भारत को गढ़ने वाले सात जननायक

स्वतंत्रता से पहले के गुलाम और पिछड़े भारत को आज के विकसित लोकतंत्र में रूपांतरित करने वाले नेता जो जनता की अपेक्षाओं के केंद्र में रहे और उसकी आशाओं पर खरे भी उतरे

भारत को गढ़ने वाले सात जननायक

महात्मा गांधी देश के पहले ऐसे नेता थे जिनको पूरे भारतीय समाज ने पूरी श्रद्धा के साथ स्वीकार किया.

आजादी से पहले स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्र भारत में राष्ट्र निर्माण की चुनौती को पूरा करने में वेसै तो देश के सैकड़ों नेताओं ने अपना योगदान दिया लेकिन कुछ नेता ऐसे हुए जो न होते तो शायद भारत आज ऐसा नहीं होता जेसा कि आज है. स्वतंत्रता से पहले के गुलाम और पिछड़े भारत को आज के विकसित लोकतंत्र में रूपांतरित करने वाले इन नेताओं में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, इंदिरा गांधी, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया और अटलबिहारी वाजपेयी के नाम सबसे ऊपर आते हैं. ये वे नेता हैं जो जनता की आशाओं पर खरे उतरे और जिन्होंने देश को मजबूत नेतृत्व दिया.  

सत्याग्रह के अचूक अस्त्र का प्रयोग करने वाले महात्मा
राष्ट्रीय आंदोलन में महात्मा गांधी का योगदान अतुलनीय है. उन्होंने अपने जीवन में सत्य, अहिंसा और सच्चाई के रास्ते पर चलकर एक ऐसा आंदोलन खड़ा कर दिया जिसके आगे अंग्रेजों को भागने पर मजबूर होना पड़ा. आज उन्हीं के प्रयासों से ही हम स्वतंत्र जीवन जी रहे हैं. गांधी ने अपना संपूर्ण जीवन भारत एवं भारतवासियों के लिए न्यौछावर कर दिया. स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका अत्यंत सशक्त एवं महत्वपूर्ण रही. हर विचारधारा व हर वर्ग की आलोचना मिलने के बावजूद उन्होंने जन नायक बनकर राष्ट्रीय आंदोलन को जन-जन तक पहुंचाया और महात्मा बनकर उभरे. गांधी जब 37 वर्ष के थे तब 1906 में टांसवाल सरकार ने दक्षिण अफ्रीका की भारतीय जनता के पंजीकरण के लिए एक अपमानजनक अध्यादेश जारी किया. इसके विरोध में गांधी के नेतृत्व में भारतीयों ने सितंबर 1906 में जोहेन्सबर्ग में एक जनसभा की जिसमें सरकारी अध्यादेश के उल्लंघन तथा इसके परिणामस्वरूप दंड भुगतने की शपथ ली. यही वह घटना थी जिसमें गांधी के सत्याग्रह के विचार का सूत्रपात हुआ और उनके जन-जन का नायक बनने का सफर शुरू हुआ. सत्याग्रह विद्वेषहीन प्रतिरोध करने और बिना हिंसा के लड़ने का ऐसा तरीका था जिससे ही आखिरकार भारत को स्वतंत्रता हासिल हो सकी.

सन 1914 में गांधी की भारत वापसी हुई. उन्होंने वर्ष 1917-1918 के दौरान बिहार के चम्‍पारण के खेतों में पहली बार भारत में सत्याग्रह का प्रयोग किया. सन 1919 में रॉलेक्ट एक्ट के विरोध से लेकर भारत छोड़ो आंदोलन तक गांधी भारत के ऐसे संत और नेता बन चुके थे जिसके पीछे समूचा देश चल रहा था. ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के सर्वोच्च नेता बने मोहनदास करमचंद गांधी को 'महात्मा' और 'राष्ट्रपिता' माना जाता है. यह उनके अहिंसावादी विचार को सामाजिक स्वीकृति का ही प्रतिफल है कि उनके पीछे सारा देश एकजुट हुआ वे स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे बड़े नायक कहलाए. उनके अहिंसक विरोध के सिद्धांत को लेकर उन्हें पूरी दुनिया में ख्याति प्राप्त हुई.

