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तालिबान से संवाद: अस्थिर अफगानिस्तान में भारत का 'यू टर्न'

डॉ. मनीष दाभाडे
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 12, 2025 10:57 am IST
    • Published On अक्टूबर 12, 2025 10:57 am IST
    • Last Updated On अक्टूबर 12, 2025 10:57 am IST
तालिबान से संवाद: अस्थिर अफगानिस्तान में भारत का 'यू टर्न'

जब भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने 10 अक्टूबर 2025 को नई दिल्ली में अफगानिस्तान के कार्यवाहक विदेश मंत्री मौलवी अमीर खान मुत्ताकी से मुलाकात की, तो यह भारत-अफगान रिश्तों के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ था. दोनों नेताओं का एक-दूसरे से हाथ मिलाना और मुस्कान साझा करना केवल कूटनीतिक औपचारिकता नहीं थी, यह भारत की नई अफगान नीति में उभरते यथार्थवाद, आवश्यकता और सतर्क आशावाद का प्रतीक था. बातचीत के बाद जारी संयुक्त बयान ने इस बदलते रिश्ते की दिशा स्पष्ट कर दी- एक ऐसा रिश्ता जो कभी अविश्वास से भरा था, अब संवाद, आपसी सम्मान और क्षेत्रीय हितों के आधार पर पुनर्निर्मित हो रहा है.

जयशंकर ने कहा, ''आपकी यह यात्रा हमारे संबंधों को आगे बढ़ाने और भारत-अफगानिस्तान की स्थायी मित्रता को पुष्ट करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है.'' उन्होंने यह भी कहा, ''हमारे बीच निकट सहयोग अफगानिस्तान के राष्ट्रीय विकास और क्षेत्रीय स्थिरता में योगदान देता है.'' इन शब्दों में भारत की पुनर्संतुलित नीति का सार निहित था- दूरी पर नहीं, संवाद पर जोर. काबुल में भारत के तकनीकी मिशन को दूतावास का दर्जा देने की घोषणा, 2021 के बाद पहली बार, इस वास्तविकता की स्वीकृति थी कि अफगानिस्तान में सत्ता का केंद्र अब तालिबान है. वहीं मुत्ताकी ने आश्वासन दिया, ''हम अपने क्षेत्र का उपयोग किसी को भी दूसरों के खिलाफ करने की अनुमति नहीं देंगे.'' यह वह वादा था जिसका भारत सालों से इंतजार कर रहा था.

आतंकवाद पर अफगानिस्तान का साथ

संयुक्त बयान में दोनों पक्षों ने 'क्षेत्रीय देशों से होने वाले सभी आतंकवादी कृत्यों की निंदा' की और 'एक-दूसरे की संप्रभुता व क्षेत्रीय अखंडता के प्रति सम्मान' दोहराया. भारत के लिए यह केवल औपचारिक बयान नहीं था; यह संकेत था कि तालिबान अब खुद को क्षेत्रीय जिम्मेदारी निभाने वाले राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत करना चाहता है.

बैठक में मानवीय सहायता, स्वास्थ्य, शिक्षा, क्षमता-विकास और संपर्क के क्षेत्रों में व्यापक सहयोग पर सहमति बनी. भारत ने अफगान जनता के विकास और आकांक्षाओं के समर्थन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराई. नई परियोजनाओं की घोषणा की गई. काबुल के बागरामी जिले में 30-बेड अस्पताल, ऑन्कोलॉजी और ट्रॉमा सेंटर, पक्तिका, खोस्त और पकतिया प्रांतों में पांच मातृ स्वास्थ्य क्लीनिक और बाल स्वास्थ्य संस्थान में आधुनिक डायग्नोस्टिक केंद्र. इसके साथ ही, भारत ने कृत्रिम अंगों की सहायता और अफगान नागरिकों के लिए उन्नत चिकित्सा सुविधा देने का वादा किया. जयशंकर ने जिन 20 एम्बुलेंसों को देने की घोषणा की उनमें से पांच को प्रतीकात्मक रूप से उन्होंने अफगान के विदेश मंत्री को सौंपा. यह मानवीयता की उस परंपरा का विस्तार है, जो भारत की नीति की पहचान रही है.

अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी को एंबुलेंस की चाबी सौंपते विदेश मंत्री एस जयशंकर.

अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी को एंबुलेंस की चाबी सौंपते विदेश मंत्री एस जयशंकर.

