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This Article is From May 12, 2022

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद देश में किसी और शक्ल में तो नहीं आ जाएगा राजद्रोह कानून?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 12, 2022 12:09 pm IST
    • Published On मई 12, 2022 00:28 am IST
    • Last Updated On मई 12, 2022 12:09 pm IST

पूरे देश में जहां भी राजद्रोह के मुकदमे चल रहे हैं, उस पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है.इस फैसले को दो तरह से देखा जा रहा है. एक कि इसके बाद भी सरकार और पुलिस के पास किसी नागरिक का गला दबाने के लिए तमाम धाराएं मौजूद हैं और दूसरा कोर्ट की इस अंतरिम रोक से यह साबित भी हो जाता है कि सरकार और पुलिस लोगों की आवाज़ दबाने के लिए इस कानून का इस्तेमाल करती हैं. एक आज़ाद मुल्क में नागरिक के पास बोलने की आज़ादी हो, उसे किसी तरह से डराया नहीं जाए, इसलिए इस कानून को चले जाना चाहिए. यह बड़ी बात है कि कोर्ट के इस अंतरिम रोक ने सरकारों की करतूत को उजागर कर दिया है लेकिन हम यह भी समझते हैं कि इससे सरकारों को कोई फर्क भी नहीं पड़ने वाला है.कभी अंग्रेज़ी हुकूमत ने बाल गंगाधर तिलक और गांधी के खिलाफ़ इस कानून का इस्तेमाल किया था,आज के दौर में कई पत्रकार और समाज के हितों के लिए लडने वाले कार्यकर्ताओं के खिलाफ़ इस्तेमाल हो रहा है. बेशक आज का दिन उन लोगों के लिए बड़ा है जिन्होंने इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी. 

तृणमूल  सांसद महुआ मोइत्रा, पूर्व सांसद अरुण शौरी,रिटायर्ड जनरल एस जी वोमबाटकेरे  पत्रकार अनिल चमड़िया, पत्रकार पेट्रिसिया मुखीम,पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेमचा, पत्रकार कन्हैया लाल शुक्ल, पत्रकार अनुराधा भसीन,असम पत्रकार संघ, एडिटर्स गिल्ड आफ इंडिया, Public Union of Civil Liberty, NGO Common Cause ने अलग-अलग याचिकाओं में राजद्रोह की धारा 124-A को चुनौती दी थी. तब कोर्ट ने कहा था कि हम इसकी वैधता की जांच करेंगे. पिछले साल जुलाई से लेकर इस साल अप्रैल बीत जाने तक सरकार को ध्यान नहीं आया कि आज़ादी का अमृत महोत्सव चल रहा है और इस कानून की समीक्षा की जाए. क्या इस कानून को हटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट को श्रेय मिल जाता, उसकी चिन्ता थी? या उन लोगों को श्रेय मिल जाता जो हमेशा नागरिकों के अधिकार के साथ खड़े रहते हैं, उन्हें श्रेय न मिले, इसकी चिन्ता थी? लेकिन इतिहास अखबारों की हेडलाइन में दर्ज नहीं रहता है, वह कहीं और मिलता है और वहां लिखा होगा कि इस कानून को चुनौती देने के लिए वकीलों में कपिल सिब्बल, प्रशांत भूषण, गोपाल शंकरनारायणन, पी बी सुरेश, प्रसन्ना एस, सिद्धार्थ सीम, तनिमा किशोर ने बहस की.आज की ये हेडलाइन इन याचिकार्ताओं और वकीलों की वजह से है. 