आधुनिक भारत के रचियता पंडित जवाहरलाल नेहरू
जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ही नहीं आजादी के पूर्व और पश्चात की देश की राजनीति में भी केंद्रीय व्यक्तित्व रहे. महात्मा गांधी के प्रिय पात्र रहे नेहरू स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जन नेता के रूप में उभरे. सन 1947 में भारत के स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में आने के बाद से सन 1964 में अपने निधन तक वे देश के प्रधानमंत्री रहे. नेहरू आधुनिक भारत के रचियता माने जाते हैं. उन्होंने देश को एक सम्प्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप आकार दिया. नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस का संसद और विधानसभाओं में लगातार प्रभुत्व बना रहा. उनके नेतृत्व में कांग्रेस 1951, 1957, और 1962 के चुनाव जीती और देश की समूची जनता को स्वीकार्य पार्टी के रूप में उभरी.

 
jawaharlal nehru afp archive

नेहरू लंदन और कैम्ब्रिज में शिक्षा लेने के बाद 1912 में भारत लौटे थे. सन 1917 में वे होम रूल लीग‎ में शामिल हो गए. सन 1919 में रॉलेक्ट एक्ट के विरोध में गांधी ने आंदोलन शुरू किया और नेहरू भी इसका हिस्सा बन गए. यहीं से उनकी राजनीति की असली दीक्षा हुई. उन्होंने महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन और फिर 1920 से 1922 तक चले असहयोग आंदोलन में सक्रिय हिस्सा लिया. इसी दौरान वे पहली बार गिरफ्तार किए गए. वे निर्वाचित जनप्रतिनिधि के रूप में वे सबसे पहले 1924 में चुने गए. उन्हें इलाहाबाद नगर निगम का अध्यक्ष चुना गया था. हालांकि1926 में उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों से सहयोग की कमी का हवाला देकर इस्तीफा दे दिया था. दिसम्बर 1929 में उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया. उन्होंने 26 जनवरी 1930 को लाहौर में स्वतंत्र भारत का झंडा फहरा दिया था. वे 1936 और 1937 में भी कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए. वर्ष 1947 में भारत और पाकिस्तान की आजादी के समय उन्होंने अंग्रेज सरकार के साथ हुई वार्ताओं में महत्वपूर्ण भागीदारी की.

यह भी पढ़ें : आज़ादी के 70 साल: अनाज हो या फिर दूध उत्पादन, कृषि क्षेत्र में भारत का लोहा मानती है पूरी दुनिया सन 1947 में अंग्रेजों ने करीब 500 देशी रियासतों को एक साथ स्वतंत्र किया था और उस वक्त सबसे बड़ी चुनौती थी उन सबको एक झंडे के नीचे लाना. नेहरू ने देश के पुनर्गठन के रास्ते में उभरी हर चुनौती का समझदारी के साथ सामना किया. उन्होंने योजना आयोग का गठन किया, विज्ञान और तकनीकी विकास को प्रोत्साहित किया और पंचवर्षीय योजना शुरू की.

...तो भारत पहले प्रधानमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ही होते
सरदार वल्लभभाई पटेल स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा देश के पहले गृहमंत्री थे. वे 'सरदार पटेल' के उपनाम से प्रसिद्ध हैं. वे भारत के स्वाधीनता संग्राम के दौरान 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' के दिग्गज नेताओं में से एक थे. पटेल 1947 में भारत की आजादी के बाद पहले तीन वर्ष उप प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, सूचना मंत्री और राज्यमंत्री रहे. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश की करीब पांच सौ से भी ज्यादा रियासतों का भारत में विलय एक बड़ी समस्या थी. वल्लभभाई पटेल ने कुशल कूटनीति और जरूरत पड़ने पर सैन्य हस्तक्षेप के जरिए अधिकांश रियासतों को तिरंगे के तले लाने में सफलता हासिल की. इसी उपलब्धि के कारण उन्हें 'लौह पुरुष' और 'भारत के बिस्मार्क' की उपाधि से विभूषित किया गया.  
 
