस कैंट रेलवे स्टेशन के रिमॉडलिंग की योजना जिसमें सिर्फ सांसद निधि से 36 लाख लगे हैं। 900 करोड़ की भूमिगत केबल योजना। ह्रदय योजना के तहत 90 करोड़ की योजना के साथ घाटों की सफाई की योजना अभी अपने शुरुआत का इंतज़ार ही कर रही है तब तक केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू 18 हज़ार करोड़ रुपये की योजना का सपना दिखा गए।
वेंकैया नायडू के ये नए सपने हैं। पुराने वादे अभी जमीन पर दिखाई नहीं पड़ रहे और सरकार का एक साल बीत गया पर अभी मैं इंतज़ार कर रहा हूं कि आखिर कब हमारी सूरत बदलेगी। हम नाउम्मीद नहीं हैं। हम अभी भी उम्मीद के नाव पर सवार हैं कि बदहाली के इस मझधार से खुशहाली का किनारा ज़रूर आएगा।
This Article is From May 26, 2015
अजय सिंह की कलम से : बदहाली के मझधार में खुशहाली का किनारा ढूंढता मैं बनारस हूं
Ajay Singh
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Updated:मई 27, 2015 09:50 am IST
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Published On मई 26, 2015 23:12 pm IST
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Last Updated On मई 27, 2015 09:50 am IST
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