यह सहयोग केवल विकास परियोजनाओं तक सीमित नहीं था; यह रणनीतिक यथार्थ की स्वीकृति भी था. भारत ने यह स्पष्ट कर दिया कि उसकी नीति किसी भी सत्ता के बावजूद अफगान जनता के साथ खड़ी रहेगी. यह उस 'सतत मानवीयता' का उदाहरण था, जो अब 'रणनीतिक व्यावहारिकता' के साथ जुड़ चुकी है.

भारत अफगानिस्तान का साझा दुश्मन 

मुत्ताकी ने भी इसे 'करीबी दोस्ती' बताते हुए भारत से शिक्षा, व्यापार और कनेक्टिविटी बढ़ाने का आह्वान किया. उन्होंने कहा, ''बातचीत और संवाद से ही हमारे बीच समझ बढ़ सकती है.'' उन्होंने यह भी जोड़ा कि 'दाएश (आईएस-के) पूरे क्षेत्र के लिए चुनौती है. अफगानिस्तान इस संघर्ष की अग्रिम पंक्ति में है.' यह कथन भारत की सुरक्षा चिंताओं के साथ गूंजता है. यह इस बात का संकेत देता है कि तालिबान आतंकवाद-विरोधी सहयोग को साझा हित के रूप में देख रहा है.

संयुक्त बयान में भारत-अफगानिस्तान एयर फ़्रेट कॉरिडोर के उद्घाटन की घोषणा भी शामिल थी, सीधा व्यापार बढ़ाने की दिशा में बड़ा कदम. अफगानिस्तान ने भारतीय कंपनियों को खनन क्षेत्र में निवेश के लिए आमंत्रित किया, जिससे आर्थिक साझेदारी की वापसी का संकेत मिला. भारत ने भी छात्रवृत्तियों की निरंतरता और अफगान छात्रों को उच्च शिक्षा के अवसर देने की घोषणा की. शिक्षा, विकास और मानवीयता का यह त्रिकोण भारत की अफगान नीति का स्थायी आधार बना हुआ है. 

दिल्ली में हुई बैठक के दृश्य भी प्रतीकात्मक थे. किसी पक्ष का झंडा नहीं लहराया गया, न तो 'इस्लामिक अमीरात' का और न ही 'रिपब्लिक' का. भारत ने मुत्ताकी को 'अफगानिस्तान के विदेश मंत्री' के रूप में संबोधित किया, बिना औपचारिक मान्यता दिए वास्तविकता को स्वीकार किया. यह वही भारत था जिसने 1999 में कंधार अपहरण के बाद तालिबान से संवाद बंद कर दिया था. अब वही भारत तालिबान के साथ मिलकर अस्पताल, सड़कें और व्यापारिक गलियारे बनाने की बात कर रहा है. यह बदलाव आदर्शवाद से यथार्थवाद की यात्रा का प्रतीक है.

अफगानिस्तान ने भारत को अपने यहां खनन के क्षेत्र में संभावनाएं तलाशने के लिए आमंत्रित किया है.

अफगानिस्तान ने भारत को अपने यहां खनन के क्षेत्र में संभावनाएं तलाशने के लिए आमंत्रित किया है.

जयशंकर ने अफगानिस्तान में आए भूकंप के पीड़ितों के प्रति संवेदना प्रकट करते हुए भारत की 'फर्स्ट रिस्पॉंडर' की भूमिका दोहराई. उन्होंने जल प्रबंधन और सलमा बांध जैसे सहयोगात्मक परियोजनाओं को भी रेखांकित किया. यह संदेश देते हुए कि विकास और भू-राजनीति भारत की अफगान नीति में अब परस्पर जुड़ी हुई हैं. लेकिन इस संवाद का गहरा अर्थ केवल परियोजनाओं में नहीं, बल्कि भारत की रणनीतिक सोच में निहित है. अफगानिस्तान से संवाद भारत की उस स्थायी कूटनीतिक द्वंद्व का उदाहरण है, जहां मूल्य और हितों के बीच संघर्ष अपरिहार्य होता है. भारत लोकतंत्र, महिला शिक्षा और समावेशी शासन के मूल्यों का समर्थक है, पर उसे यह भी समझ है कि अपने पश्चिमी मोर्चे की सुरक्षा, आतंकवाद की रोकथाम और मध्य एशिया तक पहुंच बनाए रखने के लिए तालिबान से बातचीत आवश्यक है.