सुप्रीम कोर्ट ने यह तो उजागर कर दिया कि सरकारें इस तरह के कानून के साथ क्या कर रही थीं लेकिन इस अंतरिम रोक के बाद भी सरकारों के पास एक नागरिक को डराने धमकाने के सारे रास्ते मौजूद हैं. वह पुलिस मौजूद हैं जो किसी के इशारे भर से कानून की धज्जियां उड़ाती हुई, किसी को भी जेल में डाल देती है. और फिर आपको वर्षों इंसाफ की लड़ाई लड़ने के लिए छोड़ देती है. जिसमें आप बर्बाद हो जाते हैं और ऐसा करने वाला पुलिस अफसर नौकरी छोड़ कर सरकार वाली पार्टी से चुनाव लड़ता है, विधायक बनता है औऱ मंत्री बन जाता है.शायद यही वजह है कि कैरवां पत्रिका के संपादक विनोद के जोश ने ट्वीट किया कि कहने को तो मेरे और मेरे जैसे पत्रकारों के लिए कुछ सिरदर्द कम हुए हैं. मेरे ख़िलाफ़ यूपी, मध्य प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक और दिल्ली में राजद्रोह के मामले दर्ज हैं. सवाल है कि क्या केंद्र सरकार राजद्रोह के साथ वही करेगी जो UPA सरकार ने POTA के साथ किया और UAPA जैसे और घातक क़ानून बना दिए.

इस बात को ध्यान में रखना ज़रूरी है. राजद्रोह का कानून हटेगा या उससे भी सख्त दूसरा कानून आ जाएगा, जैसे POTA के बाद UAPA आ गया. किसी को भी भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि इसके बाद पुलिसिया यातना ख़त्म हो जाएगी और सरकारें प्रेस से लेकर नागरिक का गला घोंटना बंद कर देंगी.आप जानते हैं कि किस तरह लोगों को फंसाया जाता रहा है औऱ बिना जवाबदेही के किसी भी धारा का इस्तेमाल कर दिया जाता है. बल्कि बहस यह होनी चाहिए कि ऐसी धाराओं के इस्तेमाल में धारा लगाने के वक्त मौजूद तमाम पुलिस अधिकारियों की जवाबदेही तय होनी चाहिए.अगर पुलिस अफसर ने किसी को फंसाने की नीयत से फर्ज़ी धाराएं लगाई हैं तो उसे बर्खास्त किया जाए. क्या सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद इस तरह की बहस के दरवाज़े खुलते हैं या हम इसकी बात ही नहीं करेंगे. 

एक नहीं, हम आपको अनेक उदारहण दे सकते हैं. किस तरह बिना किसी जांच के, सिर्फ फंसाने और परेशान करने के लिए किसी को भी घर से उठाकर जेल में डाल दिया जाता है. यह केवल पत्रकार या सामाजिक कार्यकर्ता के साथ नहीं होता है बल्कि आम नागरिकों के साथ और भी ज्यादा होता है. पढ़िए इस खबर को,1 सितंबर 2020 की है. यही लिखा है कि इलाहाबाद कोर्ट ने कहा है कि डॉ कफिल ख़ान के खिलाफ अवैध तरीके से NSA लगा दिया गया. 17 दिसम्बर 2020 को सुप्रीम कोर्ट में भी यह फैसला सही साबित हुआ. तब फिर अवैध रुप से किसी के भी खिलाफ NSA लगाने वाले किसी भी अफसर के ख़िलाफ़ कोई भी कार्रवाई हुई? इंडियन एक्सप्रेस ने तो पूरी सीरीज़ की थी, बताया था कि 120 में से 94 मामलों को  इलाहाबाद हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया था. राजद्रोह नहीं होगा, या हटाकर ताली बजवाने और हेडलाइन लूटने से पहले इन तथ्यों को सामने रखिए और पूछिए कि  राजद्रोह का कानून हट भी जाएगा तो क्या बदल जाएगा? 

