बिहार की राजनीति में रविवार तीन मार्च का दिन कई कारणों से याद किया जाएगा. इस दिन सुबह कश्मीर में शहीद हुए सब इंस्पेक्टर पिंटू सिंह का पार्थिव शरीर पटना आया था. तब न तो नीतीश कुमार समेत उनके मंत्रिमंडल के किसी सदस्य ने, न ही मोदी मंत्रिमंडल में शामिल बिहार के किसी मंत्री ने पटना में मौजूद रहने के बावजूद पटना एयरपोर्ट पर जाकर सिंह को श्रद्धांजलि देने की जरूरत समझी. इससे साफ है कि पुलवामा हो या अन्य घटना, इन नेताओं के लिए मीडिया में प्रचार पाने के अलावा कुछ नहीं.
एनडीए नेताओं ने रविवार की सुबह अपनी अनुपस्थिति से लोगों के भ्रम को दूर कर दिया कि अगर राजनीतिक रैली और शहीद में से उन्हें चुनना हो तो रैली और मात्र रैली उनकी पहली प्राथमिकता होगी. रविवार को पिंटू सिंह के पार्थिव शरीर को बेगूसराय भेजे जाने के मात्र तीन घंटे बाद सभी नेता या तो एयरपोर्ट पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगवानी करने पहुंचे या गांधी मैदान पर NDA की रैली में मंच पर दिखे. इसे आप संयोग कह सकते हैं लेकिन इसने बिहार में एनडीए नेताओं की वास्तविकता बयां कर दी. शायद नीतीश कुमार इस प्रकरण से भी उतने ही खुश हुए होंगे जितने रैली में दो तिहाई से अधिक जनता दल यूनाइटेड के समर्थकों को देखकर खुश हुए.
इसी तरह शहीद के पार्थिव शरीर पर माल्यार्पण करने का 2013 अगस्त का एक प्रकरण था. उस समय विपक्ष में बैठे सुशील मोदी के नेतृत्व में भाजपा नेताओं ने इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया था. उनका कहना था कि नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री रहते हुए शहीदों के पार्थिव शरीर पर माल्यार्पण न करके बहुत बड़ा अपमान किया है. उस समय नीतीश कुमार ने कहा था कि भाजपा ने शहीदों के सम्मान का जो राग छेड़ा है उसे बहुत समय तक निभा नहीं पाएंगे, और हुआ भी वही. उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी रैली के अगले दिन इलाहबाद कुंभ स्नान करने गए. उसके बाद बिहार के बेगूसराय में पिंटू सिंह के घर पहुंचे. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने समय और स्वभाव के साथ गए. लेकिन सब जानते हैं कि इस मुद्दे पर बिहार में नेताओं की कथनी और करनी में फर्क है.
लेकिन शायद रैली, वो भी जो एनडीए द्वारा आयोजित की गई थी, को लेकर बिहार में इनके घोर विरोधियों ने भी इतने ठंडे रेस्पॉन्स की उम्मीद नहीं की होगी. बिहार की रैलियों के इतिहास में पिछले तीस वर्षों में सत्तारूढ़ दल द्वारा आयोजित यह पहली रैली होगी जिसके आयोजक एक से ज़्यादा दल थे. लेकिन विशेष राज्य के दर्जा पर बुलाई गई जनता दल यूनाइटेड की अधिकार रैली हो या भाजपा द्वारा बम धमाकों के बीच आयोजित हुंकार रैली, उनकी तुलना में उत्साह और लोगों के सर दोनों की कमी दिखी. हालांकि रैली के आयोजकों द्वारा लालू यादव द्वारा 90 के दशक की रैलियों से ज़्यादा लोगों को लाने का दावा किया गया था.