sardar patel

सरदार पटेल सन 1917 में महात्मा गांधी से प्रभावित हुए और उनके जीवन की दिशा बदल गई. वे गांधीजी के सत्याग्रह के साथ तब तक जुड़े रहे, जब तक अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों का संघर्ष अंजाम तक नहीं पहुंचा. हालांकि पटेल ने कभी भी खुद को गांधी के नैतिक विश्वासों व आदर्शों से नहीं जोड़ा. पटेल का मानना था कि उन्हें सार्वभौमिक रूप से लागू करने का गांधी का आग्रह, भारत के तत्कालीन राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक परिप्रेक्ष्य में अप्रासंगिक है. सरदार पटेल ने सन 1928 में बढ़े हुए करों के विरोध में बारदोली के लोगों के संघर्ष का नेतृत्व किया. बारदोली सत्याग्रह के कुशल नेतृत्व के कारण उन्हें 'सरदार' की उपाधि मिली और इसके बाद उनकी देश भर में राष्ट्रवादी नेता के रूप में पहचान बन गई. उन्हें व्यावहारिक, निर्णायक और कठोर भी माना जाता था. 1945-46 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए सरदार पटेल प्रमुख उम्मीदवार थे, लेकिन महात्मा गांधी ने हस्तक्षेप करके जवाहरलाल नेहरू को अध्यक्ष बनवा दिया. कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में नेहरू को ब्रिटिश वाइसरॉय ने अंतरिम सरकार के गठन के लिए आमंत्रित किया. यदि घटनाक्रम सामान्य रहता तो सरदार पटेल भारत के पहले प्रधानमंत्री होते.

यह भी पढ़ें : आजादी के 70 साल : सात क्षेत्र जिनमें देश ने विकास की नई इबारत लिखी... स्वतंत्र भारत में सरदार पटेल की ख्याति भारत के रजवाड़ों को शांतिपूर्ण तरीके से भारतीय संघ में शामिल करने तथा भारत के राजनीतिक एकीकरण के कारण है. 5 जुलाई, 1947 को सरदार पटेल ने रियासतों के प्रति नीति को स्पष्ट करते हुए कहा कि "रियासतों को तीन विषयों 'सुरक्षा', 'विदेश' तथा 'संचार व्यवस्था' के आधार पर भारतीय संघ में शामिल किया जाएगा."  तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने भारतीय संघ में उन रियासतों का विलय किया, जो स्वयं में संप्रभुता प्राप्त थीं. उनका अलग झंडा और अलग शासक था. 15 अगस्त 1947 तक हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़ को छोड़कर शेष भारतीय रियासतें 'भारत संघ' में सम्मिलित हो चुकी थीं. जूनागढ़ के नवाब के विरुद्ध जब बहुत विरोध हुआ तो वह पाकिस्तान भाग गया और इस प्रकार जूनागढ़ भी भारत में मिला लिया गया. जब हैदराबाद के निजाम ने भारत में विलय का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया तो सरदार पटेल ने वहां सेना भेजकर निजाम का आत्मसमर्पण करा लिया.

फौलादी इरादों वाली जन-जन की नेत्री इंदिरा गांधी
आयरन लेडी इंदिरा गांधी दृढ़ इच्छाशक्ति की धनी ऐसी नेत्री थीं जिन्हें भारत में जन-जन का असीम समर्थन मिला. वे वर्ष 1966 से 1977 तक लगातार तीन बार भारत की प्रधानमंत्री रहीं. इसके बाद चौथी बार 1980 से 1984 में उनकी राजनैतिक हत्या तक भी वे प्रधानमंत्री रहीं. वे देश की प्रथम और अब तक की एक मात्र महिला प्रधानमंत्री रहीं.
 
indira gandhi

इदिरा गांधी 1930 के दशक के अंतिम चरण में इंग्लैंड के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के सोमरविल्ले कॉलेज में अपनी पढ़ाई के दौरान लंदन में आधारित स्वतंत्रता की कट्टर समर्थक भारतीय लीग की सदस्य बन गई थीं. इंदिरा गांधी ऑक्सफोर्ड से वर्ष 1941 में भारत वापस आने के बाद अपने पिता जवाहरलाल नेहरू के पदचिन्हों पर चलते हुए स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गईं. पचास के दशक में वे अपने पिता व देश के प्रथम प्रधानमंत्री की गैरसरकारी निजी सहायक बन गई थीं. इंदिरा जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद सन 1964 में राज्यसभा सदस्य बनीं. इसके बाद वे लालबहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में सूचना और प्रसारण मत्री बनीं.