आज का फैसला महत्वपूर्ण तो है, मुमकिन है सरकार भी इस कानून को ख़त्म कर दे, लेकिन इतने भर से इस कानून और अन्य कानूनों के दुरुपयोग से लोगों को फंसाया गया है उसकी सज़ा क्या कोई सरकार या पुलिस अधिकारी कबूल करेगा, किसी को सज़ा मिलेगी? या इस कानून को हटाकर देश को उन्हीं लोगों से लोकतंत्र पर भाषण सुनने को मिलेगा, जो दूसरे तरीके से गला घोटते रहते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह की धारा पर अंतरिम रोक लगा कर सरकारों और पुलिस व्यवस्था की पोल खोल दी है. इतना भी हुआ क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को लेकर अपनी नियत साफ कर दी थी कि इसका इस्तेमाल गला घोंटने के लिए किया जा रहा है. कांग्रेस पार्टी ने 2019 के घोषणा पत्र में लिखा था कि सरकार में आने पर राजद्रोह की धारा 124 A समाप्त कर देंगे. तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस के इस कदम की आलोचना की थी. 

लंबे समय तक केंद्र सरकार इसी लाइन पर सुप्रीम कोर्ट में पक्ष रखती रही. केंद्र सरकार के वकीलों ने कोर्ट में कहा कि अगर दुरुपयोग भी होता है कि नागरिक के पास कोर्ट है.इस पर कोर्ट ने कहा कि हम हर किसी से नहीं कह सकते कि कोर्ट जाइये और महीनों जेल में रहिए. तब जाकर केंद्र ने कहा कि वह इस कानून की समीक्षा के लिए तैयार है क्योंकि इस समय आज़ादी का अमृत महोत्स चल रहा है.आज़ादी का अमृत महोत्सव पिछले साल 12 मार्च शुरू हुआ था, इस केस की सुनवाई जुलाई से शुरू हुई थी, और हाल हाल तक केंद्र सरकार राजद्रोह कानून को चुनौती देने की याचिका का विरोध कर रही ती. अच्छी बात है कि सरकार ने अपना रुख बदला है, लेकिन क्या दूसरे कानूनों के इस्तेमाल के बारे में उसका तरीका बदल जाएगा? 

कानून मंत्री किरण रिजीजू ने कहा है कि कोर्ट को सरकार का सम्मान करना चाहिए, हम कोर्ट का सम्मान करते हैं, हम दोनों के बीच स्पष्ट सीमाएं हैं और किसी को भी लक्ष्मण रेखा पार नहीं करनी चाहिए. पत्रकार पूछते रहे कि क्या आप यह कह रहे हैं कि अदालत का फैसला सही नहीं है, इस पर मंत्री जी ने कुछ नहीं कहा. लेकिन राहुल गांधी के ट्वीट के जवाब में उनके ट्वीट से साफ हो गया कि कानून मंत्री के तौर पर आज के आदेश के बारे में क्या सोच रहे हैं.

अगर कोई एक पार्टी है जो आज़ादी, लोकतंत्र और संस्थाओं के आदर के खिलाफ है तो कांग्रेस है. इस पार्टी ने हमेशा भारत को तोड़ने वाली ताकतों का साथ दिया है औऱ भारत को बांटने का कोई मौका नहीं छोड़ा है. राहुल गांधी ने अपने ट्वीट में लिखा था कि सच बोलना देशभक्ति है, देशद्रोह नहीं. सच कहना देशप्रेम है, देशद्रोह नहीं, सच सुनना राजधर्म है, सच कुचलना राजहठ है, डरो मत. 

सुप्रीम कोर्ट को इसका श्रेय तो मिलना चाहिए कि पुलिसिया और सरकारी यातना के एक हथियार पर चोट पहुंची है लेकिन यह बात मत भूलिए कि कुछ बदलने वाला नहीं है.हमने आपको बताया कि किस तरह NSA लगा दिया जाता है, ऊपर से निर्देश आता है कि NSA लगाया जाए और NSA लगा दिया जाता है. बात इस पर होनी चाहिए कि जो भी अफसर ऐसे कानून लगाता है, उसकी क्या जवाबदेही होगी? आपको हम एक और उदाहरण देना चाहते हैं.  पिछले साल मार्च में हमने आपको प्राइम टाइम में दिखाया था कि किस तरह से सूरत में सिमी के एक सेमिनार में शामिल होने वाले 127 लोगों पर UAPA की धाराएं लगा दी गई. इनमें से कई लोग कई महीनों तक जेल में रहे, 18 साल तक मुकदमा चला और कई लोग इस दौरान दुनिया से ही चले गए. मगर जब सबूत देने की बारी आई तो पुलिस के पास कुछ खास नहीं था.

