- राजद के चुनावी पोस्टरों में लालू और अन्य वरिष्ठ नेताओं के चेहरे शामिल नहीं हैं, केवल तेजस्वी नजर आ रहे
- तेजस्वी पार्टी के चुनावी अभियान और टिकट वितरण सहित सभी महत्वपूर्ण निर्णय खुद ले रहे हैं, जबकि अध्यक्ष लालू हैं
- राजद युवा और बेरोजगार वोटरों को आकर्षित करने के लिए तेजस्वी यादव को बिहार का भविष्य बताकर नई छवि बना रही
शायद ही आपने किसी भी पार्टी में कभी ऐसा देखा होगा कि जो व्यक्ति पार्टी का अध्यक्ष हो, पार्टी का सर्वेसर्वा हो, पार्टी संसदीय बोर्ड का चेयरमैन हो और वही राज्य के मुख्य चुनाव में पार्टी के पोस्टर से गायब हो. यदि आप राजद के चुनावी पोस्टर को देखेंगे, तो तेजस्वी यादव के अलावा लालू के साथ राबड़ी देवी, मीसा भारती, रोहिणी आचार्या या पार्टी के किसी भी बड़े चेहरे को स्थान नहीं दिया गया है. लालू यादव बिहार के दो बार मुख्यमंत्री और केंद्र में रेलमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर रहे है. जबकि राबड़ी देवी भी बिहार के सीएम जैसे महत्वपूर्ण पद पर रही हैं. आज भी राजद का पहचान या उसके आधार वोट लालू यादव के कारण है. हिन्दुस्तान के राजनीति और राजनैतिक चालों के बड़े खिलाड़ी लालू माने जाते रहे हैं. जेपी आंदोलन से लेकर तीसरे मोर्चे की सरकार हो या यूपीए सरकार का गठन, लालू यादव की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण रही है.
RJD के पोस्टर से लालू क्यों गायब?
राष्ट्रीय जनता दल (RJD) सुप्रीमो, लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) ने खुद कहा था- जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू. बिहार की राजनीति में अपनी प्रासंगिकता को रेखांकित करते हुए अपने अंदाज में कही लालू की यह बात अब पुरानी होती दिख रही है. सवाल यह उठ रहा है कि समोसे में आलू तो पहले की तरह ही है, लेकिन बिहार की राजनीति से पहले क्या आरजेडी से ही लालू युग के अंत की आहट आने लगी है? यदि आप देखिए लालू याद, आरजेडी आगामी विधानसभा चुनाव में केवल तेजस्वी यादव (Tejaswi Yadav) को आगे कर रहे हैं. जिस पार्टी को लालू ने सींच व पाल-पोसकर बड़ा किया, उसके होर्डिंग्स-पोस्टरों से ही वे गायब कर दिए गए हैं. ऐसे में सवाल यह भी है कि क्या तेजस्वी यादव पिता लालू यादव की छवि से पीछा छुड़ाना चाहते हैं?
क्या युवा चेहरा नया जोश को आगे कर जंगल राज...
दरअसल, राजद की जो ताकत है, वही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है. यानी लालू-राबड़ी की लिगेसी, उनका वो 15 साल का कार्यकाल. यही देखा गया कि लालू राबड़ी काल में कैसे एक खास जाति समूह का सरकार से लेकर सरकारी कार्यालयों और थानों में वर्चस्व बढ़ता चला गया. लालू राबड़ी कार्यकाल के भूत से छुटकारा पाने के लिए तेजस्वी ने अब पूरी तरह से राजद की कमान अपने हाथों में ले ली है. इसके संकेत पिछले विधानसभा चुनाव से ही मिल रहे थे. 2024 लोकसभा चुनाव में भी टिकट वितरण से लेकर पूरी चुनावी अभियान इनके हाथों में ही थी. एक तरह से देखा जाए तो लालू पार्टी के अध्यक्ष जरूर हैं, लेकिन पार्टी के सभी डिसीजन तेजस्वी खुद ले रहे है.
बात चुनावी होर्डिंग्स व पोस्टरों की करें, तो लालू प्रसाद यादव का चेहरा आते ही लड़ाई नीतीश बनाम लालू (Nitish Vs Lalu) हो जाती है. ऐसी स्थिति में सत्ता पक्ष को लालू-राबड़ी राज (Lalu-Rabri Raj) को जंगल राज (Jungle Raj) बताने में आसानी हो जाती है. अब केवल तेजस्वी यादव का चेहरा सामने रख कर आरजेडी उन्हें बिहार का भविष्य बता रहा है. आगे की सोच के साथ चलने की इस रणनीति के साथ लालू-राबड़ी के 15 साल के दौर के दाग भी पीछे छूटते नजर आते हैं. पार्टी तेजस्वी के युवा चेहरे को आगे कर के लालू राबड़ी सरकार के दिनों के कार्यकाल का लोगों के जेहन से पीछा छुड़ाना चाहती है.