यह भी पढ़ें : आजादी के 70 साल : वे सात कंपनियां जिन्होंने सफलता के परचम फहराए... लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष के कामराज ने इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की राह प्रशस्त की. इंदिरा ने शीघ्र ही चुनाव जीता और जनप्रिय हो गईं. सन 1971 में भारत को पाक से युद्ध में जीत मिली जिससे इंदिरा गांधी की लोकप्रियता और बढ़ी. इसके बाद राजनीतिक उठापटक का दौर शुरू हो गया जिससे इंदिरा ने सन 1975 में आपातकाल लागू कर दिया. इसके असर के रूप में कांग्रेस को 1977 के आम चुनाव में पहली बार हार का सामना करना पड़ा. इंदिरा गांधी सन 1980 में सत्ता में लौटीं लेकिन तब पंजाब में आतंकवाद चरम पर पहुंच गया था. इसे नियंत्रित करने के लिए उन्होंने ऑपरेशन ब्लू स्टार चलाया. इसी के बाद सन 1984 में उनके अपने ही अंगरक्षकों से उनकी राजनैतिक हत्या करा दी गई.

संपूर्ण क्रांति की अलख जगाने वाला जयप्रकाश नारायण
जयप्रकाश नारायण 'जेपी' और 'लोकनायक' के नाम से भी मशहूर थे. जयप्रकाश नारायण स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक और राजनेता थे. सत्तर के दशक में उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के विरुद्ध विपक्ष का नेतृत्व किया. उन्होंने विद्यार्थियों को साथ लेकर ऐसा आंदोलन खड़ा किया कि आखिरकार 1977 में एकजुट विपक्ष के सामने इंदिरा गांधी को करारी पराजय का सामना करना पड़ा. जेपी की सम्पूर्ण क्रांति की तपिश इतनी गहरी थी कि केंद्र में कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ा. जयप्रकाश नारायण की हुंकार पर नौजवानों का जत्था सड़कों पर निकल पड़ता था. बिहार से उठी सम्पूर्ण क्रांति की चिंगारी देश के कोने-कोने में आग बनकर भड़की.
 
jaiprakash narayan

सन 1922 में जेपी पढ़ाई के लिए अमेरिका चले गए. वहां उन्हें श्रमिक वर्ग की परेशानियों का ज्ञान हुआ और वे मार्क्स के समाजवाद से प्रभावित हुए. वे 1929 में जब अमेरिका से लौटे तब स्वतंत्रता संग्राम तेजी पर था. यहां उनका संपर्क जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी से हुआ और फिर वे भी स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बन गए. वर्ष 1932 में सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान उन्हें गिरफ्तार करके नासिक जेल भेज दिया गया. नासिक जेल में उनकी मुलाकात अच्युत पटवर्धन, एमआर मासानी, अशोक मेहता, एमएच दांतवाला और सीके नारायणस्वामी जैसे नेताओं से हुई. इन नेताओं ने विचार करके कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की नींव रखी. जेपी ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आंदोलन चलाया ताकि सरकार को मिलने वाला राजस्व रोका जा सके.

यह भी पढ़ें : आजादी के 70 साल : कितनी बदलीं जनता की सवारियां स्वतंत्रता के बाद घोटालों और षड्यंत्रों से देश और समाज का बहुत नुकसान हुआ. देश में महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी व्याप्त थी. जेपी ने तब युवाओं के माध्यम से जनता को एकजुट किया. उन्होंने कहा कि यह सारी समस्याएं तभी दूर हो सकती हैं जब सम्पूर्ण व्यवस्था बदल दी जाए और सम्पूर्ण व्यवस्था में परिवर्तन के लिए 'सम्पूर्ण क्रान्ति’ आवश्यक है. सम्पूर्ण क्रांति जयप्रकाश नारायण का विचार व नारा था जिसका आह्वान उन्होंने इंदिरा गांधी की सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए किया था. उनके इस अहिंसावादी आंदोलन को भारी जन समर्थन मिला और बिहार से शुरू हुआ यह आंदोलन जल्द ही पूरे भारत में फैल गया.

जयप्रकाश नारायण एक जमाने में कांग्रेस के सहयोगी थे लेकिन आजादी के लगभग दो दशक बाद इंदिरा गांधी सरकार के भ्रष्ट व अलोकतांत्रिक तरीकों ने उन्हें कांग्रेस और इंदिरा के विरोध में खड़ा कर दिया. इसी दौरान कोर्ट में सन 1975 में इंदिरा गांधी पर चुनावों में भ्रष्टाचार का आरोप साबित हो गया और इस पर जेपी ने विपक्ष को एकजुट कर उनसे इस्तीफे की मांग की. जेपी ने 15 जून 1975 को पटना के गांधी मैदान में छात्रों के विशाल समूह के समक्ष 'सम्पूर्ण क्रान्ति' का उद्घोष किया. इन हालात में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू कर दिया. जेपी सहित विपक्ष के हजारों नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया. जनवरी 1977 में आपातकाल हटा और मार्च 1977 में चुनाव हुए. जेपी के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के चलते भारत में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी.