अदालत ने सभी को रिहा कर दिया. 28 अक्तूबर 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी संगठन से जुड़े होने के नाम पर किसी के खिलाफ UAPA की धारा नहीं लग सकती है, क्या उसके बाद से ये सब बंद हो गया है?2015-19 के बीच UAPA के तहत जिनको गिरफ्तार किया गया उनमे से दो प्रतिशत से भी कम मामले में सज़ा हुआ है. क्या ये बदलेगा? जब तक जवाबदेही तय नहीं होगी, अफसरों को फर्जी धारा लगाने पर सज़ा नहीं होगी, अपना सवाल साधते रहिए कि किसी को उठाना, किसी को फंसाना कब बंद होगा. गोदी मीडिया के डिबेट में फिर भी देशद्रोही कहने का सिलसिला चलता रहेगा,किसी को भी  देशद्रोही बनाने की फैक्ट्री तो वही है.

अब आते हैं इतिहास पर. हमें तो यह इतिहास नहीं बताया गया,हमें सच्चा इतिहास नहीं बताया गया,आज कल इतिहास नहीं बताने की शिकायत करने वाले कुछ ज्यादा हो गए हैं, इनकी संख्या वास्तव में इतिहास पढ़ने वाले छात्रों से ज़्यादा हो गई है. ये वो लोग हैं जिन्हें न तो तब पढ़ना था, और न अब पढ़ना है. इन्हें एक चीज़ बताने की ज़रूरत है. नए-नए संदर्भों के मिलने के साथ-साथ इतिहास में बदलाव होता है, यह कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन दो चार दस लोगों के साथ किसी को घेर कर इतिहास नहीं बदला जाता.  

इन दिनों कई लोगों से सुना कि अशोक का इतिहास नहीं पढ़ाया गया, उनकी सुविधा के लिए यह किताब बता रहा हूं. रोमिला थापर की किताब अशोक और मौर्य वंश का पतन. रोमिला थापर ने इस किताब की संदर्भ सूची में 219 किताबों का हवाला दिया है. यानी अशोक पर यही एक किताब नहीं है. दूसरी किताब नयनजोत लाहिड़ी की है. उन्होंने भी किताब के अंत में सैंकड़ों किताबों का हवाला दिया है, जिसकी मदद से यह किताब लिखी गई है.इन किताबों में कहीं भी नहीं लिखा है कि जब पढ़ाया जाएगा, तभी आपको पढ़ना है और उसके बाद व्हाट्स एप ग्रुप में जो कहा जाएगा, उसी को पढ़ते रहना है. क्या आप इंजीनियरिंग से लेकर मेडिकल की पढ़ाई के दौरान इतिहास की किताबें पढ़ने का वक्त निकाल पाते हैं? इसके लिए समय है? कितने लोग अपने बच्चों को मेडिकल और इंजीनियरिंग के बजाए, इतिहास पढ़ने भेजते हैं, या तब भेजते हैं जब इंजीनियरिंग की परीक्षा में फेल हो जाता है. 

जब भी कोई कहे कि हमें इतिहास में यह सब नहीं पढ़ाया गया तो उनसे पूछिए कि उन्होंने क्या क्या पढ़ा है और स्कूल की पतली सी किताब में क्या इतिहास जैसा विशाल विषय पढ़ाया जा सकता है? क्या वे दसवीं की कक्षा में पांच हज़ार पन्नों की इतिहास की किताब पढ़ना चाहेंगे? ऐसा कहने वालों से पूछिए कि इतिहास की कितनी किताबें ख़रीदी हैं?थैले से लेकर कोविड सर्टिफिकेट तक, पेट्रोल पंप से लेकर न्यूज़ चैनल की हर बुलेटिन में, कोई ऐसी जगह है, जब प्रधानमंत्रीमोदी नज़र नहीं आते हैं? इसके बाद भी कोई उन्हें भूल सकता है, वह भी उन्हीं की पार्टी के मुख्यमंत्री भूल  सकते हैं कि इस वक्त भारत के प्रधानमंत्री अमित शाह नहीं हैं और नरेंद्र मोदी बिल्कुल ही गृह मंत्री हीं हैं. ऐसी ग़लती किसी से भी हो सकती है, लेकिन जब बीजेपी के ही मुख्यमंत्री से हो जाए तब फिर सवाल हो सकता है कि पढ़ा देने से, रटा देने से ही न इतिहास पढ़ना हो जाता है और न ही वर्तनाम. 

