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Bihar Election: पूरे बिहार में इस बार बंपर वोटिंग पर पटना के शहरी इलाकों में घरों से नहीं निकले लोग!

बिहार विधानसभा चुनाव में पहले चरण की वोटिंग खत्म हो चुकी है. हालांकि राजधानी पटना के शहरी इलाकों में कम वोटिंग हुई है. पूरे राज्य में इस बार बंपर वोटिंग हुई है और वोटिंग का आंकड़ा 64.69 प्रतिशत का रहा है.

Bihar Election: पूरे बिहार में इस बार बंपर वोटिंग पर पटना के शहरी इलाकों में घरों से नहीं निकले लोग!
पटना के शहरी इलाकों में कम वोटिंग
पटना:

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के पहले चरण ने मतदान के सारे पुराने रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं. 6 नवंबर को 18 जिलों की सभी 121 सीटों पर संपन्न हुए मतदान में 64.66% की ऐतिहासिक वोटिंग हुई है.आजादी के बाद बिहार में सबसे ज्यादा वोट पड़े हैं. एक तरफ जहां मुजफ्फरपुर के मीनापुर जैसी ग्रामीण सीटों ने 73% से अधिक मतदान कर एक नया कीर्तिमान बनाया, वहीं दूसरी ओर, राज्य की राजधानी पटना की शहरी सीटें सबसे कम मतदान वाली सूची में सबसे नीचे रहीं. यह विश्लेषण सिर्फ पटना पर नहीं, बल्कि पहले चरण की सभी 121 सीटों से मिले आंकड़ों पर आधारित है. इस चुनाव की कहानी दो हिस्सों में बंटी है. एक ओर ग्रामीण बिहार है, जिसने अभूतपूर्व उत्साह दिखाते हुए बंपर वोटिंग की. दूसरी ओर, राज्य की राजधानी पटना के मुख्य शहरी इलाकों में एक बार फिर शहरी उदासीनता का पुराना ढर्रा देखने को मिला.

यह एक दिलचस्प विरोधाभास है कि जहां पूरे चरण में बंपर वोटिंग हुई, वहीं सबसे कम मतदान वाली सीटें पटना जिले की ही रहीं. पूरे चरण में सबसे कम मतदान वाली सीटें पटना जिले के शहरी इलाकों की हैं. दीघा में कुल 39.10% वोट पड़े. कुम्हरार 39.52% के साथ दूसरे नंबर पर हैं. वही तीसरे नंबर पर बांकीपुर हैं जहां 40% लोगों ने वोट किया है. वही 45.07% के पोलिंग के साथ आरा चौथे स्थान पर है. 

सबसे कम पोलिंग के कारणों की बात करें तो इसके कई कारण हो सकते हैं. इसमें पहला कारण हमें क्या फर्क पड़ता है वाली मानसिकता हो सकती है. पटना के इन शहरी इलाकों में एक बड़ा वर्ग मध्यम और उच्च-मध्यम वर्ग के पेशेवरों, सरकारी कर्मचारियों और व्यापारियों का है. इस वर्ग की एक आम मानसिकता यह है कि उनके एक वोट से उनके रोजमर्रा के जीवन पर कोई सीधा या बड़ा फर्क नहीं पड़ने वाला है. ग्रामीण मतदाताओं के विपरीत, जिनकी आजीविका और बुनियादी ज़रूरतें (जैसे राशन, आवास, मनरेगा) काफी हद तक सरकारी योजनाओं पर निर्भर होती हैं, यह शहरी वर्ग खुद को व्यवस्था पर कम आश्रित पाता है. सड़कों, बिजली और पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं को वे अपना अधिकार मानते हैं, न कि किसी चुनावी वादे का परिणाम. 

दूसरा कारण छुट्टी का रवैया है. मतदान का दिन अक्सर नागरिक कर्तव्य से ज्यादा एक छुट्टी का दिन बन जाता है. इसे आराम करने, परिवार के साथ समय बिताने या निजी कामों को निपटाने के अवसर के तौर पर देखा जाता है. इसके अलावा, ग्रामीण क्षेत्रों में जिस तरह की मजबूत सामाजिक और जातीय लामबंदी (Ground Mobilization) दिखती है, जो मतदाताओं को घरों से निकालकर बूथ तक ले आती है, वह इन शहरी इलाकों में लगभग न के बराबर होती है. यह वर्ग राजनीतिक दलों के पन्ना प्रमुखों या बूथ कार्यकर्ताओं के प्रभाव में कम आता है. तो कई मतदाता घर पर ही रहना पसंद करते हैं.

तीसरा कारण प्रवासी मतदाता की दुविधा हो सकती है. पटना शिक्षा और रोजगार का एक बड़ा केंद्र है. यहां किराए पर रहने वाली एक बहुत बड़ी आबादी-चाहे वे छात्र हों, युवा पेशेवर हों या मजदूर-मूल रूप से राज्य के अन्य जिलों (जैसे सिवान, दरभंगा, समस्तीपुर, मजफ्फरपर) के निवासी हैं. भले ही वे किसी और जिले में रहते हों, उनका वोटर कार्ड उनके गांव का होता है. ऐसे में उनके पास दो ही विकल्प होते हैं या तो वो वोट देने के लिए लंबी यात्रा करके अपने गांव जाएं या फिर वे यात्रा की असुविधा के कारण पटना में रहते हुए भी वोट न डालें. 
 

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