नीतीश कुमार के लिए संतोष के कई कारण थे. एक उनकी पार्टी के लोगों की भागीदारी दो तिहाई से अधिक थी, दूसरी रैली में आए लोगों खासकर गरीब लोगों के हाथ में उनके चेहरा वाला झंडा दिखा जो ये बात साबित करता है कि भले नीतीश कुमार की सत्ता में राजनीतिक भागीदारी बनती-बिगड़ती रहती हो लेकिन उनका वोटर उन्हें अब किसी बहकावे में छोड़ने वाला नहीं. इसका एक बड़ा कारण ये भी है कि नीतीश कुमार की छवि बिहार में अब एक ऐसे मुख्यमंत्री की बन गई है जो कहता है या खासकर जो वादा करता है उसे पूरा करता है और उसके लिए गंभीरता से प्रयत्नशील रहता है. इस छवि को बनाने में पूर्व के सालों में विधि व्यवस्था बच्चों को स्कूल जाने के लिए वो चाहे साइकल या पोशाक का पैसा देना हो या अब हर घर बिजली या हर घर नल का जल जैसे कार्यक्रम से नीतीश ने बिहार में हर वर्ग में अपनी पैठ और मज़बूत की है. ऐसे में सत्ता पर वोटर के समर्थन के कारण उनकी पकड़ और मजबूत हुई है. हालांकि शराबबंदी और बालू की समस्या से बीच के कई महीने गरीब तबके के लोगों को काफी परेशानी हुई जिसका खामियाजा उन्होंने उप चुनाव में उठाना पड़ा. लेकिन नीतीश फीडबैक से सीखते हैं और तुरंत कार्रवाई कर भविष्य में और नुकसान न हो इसका इंतजाम भी कर लेते हैं.
रैली में भाजपा के समर्थक अगर बड़ी संख्या में नहीं आए तो उसका अर्थ यही लगाया जा रहा है कि उनके प्रबंधन में कमी थी या जिनको प्रबंधन का ज़िम्मा मिला उन्होंने भविष्य की चिंता में मुट्ठी बंद कर ली. लेकिन भाजपा नेताओं का कहना है कि टीवी पर हर दिन प्रधानमंत्री मोदी के भाषण के कारण लोगों में उनको अब आमने-सामने सुनने की उत्सुकता नहीं रही. इसके अलावा रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी पर भरोसा कर रैली को ऐतिहासिक होने का दावा करना मूर्खता है. रामविलास बीमार हैं और उनके राजनीतिक वारिस चिराग में वो बात नहीं.
इस रैली की अपेक्षाकृत विफलता के पीछे दो बातें साफ है, पहला बिहार में नीतीश कुमार एनडीए के बॉस और चेहरा दोनो हैं. ये अब चर्चा का विषय नहीं रहा. भले भाजपा चुनाव सर पर आते ही शिलान्यास की झड़ी लगाकर वादा पूरा करने की होड़ और दौर दोनो में लगी है लेकिन बिहार के भाजपा के नेता मानते हैं कि जो गंभीरता पिछले एक महीने में दिखाई वो पिछले कुछ सालों में दिखाई होती तो शायद हर सहयोगी के सामने घुटने टेककर सत्ता में आने का सपना देखने की ज़रूरत नहीं होती. बिहार में भले डबल एंजिन की सरकार का दावा किया जा रहा है लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार भी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की वह इच्छा पूरी नहीं की कि जब वे पूरे मंत्रियों, अधिकारियों के दल बल के साथ विस्तृत चर्चा के लिए बुलाए गए हों. यही कारण है कि बिहार में भी सत्ता में शामिल भाजपा के नेता अब दिल्ली से ज़्यादा नीतीश के पीछे चलने में अपना भविष्य उत्तम देखते हैं.
दूसरा कारण, पिछले कुछ महीनों में जो भी कदम मोदी सरकार ने उठाए हैं वे वोट में तब्दील हो जाएंगे इसकी गारंटी नहीं. अगर लोगों में दस प्रतिशत सामान्य वर्ग के आरक्षण हो या किसानों के लिए प्रति वर्ष छह हजार देने की शुरुआत हो, इसका बहुत असर नहीं दिख रहा. भाजपा और जनता दल यूनाईटेड के नेता तो दबी ज़ुबान से ये भी कहते हैं कि सामान्य वर्ग के लोगों के आरक्षण का कारण दलित, पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग में मायूसी और नाराजगी दोनों है लेकिन नीतीश कुमार द्वारा अति पिछड़ों को जो पंचायत में आरक्षण दिया गया है उसे दिखाकर इस असंतोष को काउंटर करने की कोशिश हो रही है. लेकिन वोट पर इसका क्या असर होगा फिलहाल किसी को नहीं मालूम.
और अंत में आप कह सकते हैं कि तमाम विफलता के बावजूद अगर एनडीए बिहार में आगे चल रहा है तो उसका एक ही कारण है, नीतीश का साथ होना. अन्यथा इनका प्रचार और प्रसार तो दुरुस्त था लेकिन आसार अच्छे नहीं दिख रहे थे.
मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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