कई बार नेताओं की ज़ुबान फिसल जाती है लेकिन सोचिए, जो क्रम गुजरात से लेकर दिल्ली तक नहीं बदला, वो असम के मुख्यमंत्री की ज़ुबान पर बदल गया.ऐसा कई बार हो जाता हैतो इस बात को ज्यादा महत्व नहीं देना चाहिए लेकिन हमारा सवाल इतिहास के संदर्भ में है. ऐसा कोई दिन नहीं आता जब इतिहास को लेकर कोई दावा करने ऐतिहासिक इमारतों के बाहर नहीं पहुंच जाता है.  

कुतुब मीनार के बाहर जमा ये दस पांच लोग क्या इसका बदला लेने आए हैं कि इन्हें इतिहास नहीं पढ़ाया गया है? या इतिहास का बदला लेने आए हैं? भारत में सबसे अधिक पत्रकार अगर किसी शहर में हैं तो वह दिल्ली है. और वहां भी इस तरह के संगठनों के बारे में कोई डिटेल जानकारी कहीं नहीं छपी है. न किसी ने पता लगाने का प्रयास किया है कि ये कौन लोग हैं, इन्हें इतिहास नहीं पढ़ाया गया तो कहां से ये इतिहास पढ़ कर आ गए हैं? मीडिया में ये सभी जिस संगठन के बारे में बताए जा रहे हैं, उसका नाम युनाइटेड हिन्दू फ्रंट है. इस फ्रंट का काम  दुनिया भर के हिन्दुओं को एक करना. 2012 से ही ट्विटर अकाउंट है लेकिन इस पते पर दुनिया भर से मात्र 492 फोलोअर ही एकजुट हुए हैं. वैसे इनके नेता का एक निजी अकाउंट भी है जिस पर 49,000 फोलोअर हैं. खुद को भारतीय जनता पार्टी का वरिष्ठ नेता बताते हैं और लोनी से बीजेपी के विधायक इन्हें फोलो करते हैं. इस संगठन का नारा है सेवा, संघर्ष और सुरक्षा. वैसे तो इस देश में नागरिकों की सुरक्षा के लिए पुलिस है, थाने है, कोर्ट है, सेना है, लेकिन ये संगठन भी सुरक्षा देने का काम कर रहे हैं. मंगलवार के प्रदर्शन के बाद इनके नेता का कई चैनलों पर इंटरव्यू होता रहा, डिबेट में हिस्सा लेते रहे. 

इस तरह के विवादों में आप संगठनों के नाम देखा कीजिए, अचानक से कहीं से सामने आ जाते हैं. इनका पंजीकरण पुराना हो सकता है लेकिन कई मामलों में इतिहास को लेकर सक्रियता बिल्कुल नई लगती है.कोई महंगाई और बेरोज़गारी के हालात नहीं बदलना चाहता, जिसे देखो इतिहास बदलने में लगा है.  Three essay collective से यह किताब छपी है.The present in Delhi's past,