युवा और बेरोजगार वोटरों का आकर्षण
बिहार में खासकर युवा वर्ग में तेजस्वी को लेकर एक एक खास क्रेज देखने को मिल रहा है. उन्हें एक ऊर्जावान नेता के रूप में देखा जा रहा हैं. खासकर युवाओं और बेरोजगारों में... उनके डिप्टी सीएम कार्यकाल में लाखों लोगों को नौकरियां दी गईं, जिससे खासकर युवा वर्ग उनकी क्षमता पर भरोसा करते हैं. उन्होंने वादा किया है कि महागठबंधन की सरकार बनेगी, तो हर परिवार को कम से कम एक सरकारी नौकरी मिलेगी, जो बिहार के 2.76 करोड़ परिवारों में से कई को प्रभावित कर सकता है. यह वादा युवाओं को उत्साहित करता है, जो बिहार में प्रवासन और बेरोजगारी से त्रस्त हैं. दूसरी तरह आधी आबादी यानी महिलाओं को भी साधने के लिए उन्होंने घोषणा की है. यदि सरकार में आए, तो एक करोड़ 36 लाख जीविका दीदियों को 30 हजार सैलरी और स्थाई नौकरी देंगे. यह नीतीश की 10 हजार रुपये वाली स्कीम की काट के रूप में देखी जा रही है. मतदाताओं के बीच तेजस्वी को सीएम फेस के रूप में सर्वेक्षणों में सबसे आगे बताया जा रहा है, जो गठबंधन को युवा वोट बैंक (बिहार की आबादी का बड़ा हिस्सा) हासिल करने में मदद करेगा.
MY से A to Z की पार्टी
बिहार की राजनीति में जब लालू यादव का उदय हुआ, तो उनकी इमेज एक गरीब-गुरबों के नेता के रूप में बनी थी. लेकिन जैसे-जैसे सत्ता के शीर्ष पर पहुंचते गए उनकी इमेज में डेंट लगता गया. गरीबों के नेता से पिछड़ों का नेता, फिर पिछड़ों के नेता से माय समीकरण तक सिमट जाना कहीं न कहीं उनकी लोकप्रियता के गिरते हुए ग्राफ के संकेत हैं. इसी इमेजे को सुधारने के लिए अब तेजस्वी नई रणनीति के तहत A to Z की बात करते है. तेजस्वी यादव अपने आधार वोट बैंक को बढ़ाने के लिए नए सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूला के तहत अब A से Z की बात करते हैं. इसका फायदा उन्हें विगत विधानसभा और लोकसभा चुनाव में मिल भी हैं. इसी सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूला को साधने के लिए लोकसभा चुनाव में उन्होंने औरंगाबाद, नवादा, वैशाली ओर बक्सर में माय समीकरण से बाहर जाकर अन्य समाज के लोगों को टिकी दिया. औरंगाबाद और बक्सर राजद जीतने में कामयाब भी रही. वहीं नवादा और वैशाली में NDA को कड़ी टकर दी. इस बार भी विधानसभा चुनाव में सोशल इंजीनियरिंग के तहत माय समीकरण से बाहर जाकर अन्य समाज के लोगों को भी टिकी दिया हैं, जो तेजस्वी की नई सोच को दिखाता है.
बिना लालू राबड़ी के सहारे तेजस्वी पिछले विधानसभा चुनाव में ही जेडीयू बीजेपी गठबन्धन को कड़ी टक्कर देते हुए दिखे. कुछ चंद वोटों का फ़ासला था, नहीं तो तेजस्वी सरकार में होते. विपक्ष भी चुनाव में अपने कार्यकाल की तुलना लालू-राबड़ी कार्यकाल से करते हैं और जंगल राज का याद दिलाते रहते हैं. ऐसा शायद ही कोई भी चुनाव हो, जिसमें जंगल राज का मुद्दा नहीं उछला हो.
इसलिए तेजस्वी सधी हुए रणनीति के तहत पुरानी लीगेसी से छुटकारा पाकर है, आम आवाम के बीच नए एजेंडा, नए नैरेटिव के साथ लोगों के बीच जाना चाहते हैं. आने वाले विधानसभा चुनाव में इसका कितना फायदा होगा, वह चुनाव के नतीजे ही तय करेंगे.
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