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This Article is From May 23, 2017

कठघरे में खड़ा एक तथाकथित क्रांतिकारी नेता

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 24, 2017 15:09 pm IST
    • Published On मई 23, 2017 18:58 pm IST
    • Last Updated On मई 24, 2017 15:09 pm IST
बात ग्यारह साल पहले सन् 2006 के सोमवार की है, जब भारत के मात्र अड़तीस साल के एक नौजवान को फिलीपींस की सरकार ने अपना नोबेल पुरस्कार ‘रेमन मेगसेस‘ देने की घोषणा की थी. यह पुरस्कार सूचना के अधिकार आंदोलन को आगे बढ़ाकर आम लोगों का सशक्तिकरण करने के लिए दिया गया था.

ब्यूरोक्रेट होने के नाते मेरे लिए यह घोषणा इसलिए विशेष आकर्षण लिए हुए थी, क्योंकि इसको पाने वाला स्वयं एक नौकरशाह था. यह आकर्षण इतना प्रबल था कि कुछ ही दिनों बाद मैं गाजियाबाद के उनके फ्लैट में उनके सामने बैठा हुआ था. सच कहूं तो कुछ ही देर बाद फ्लैट की सीढ़ियां उतरते समय आकर्षण के उस ज्वार ने ढलान की मुद्रा अख्तियार कर ली थी.

फिर से कुछ ऐसा ही एक दौर आया पांच साल बाद. दरअसल, लोकपाल की मांग वाले सन् 2011 के आंदोलन ने बहुत जल्दी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का रूप ले लिया. उस समय अन्ना हजारे के साथ चमकने वाला जो समानांतर सितारा था, वह था- अरविंद केजरीवाल. अरविंद केजरीवाल यानी कि ईमानदारी के सारथी, युवाओं के आइकॉन, भविष्य की संभावना तथा भारत का भविष्य आदि-आदि. इसका नतीजा क्या निकला? वे मुख्यमंत्री बने, और वह भी देश की राजधानी दिल्ली के. अद्भुत, अविश्वसनीय. फिर से एक प्रबल आकर्षण. लगा कि आप पार्टी पर खुद को कुर्बान कर दूं. खुद को रोका. “रुको और सुनो” की नीति अपनाई. लेकिन उनकी पुस्तक “स्वराज्य“ को पढ़ने के बाद लग गया था कि वे मोहल्लों की राजनीति से अधिक की सोच नहीं रखते. सत्तासीन होने के बाद उन्होंने बौनी और ओछी राजनीति के एक-दो नहीं, बल्कि रोज़ाना ही कोई-न-कोई प्रमाण दिया है.

सन् 1974 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जागकर फिर से सोया हुआ युवा सन् 2011 में सैंतीस साल बाद जागा था. आज वह खुद को छला हुआ महसूस कर रहा है, केजरीवाल के हाथों छला हुआ. लेकिन क्या अरविंद को इस बात का तनिक भी एहसास है? क्या इस इंजीनियर के पास वह संवेदनशीलता है, जो यह जान सके कि समूह के सपनों की हत्या करने वाले को क्या कहते हैं? भविष्य की भ्रूण-हत्या करने से भी बड़ा और जघन्य पाप क्या कोई अन्य हो सकता है? भविष्य की पीढ़ियां अपने इतिहास से इन प्रश्नों के उत्तर मांगेंगी और केजरीवाल को इनके उत्तर देने ही होंगे. यहां ईवीएम मशीन की आड़ काम नहीं आएगी, क्योंकि इतिहास अत्यंत तटस्थ होता है, और निर्मम भी.

केजरीवाल जब गणतंत्र दिवस परेड की बाधा बनकर धरने पर बैठे थे, तब मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग ने उन्हें “एक अराजकतावादी” कहा था. लेकिन देश ने उस समय उन बुद्धिजीवियों की बात को पक्षपात एवं द्वेषपूर्ण मानकर नकार दिया था. बाद में वे हवा में हाथ लहराकर चुटकी बजाते और उनकी उंगलियों के बीच किसी न किसी बड़े नेता के खिलाफ भ्रष्टाचार के सबूती दस्तावेज आ जाते. लोग उनके द्वारा लगाए जाने वाले आरोपों को न केवल ध्यान से सुनते, बल्कि उन पर विश्वस भी करते थे. इसके कारण दिल्ली के इस युवा मुख्यमंत्री की छवि करप्शन के खिलाफ जेहाद छेड़ने वाले एक अत्यंत निडर क्रांतिकारी की होती चली गई.

और आज? मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी यह सोचने को मजबूर है कि बात-बात पर, यहां तक कि बिना बात का भी बतंगड़ बनाकर लगभग रोजाना ही दहाड़ने वाला वह शेर आज मौन क्यों है? आरोप कोई बाहरी व्यक्ति नहीं लगा रहा है. लगाने वाला उन्ही के मंत्रीपरिषद का उनका एक विश्वसनीय साथी है. तो क्या उन आरोपों का उत्तर चुप्पी होगी ? देश के वित्तमंत्री ने उन पर मानहानि का मुकदमा ठोंक दिया है. यह विकल्प केजरीवाल के पास भी है. क्या वे भी कपिल मिश्रा के साथ ऐसा ही कुछ करके जनता के सामने अपने निर्दोष होने का प्रमाण पेश करेंगे?

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