इसके लेखक हैं इतिहासकार प्रोफेसर सुनील कुमार. जीवन भर दिल्ली के इतिहास की छानबीन करते रहन वाले प्रोफेसर सुनील कुमार ने इस किताब में दिखाया है कि किस तरह  आधुनिक समय में कुतुब मीनार को लेकर नए-नए दावे किए जाते रहे है,नए-नए तथ्य भी सामने आए लेकिन राजनीति बार-बार उन्हीं मुद्दों पर लौटती रही है. इस किताब में किसी बात को छिपाने का प्रयास नहीं किया गया है लेकिन यहां इतिहास को देखने का नज़रिए नाम बदलने और बदला लेने का नहीं है.कुतुब मीनार पर उनका यह लेख 61 पन्नों का है. इसमें से 9 पन्नों में बताया गया है कि इस लेख के लिए किन किताबों और दस्तावेज़ों का अध्ययन किया गया है.इस छोटे से लेख के लिए संदर्भ सूची की संख्या 64 है. क्या आप इस किताब को पढ़ेंगे या व्हाट्स एप ग्रुप में बोलेंगे कि अरे हां, इतिहास तो हमें पढ़ाया ही नहीं गया. 

हर देश में अलग-अलग टोलियां घूम रही हैं, जिनका काम है धर्म के नाम पर इतिहास को देखना और इतिहास का बदला लेना. ऐसे संगठनों के दम पर अतीत के गौरव की स्थापना का फर्ज़ी अभियान चलाया जाता है. आपने श्रीलंका में देख लिया कि वहां किस तरह से बौद्ध शासम व्यवस्ता की बहाली हो रही थी और उसके पीछे चीन से कर्ज़ा लेकर उन नीतियों को लागू किया जा रहा था, जो फेल हो चुकी हैं.हमने एक वीडियो देखा जिसमें सरकार का एक समर्थक अपनी जान बचाने के लिए कह रहा है कि मुस्लिम लोगों ने ऐसा किया है लेकिन सिंहली लोग उससे कह रहे हैं कि बांटने का काम बंद करो. नफरत की राजनीति बहुत हुई. 

इस खबर से पता चलता है कि हलाल मीट बंद कराने के मामले में श्रीलंका भारत से सीनियर है.BBC की यह रिपोर्ट 17 फरवरी 2013 की है.कट्टरवादी सिंहली बौद्ध संगठन मांग कर रहे थे कि हलाल मीट की बिक्री पर रोक लगे. इस रिपोर्ट में एक बयान छपा है, हमारा देश सिंहली है और हम इसकी अनआफिशियल पुलिस हैं. ऐसा कहने की मूर्खता और ताकत को धर्म के नाम पर ही इन्हें मिलती होगी. 21 मई 2019 की अल जज़ीरा की  खबर है कि श्रीलंका में सिंहला लोगों ने मुस्लिम पड़ोसियों पर हमला कर दियाहै.उस साल कई शहरों में मुसलमानों के घर और दुकानों को लूट लिया गया था. पत्थर और पेट्रोल बम से हमला किया गया था. खबर के अनुसार कट्टर बौद्ध संगठनों ने मुसमलानों के पाच सौ से अधिक घरों पर हमला बोला था, ध्वस्त कर दिया था. 

श्रीलंका का इतिहास तो नहीं बदला लेकिन देश बर्बाद हो गया. बौद्ध धर्म गुरु किसी काम नहीं आ रहे बल्कि अब आंदोलन का हिस्सा हो गए हैं. उनसे न शांति आई न समृद्धि आई.आज के हिन्दू अख़बार में एक रिपोर्ट भी छपी है कि चीन का कर्ज़ा लद गया, मगर विकास नही आया. इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर श्रीलंका कंगाल हो गया.जिन लोगों को इतिहास नहीं पढ़ाया गया है और वे भूल गए हैं उनकी एक त्रासदी बताना चाहूंगा. 