अफगानिस्तान में भारत के लिए चुनौतियां

मुत्ताकी का यह बयान कि 'अफगानिस्तान की धरती किसी अन्य के खिलाफ उपयोग नहीं की जाएगी,' भारत की इस नीति को व्यावहारिक आधार देता है. पाकिस्तान के साथ तालिबान के संबंधों में आए तनाव के बीच यह कथन भारत के लिए रणनीतिक अवसर बन गया है. दशकों तक पाकिस्तान ने 'स्ट्रैटेजिक डेप्थ' के नाम पर अफगानिस्तान का उपयोग किया, पर आज काबुल का स्वतंत्र रुख भारत को उस 'गहराई' को अपने पक्ष में बदलने का अवसर देता है.

फिर भी यह जुड़ाव जोखिमों से मुक्त नहीं है. तालिबान के भीतर असहमति, चरमपंथी तत्वों की मौजूदगी और महिलाओं के अधिकारों पर उनका कठोर रवैया भारत के लिए नैतिक और राजनीतिक चुनौती है. मुत्ताकी की दिल्ली प्रेस वार्ता में महिला पत्रकारों को प्रवेश न देना और मानवाधिकार प्रश्नों को 'प्रचार' कहकर खारिज करना इस बात का संकेत है कि मूल्यों की खाई अब भी गहरी है. ऐसे में भारत को अपना दृष्टिकोण व्यावहारिक रखना होगा- तालिबान को बदलना नहीं, बल्कि उनके साथ सहयोग को राष्ट्रीय हितों तक सीमित रखना.

भारत ने अफगानिस्तान के काबुल में अपना दूतावास फिर से खोलने की घोषणा की है. अभी वहां भारत का तकनीकी मिशन काम कर रहा है.

भारत ने अफगानिस्तान के काबुल में अपना दूतावास फिर से खोलने की घोषणा की है. अभी वहां भारत का तकनीकी मिशन काम कर रहा है.

भारत के लिए अफगानिस्तान में अवसर

दूतावास फिर खोलने का निर्णय इसी यथार्थवाद का परिणाम है. इससे भारत को जमीनी सूचनाएं, संकट-प्रबंधन की क्षमता और निवेशों की सुरक्षा मिलेगी. अफगानिस्तान के लिए यह भारत के साथ आर्थिक संतुलन का अवसर है. जयशंकर ने कहा, ''खनन के क्षेत्र में भारतीय कंपनियों को आमंत्रण सराहनीय है.'' यह कथन स्पष्ट करता है कि भारत अफगानिस्तान की स्थिरता में हिस्सेदार रहना चाहता है, बशर्ते उसकी सुरक्षा चिंताओं का सम्मान हो.
10 अक्टूबर की यह बैठक दूरी नहीं, संवाद का प्रतीक है; भावनाओं से नहीं, गणना से संचालित नीति का परिचायक है. भारत अब अफगानिस्तान की आंतरिक राजनीति को आकार देने की नहीं, बल्कि अपने हितों को सुरक्षित रखने की नीति अपना रहा है. तालिबान के लिए यह अंतरराष्ट्रीय वैधता की दिशा में एक कदम है; भारत के लिए यह प्रभाव और सुरक्षा बनाए रखने की रणनीति.

भविष्य में यह संवाद तभी सार्थक सिद्ध होगा जब तालिबान अपने आतंकवाद-विरोधी वादों को निभाए और भारत अपने विकासात्मक वचन पूरे करे. अगर यह विश्वास कायम रहा, तो दोनों देशों का यह संबंध दक्षिण एशिया में स्थिरता का आधार बन सकता है. मौलवी अमीर खान मुत्ताकी की यह यात्रा और जयशंकर के साथ उनका संवाद भारत की विदेश नीति के एक नए अध्याय का संकेत है- एक ऐसा अध्याय जहां भारत नैतिकता और हितों के बीच पुल बनाकर यथार्थवादी परिपक्वता दिखा रहा है. दक्षिण एशिया की बदलती राजनीति में यह वही भारत है जो अपने पड़ोस से विमुख नहीं, बल्कि व्यावहारिक संवाद के जरिए अपने भविष्य को सुरक्षित करना चाहता है. तालिबान से संवाद कोई वैचारिक समर्पण नहीं, बल्कि रणनीतिक आत्मविश्वास का प्रमाण है- एक ऐसे क्षेत्र में जहां शक्ति और स्थिरता, आदर्शों से अधिक निर्णायक हैं.

डिस्क्लेमर: लेखक द इंडियन फ्यूचर्स थिंक टैंक के संस्थापक और दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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