विरोधियों से भी सम्मान पाने वाले डॉ राममनोहर लोहिया
डॉ राम मनोहर लोहिया स्वतंत्रता सेनानी और प्रखर समाजवादी नेता व विचारक थे. वे एक ऐसे नेता थे जिन्होंने अपने दम पर राजनीति का रुख बदला. वे प्रखर राष्ट्रभक्त थे. उन्हें अपने समर्थकों के साथ-साथ विरोधियों से भी बहुत सम्‍मान मिला.

लोहिया को उनके बचपन के दिनों में उनके पिता महात्मा गांधी से मिलाने के लिए ले गए. यहीं से राम मनोहर लोहिया पर गांधी के व्यक्तित्व की अमिट छाप पड़ी. इसके बाद वे जीवनपर्यन्त गांधी के आदर्शों का समर्थन करते रहे. वे वर्ष 1921 में जवाहर लाल नेहरू से पहली बार मिले और कुछ सालों तक उनके साथ कार्य करते रहे. बाद में उन दोनों के बीच विभिन्न मुद्दों और राजनीतिक सिद्धांतों को लेकर टकराव हो गया. वे 1928 में जब 18 साल के थे तब उन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा गठित ‘साइमन कमीशन’ का विरोध करने के लिए प्रदर्शन किया. उन्होंने अक्टूबर 1934 में मुंबई में 150 समाजवादियों को इकट्ठा करके कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की.

यह भी पढ़ें :   सात भयावह त्रासदियां, जिनसे दहल उठा था देश... लोहिया भारत में सरकारी भाषा के रूप में अंग्रेजी की जगह हिंदी के उपयोग के हिमायती थे. वे कहते थे कि हिन्दी के उपयोग से एकता की भावना और नए राष्ट्र के निर्माण के विचारों को बढ़ावा मिलेगा. वे जात-पात के घोर विरोधी थे. उन्होंने अपनी ‘यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी’ में उच्च पदों के लिए हुए चुनाव के टिकट निम्न जाति के उम्मीदवारों को दिए और उन्हें प्रोत्साहन भी दिया.

देश के स्वतंत्र होने के बाद भी वे राष्ट्र के पुनर्निर्माण में अपना योगदान देते रहे. उन्होंने ‘तीन आना, पन्द्रह आना’ के माध्यम से तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर होने वाले खर्च की राशि 'एक दिन में 25000 रुपए' के खिलाफ आवाज उठाई, जो आज भी चर्चित है. उस समय भारत की अधिकांश जनता की एक दिन की आमदनी मात्र तीन आना थी जबकि भारत के योजना आयोग के आंकड़ों के अनुसार प्रति व्यक्ति औसत आय 15 आना थी. लोहिया ने उन मुद्दों को उठाया जो लंबे समय से राष्ट्र की सफलता में बाधा उत्पन्न कर रहे थे. मार्च 1948 में नासिक सम्मेलन में सोशलिस्ट दल ने कांग्रेस से अलग होने का निश्चय किया. सन 1949 में पटना में सोशलिस्ट पार्टी का दूसरा राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ. इसी सम्मेलन में लोहिया ने 'चौखंभा राज्य' की कल्पना प्रस्तुत की. पटना में 'हिन्द किसान पंचायत' की स्थापना भी हुई जिसका अध्यक्ष लोहिया को चुना गया.  नवंबर 1949 में लखनऊ में एक लाख किसानों ने प्रदर्शन किया. फरवरी 1950 में रीवा में 'हिन्द किसान पंचायत' का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ. दिल्ली में 3 जून 1951 को जनवाणी दिवस पर प्रदर्शन किया गया. तब 'रोजी-रोटी कपड़ा दो नहीं तो गद्दी छोड़ दो', प्रदर्शनकारियों का मुख्य नारा था.

यह भी पढ़ें : जब हिंदी साहित्य में छलका भारत-पाकिस्तान विभाजन का दर्द देश में गैर-कांग्रेसवाद की अलख जगाने वाले महान स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया चाहते थे कि दुनियाभर के सोशलिस्ट एकजुट होकर मजबूत मंच बनाएं. लोहिया भारतीय राजनीति में गैर कांग्रेसवाद के शिल्पी थे और उनके अथक प्रयासों का फल था कि 1967 में कई राज्यों में कांग्रेस की पराजय हुई. हालांकि लोहिया का 1967 में निधन हो गया लेकिन उन्होंने गैर कांग्रेसवाद की जो विचारधारा चलाई उसी की वजह से आगे चलकर 1977 में पहली बार केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकारी बनी.