गूगल मैप न हो तो घर और पार्टी मुख्यालय कहीं न पहुंच सके. गूगल मैप वाली सखी का उच्चारण सुन कर ऐसा लगता है कि जनाब दिल्ली के आई टी ओ से नहीं, अंतरिक्ष में सैर कर रहे हैं. इस दौर में सड़कों के नाम बदल देने से क्या मिल जाएगा, जब आप नाम कुछ भी रखें, गूगल सखी, उसका नाम कुछ और पुकारने लगती है.  जहां भी मुस्लिम समुदाय के नाम हैं, उसे बदल कर ये लोग क्या हासिल करना चाहते हैं, क्या उस इलाके का कुछ और विकास हो जाता है? तो समझने की बात ये है कि जैसे गूगल सखी आपको शहर में घुमा रही है,उसी तरह से नाम के नाम पर ये संगठन आपको घुमाए जा रहे हैं. क्या वाकई आपको इन नामों से इतिहास याद आ जाता है? राजनीति को इतना रूटीन मत बना दीजिए कि सारी राजनीति फालतू विषयों पर होने लग जाए. 

मुंबई के बाद भी बांबे हाई कोर्ट है. चेन्नई हो जाने के बाद भी मद्रास हाई कोर्ट है. मद्रास मेडिकल कालेज है. अभी भी आपको मद्रासी डोसा का ही ठेला दिखेगा और मुंबई में बड़ा पाप बांबे स्टाइल का लिखा मिलेगा.लोकसभा में हाईकोर्ट का नाम बदलने के लिए 2016 में एक बिल भी लाया गया था. तो क्या हासिल हुआ, अगर यह नहीं ही सोचना है तो आपकी इस ज़िद का स्वागत करता हूं. वैसे इतिहास बदलने के लिए लड़ने वाले नेता अगर दिल्ली के निगम के स्कूलों के शिक्षकों के लिए लड़े और समय पर उन्हें वेतन दिला दें तो अच्छा रहता. अभी कुतुब चल रहा है कल अकबर चलेगा, परसों औरंगज़ेब चलेगा और नरसों अब्दाली चलेगा. आप कितने टापिक पर रिसर्च करेंगे,रिसर्च से किसी को मतलब नहीं है. लखनऊ में प्राध्यापक रविकांत को इसी तरह घेर लिया गया. उन्होंने बयान दिया है कि जिस बयान को लेकर घेरा गया है, उसके बारे में उन्होंने यह भी कहा था कि ऐसा सुनने में आता है, इसका कोई प्रमाण नहीं है. कई इतिहासकारों, प्राध्यापकों और पत्रकारों ने इस घटना की निंदा की है लेकिन निंदा से ऐसी घटनाओं पर कोई फर्क नहीं पड़ता है. जो प्रोफेसर हैं, उन पर हमला हो रहा है, जो हमला करने वाले हैं, वो इतिहासकार बन गए हैं. इसके बाद भी आपको शक है कि हम विश्व गुरु नहीं बन रहे हैं. 

मध्य प्रदेश में इस बार गेहूं की सरकारी ख़रीद काफ़ी कम रही है. किसानों ने निजी कारोबारियों को ख़ूब गेहूं बेचा है, दाम भी अच्छा मिला है, लेकिन सहकारी समितियों को जो गेहूं बेचा उसके भुगतान का डेढ़ महीने से इंतज़ार ही हो रहा है.
युद्ध के कारण दाम मिला लेकिन क्या किसान जानते हैं कि निजी कारोबारी ने उनसे गेहूं लेकर किस भाव से निर्यात किया है? न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार की कमेटी तय करती है उसमें तमाम बातों का ध्यान रखा जाता है, प्राइवेट कारोबारी ने कीमत किस आधार पर तय की, किसे पता है.नीट पीजी की परीक्षा के छात्र बहुत परेशान हैं. पांच साल MBBS की पढ़ाई पूरी करने के बाद PG करने का मौका आया तो तैयारी का समय नहीं मिला है. उनका कहना है कि हाल तक पिछली साल की  परीक्षा चली है जिसमें वे व्यस्त थे. नई परीक्षा की तैयारी के लिए वक्त नहीं मिला. मैंने उन्हें पिछली बार भी कहा था कि प्राइम टाइम में दिखाने से सरकार उनकी मांग मान लेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है, मेरी बात सही साबित हुई लेकिन छात्रों का कहना है कि एक बार और कोशिश करने में बुराई नहीं है.  

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