फुटबॉल का फीफा वर्ल्ड कप चल रहा था. एक टीम दूसरे से उलझ रही थी. बार-बार अपील की जा रही थी. एक खिलाड़ी को इतना उलझाया जा रहा था कि उस ने खीझ कर हमला कर दिया. विरोधी टीम मानो इसी इंतजार में थी. हमलावर खिलाड़ी मैदान से बाहर कर दिया गया. दुनिया की सबसे बड़ी फुटबाल टीम अपने खिलाड़ियों को साइकोलॉजिकल वार के सब गुण सिखाती हैं. ताकि खिलाड़ी अपना नियंत्रण न खो दें.
किसी युद्ध में भी यही होता है. लड़ने वाले देश अपने-अपने हिसाब से हर घटना का विवरण देते हैं. वो लगातार एक साइकोलॉजिकल वार चला रहे होते हैं. एक ऐसा युद्ध जिसमें सूचना तंत्र का गजब इस्तेमाल होता है. दूसरे विश्व युद्ध में तो पर्चे गिराए जाते थे. जिन में यहां तक लिखा होता था कि कैसे दुश्मन देश की सेना मोर्चों पर घुटने टेक रही है. मन में हार का डर कई दफा वास्तविक हार को बड़ा कर देता है. इसका पूरा इतिहास है. क्या चुनाव में भी मनोविज्ञान लगातार काम कर रहा होता है? क्या इसके असर और इसको डिकोड करने का काम भारत में हो रहा है?
अमेरिका में पॉलिटिकल साइकोलॉजिकल ग्रुप्स लगातार काम कर रहे हैं. वो चुनाव के पहले और बाद में ये तय कर रहे होते हैं कि कैसे एक व्यक्ति जब वोट देने के लिए जाता है तो उसके दिमाग में क्या चल रहा होता है. उसके खुद के अनुभव उसकी वोटिंग को कैसे तय कर रहे होते हैं. हाल ही में वोटर मनोविज्ञान को लेकर जो अध्ययन हुए हैं वो बेहद दिलचस्प हैं. ये बता रहे हैं कि अगर कम उम्र में वोटर के दिमाग में कुछ बातें या घटनाओं को बिठा दिया जाए तो इसका असर लंबे वक्त तक रहता है. वोटिंग में भावनाओं का अपना रोल है. जिसको लेकर बात कम होती है. सारे सर्वे सिर्फ नंबर या स्विंग की बात करते हैं. लेकिन किन मसलों पर भावनाओं का जुड़ाव बहुत ज्यादा होता है और किन पर नहीं ये अब भी देश की सर्वे एजेंसियों से दूर है.
एक लोकतांत्रिक देश के तौर पर चुनाव और वोटर के दिमाग में क्या चल रहा है, इसका अध्ययन भले ही कम हो रहा हो लेकिन नेता इस बात को बखूबी समझ रहे होते हैं. उन्हें पता होता है कि कैसे और कब मनोवैज्ञानिक दबाव बनाना है. 'एनडीए 400 पार' भी उस साइकोलिजिकल इलेक्शन वार का हिस्सा है. प्रधानमंत्री मोदी बीजेपी के लिए 370 सीट की बात करते हैं तब ये साफ हो जाता है कि लोगों के दिमाग में जीत और हार की चर्चा ही नहीं होने देना चाहते. वो चाहते हैं कि बात जीतने के नंबर की हो. ये विरोधी पक्ष पर मनोवैज्ञानिक बढ़त का पहला तीर था. 370 और 400 पार का नारा देने के पंद्रह बीस दिन के भीतर ही नया तीर चला गया. जिसमें सभी मंत्रालयों को चुनाव के बाद के 100 दिन की योजना बनाने को कहा गया है. ये सब उस रणनीति का हिस्सा है, जिसे युद्ध में भी आजमाया गया है. अमेरिका में वोटर के मन को पढ़ने की जो शुरुआत हुई है उसमें बेहद दिलचस्प ये भी है कि कैसे प्रत्याशी की जीत में जीत और हार में हार खुद वोटर महसूस करने लगता है. इसका ही ये नतीजा होता है कि वोटर कई बार सड़क पर आकर मरने मारने पर उतारू हो जाता है.
चुनावी याददाश्त, वोटिंग पैटर्न और मनोविज्ञान आपस में बेहद उलझे हुए हैं. इसको लेकर भारत में काम बेहद कम हुआ है. माना जा रहा है कि नई तकनीक और प्रोफेशनल सर्वे एजेंसियों के आने से ये डाटा सहजता से उपलब्ध हो जायेगा. इस सब से भारत में भी ये बता पाना आसान हो जायेगा कि किस किस्म के संदेश से क्या असर हुआ. उस मैसेज ने कैसे वोटिंग को बदला या नहीं बदला.
कई स्टडी बता रही हैं कि राजनेता भले ही ये कहते रहें कि जनता को राजनीति से फर्क नहीं पड़ता लेकिन असल में वोटर अपने सम्मान, गवर्नेंस और बहुत से मसलों पर राजनीति को देख रहा होता है. उसका झुकाव किसी एक घटना से नहीं बनता, बिगड़ता. कई सारी घटनाओं को जब एक तरीके से दिखाया जाता है तब आम वोटर का मन बनता है. कई सारी घटनाओं को एक तरीके से दिखाने में मनोविज्ञान बहुत काम करता है. भारत में नेता लगातार जनता के मूड को भांपने में लगे रहते हैं. वोटर के मनोविज्ञान पर हुए अध्ययन बताते हैं कि उन मुद्दों की अपील ज्यादा होती है जिन में पीड़ितों को ये बताया जाता है कि मौजूदा हालात के लिए फलां लोग या संगठन जिम्मेदार है.
दुनिया में जितने भी देशों में लोकतंत्र है वहां ये साफ हुआ है कि प्रत्याशी की पहचान में खुद को तलाशने वाले वोटर बड़ी तादाद में होते हैं. वो उसके संग अपना जुड़ाव महसूस करते हैं अगर वो उनके जैसा हो. या उनके बीच से निकला हो. पहचान की इस राजनीति ने भारत में बड़ा असर छोड़ा है. असल में ये विषय भी चुनावी मनोविज्ञान से सीधे जुड़े हैं.
बहुत संभव है कि आने वाले दिनों में जब भारत और मजबूत लोकतंत्र बन जाए तब वोटर की साइकोलॉजी को समझने वाले बड़े अध्ययन हों. जिन संदेशों को हम महज चुनावी रणनीति समझ रहे हों वो असल में कैसे वोटर का व्यवहार बदलते हैं इसको लेकर अभी बहुत काम बाकी है. सर्वे एजेंसियों के आने के बाद अब ये उम्मीद जाग रही है कि वोटिंग पैटर्न को डिकोड करने वाले मनोवैज्ञानिक कारणों को हम गहराई से समझ पाएंगे.
अभिषेक शर्मा NDTV इंडिया के मुंबई के संपादक रहे हैं... वह आपातकाल के बाद की राजनीतिक लामबंदी पर लगातार लेखन करते रहे हैं...
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