साफ छवि और उदार विचारधारा के नेता अटलबिहारी वाजपेयी    
अटल बिहारी वाजपेयी भारत के पूर्व प्रधानमंत्री हैं. वह करीब 50 वर्षों तक भारतीय संसद के सदस्य रहे हैं. जवाहरलाल नेहरू के बाद अटल बिहारी बाजपेयी ही एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिन्होंने लगातार तीन बार प्रधानमंत्री का पद संभाला. वह देश के सबसे सम्माननीय और प्रेरक राजनीतिज्ञों में से एक रहे. राजनीति के अलावा वाजपेयी को एक कवि और प्रभावशाली वक्ता के रूप में भी जाना जाता है. एक नेता के रूप में वे जनता के बीच अपनी साफ छवि, लोकतांत्रिक और उदार विचारों वाले व्यक्ति के रूप में जाने गए.
 
atal bihari vajpayee

अटलबिहारी वाजपेयी की राजनैतिक यात्रा की शुरुआत स्वतंत्रता सेनानी के रूप में हुई थी. सन 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में भाग लेने पर उन्हें गिरफ्तार किया गया था. इसी दौरान उनकी मुलाकात श्यामा प्रसाद मुखर्जी से हुई, जो कि भारतीय जनसंघ के नेता थे. वाजपेयी जनसंघ में मुखर्जी के सहयोगी बन गए. स्वास्थ्य समस्याओं के चलते मुखर्जी की मृत्यु हो गई और फिर भारतीय जनसंघ यानि कि बीजेएस की कमान वाजपेयी ने संभाल ली. वे सन 1954 में बलरामपुर सीट से सांसद चुने गए. वाजपेयी के विस्तृत नजरिए और ज्ञान ने उन्हें राजनीतिक जगत में सम्मान और स्थान दिलाया. वर्ष 1977 में जब मोरारजी देसाई की सरकार बनी, वाजपेयी को विदेश मंत्री बनाया गया. सन 1979 में जब जनता पार्टी ने आरएसएस पर हमला किया तो उन्होंने मंत्री त्याग दिया. सन 1980 में वाजपेयी ने आरएसएस से आए लालकृष्ण आडवाणी और भैरो सिंह शेखावत के साथ भारतीय जनता पार्टी की नींव रखी. बीजेपी की स्थापना के बाद पहले पांच साल वाजपेयी इसके अध्यक्ष रहे.

यह भी पढ़ें : 70 साल की 70 उपलब्धियों ने देश का तिरंगा किया बुलंद सन 1996 के लोकसभा चुनाव के बाद बीजेपी सत्ता में आई और अटलबिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री चुने गए. हालांकि बहुमत सिद्ध न कर पाने के कारण सरकार गिर गई. वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद से मात्र 13 दिनों के बाद ही इस्तीफा देना पड़ा. सन 1998 के चुनाव में बीजेपी एक बार फिर विभिन्न पार्टियों के साथ गठबंधन 'नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस' के साथ सरकार बनाने में सफल रही. हालांकि इस बार भी पार्टी सिर्फ 13 महीनों तक ही सत्ता में रह सकी, क्योंकि ऑल इंडिया द्रविड़ मुन्नेत्र काड़गम ने अपना समर्थन वापस ले लिया. वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने मई 1998 में राजस्थान के पोखरण में परमाणु परीक्षण कराए. वर्ष 1999 के लोकसभा चुनावों के बाद एनडीए को सरकार बनाने में सफलता मिली और अटलबिहारी वाजपेयी एक बार फिर प्रधानमंत्री बने. इस बार सरकार ने अपने पांच साल पूरे किए और ऐसा करने वाली पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी.

यह भी पढ़ें : आजादी के 70 साल : इन 7 राजनेताओं की हत्याओं से सहमा देश अपने पांच साल पूरे करने के बाद एनडीए पूरे आत्मविश्वास के साथ अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 2005 के चुनाव में उतरा पर इस बार कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए गठबंधन ने सफलता हासिल कर ली. दिसंबर 2005 में अटलबिहारी वाजपेयी ने सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा कर दी. अटलबिहारी से निर्विवाद नेता रहे हैं जिनकी उनके विरोधी भी तारीफ करने में परहेज नहीं करते थे.

Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com