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This Article is From Feb 28, 2017

वह हैं 'कप्तान' नरेंद्र मोदी : यूपी चुनाव का नतीजा कुछ भी हो, लोकप्रिय तो पीएम ही रहेंगे...

वह हैं 'कप्तान' नरेंद्र मोदी : यूपी चुनाव का नतीजा कुछ भी हो, लोकप्रिय तो पीएम ही रहेंगे...
नोटबंदी की आलोचना के बावजूद पीएम मोदी को समर्थन मिलता दिख रहा है
लखनऊ: संसद में अपने इलाके का प्रतिनिधित्व करने वाली अभिनेत्री से नेता बनीं हेमा मालिनी के बारे में चिलचिलाती धूप में चारपाई पर लेटे गांव के नाई गोपाल दादा कहते हैं, "मैंने हेमा मालिनी को नहीं, बीजेपी और (नरेंद्र) मोदी को वोट दिया था..." इसके बाद उन्होंने चारपाई से उठने की कोशिश करते हुए कहा, "लेकिन इस बार बीजेपी नहीं... जाट, बहुत गुस्से में हैं..."
 
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गोपाल दादा पीएम मोदी के समर्थक हैं लेकिन डरते हैं कि पीएम जाट वोट खो न दें

यमुना एक्सप्रेसवे के बेहद करीब बसे पाणिग्राम में एक युवक ने बताया कि यमुना नदी इतना करीब से बहती है कि गांव में जल्दी-जल्दी बाढ़ आती रहती है, इसीलिए इसका नाम पाणिग्राम पड़ा... पावन नगरी वृंदावन यहां से सिर्फ चार किलोमीटर की दूरी पर है, लेकिन यहां के कई निवासियों का कहना है कि यहां की खासियत यह है कि यहां 'पूरी सात बिरादरी रहती हैं...'

बहरहाल, यहां जाटों का बाहुल्य है, जिनमें से ज़्यादातर किसानी करते हैं... और उनमें से कई का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अचानक की गई नोटबंदी पूरी तरह अभिशाप साबित हुई... दोपहर में इकट्ठा हो गए लोगों में से एक ने सवाल किया, "आप बताइए, बैंकों के बाहर लाइनों में किसने इंतज़ार किया... क्या उससे (नोटबंदी से) मोटे पेट वाले सेठों को कोई फर्क पड़ा...? 2014 में मोदी लहर थी... हमने भी सोचा था, उन्हें एक मौका देंगे... लेकिन अब देखिए... क्या नौकरियां पैदा हुईं...? हमारे लड़के यहीं बैठे हैं, निराश... किसानों के पास कुछ नहीं बचा है..."

वैसे पाणिग्राम बिल्कुल साधारण गांव भी नहीं है... यहां सुंदर और फैन्सी घर बने हुए हैं, जिनकी छतों पर डिश एन्टीना लगे हैं, और गलियां भी अभिजात लगती हैं... आपके फोन में वाई-फाई नेटवर्क आते ही रहते हैं...
 
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यूपी चुनाव से पहले पानिग्राम में पीएम मोदी के कामों की चर्चा करते जाट

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बहुत-से हिस्सों की तरह वर्ष 2014 में पाणिग्राम में भी जाटों ने अजित सिंह व उनकी पार्टी राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) के प्रति अपनी परंपरागत वफादारी को छोड़कर नरेंद्र मोदी को वोट दिया था, जो उस समय प्रधानमंत्री पद की दौड़ में थे... ज़मीन पर बैठे लोगों ने कहा कि अब वह प्रयोग खत्म हो चुका है... और नोटबंदी वह मुद्दा था, जिसकी वजह से यह फैसला बदला... पड़ोस में ही आलू के फार्म पर काम करने वाले उदयवीर ने कहा, "किसानों ने अपने आलू कोल्ड स्टोरेज से बाहर निकालकर फेंक दिए, और वहीं छोड़ दिया... हम लोग फीस किस तरह दे सकते थे...?"

इस भीड़ से कुछ अलग हटने पर कुछ जाट आज भी मानते हैं कि उनकी पसंद अब भी बीजेपी ही है... एक किशोर, जिसे उसके दोस्त 'तूफान' कहते हैं (क्योंकि वही इतना बहादुर है कि मन की बात कह सके), ने बताया, "अगर आप उस तरफ जाएंगे, आपको वे जाट मिलेंगे, जो बीजेपी के समर्थक हैं... दूसरी गली में वे जाट हैं, जो आरएलडी का समर्थन करते हैं..." इस बंटवारे को कबूल करते हुए एक किसान ने कहा कि पाणिग्राम में यह चुनाव बीजेपी और आरएलडी के बीच ही है... मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के बारे में कहा गया, "यहां पर तो उनका खाता ही नहीं खुला है..." दरअसल, इस इलाके में सत्तासीन समाजवादी पार्टी मजबूत नहीं रही है...

अब पाणिग्राम से कानपुर की ओर बढ़ने पर शानदार दिखने वाला पर्याप्त चौड़ा आगरा-लखनऊ एक्सप्रेसवे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के प्रभावशाली विज्ञापन का काम करता है... अपने प्रचार अभियान में भी वह अक्सर उन सड़कों का ज़िक्र करते हैं, जो उनका कार्यकाल में बनीं... लेकिन कई घंटे तक सड़क पर कोई और कार नज़र नहीं आई... या यूं कहिए, कोई भी नज़र नहीं आया...

लगभग पांच घंटे बाद इटावा से पहले तिरवा विधानसभा क्षेत्र पड़ता है... अंधेरा हो चुका है, और कम अच्छी सड़कों के किनारे कुछ छोटी-छोटी दुकानें दिखाई देती हैं, जिनमें से प्रत्येक के बाहर एक-एक बल्ब जल रहा है... एक दुकान पर शादी में बैंड बजाने वाले इकट्ठा हैं... उसके सदस्यों का कहना था कि नोटबंदी से उनके धंधे पर कोई खास असर नहीं पड़ा है, और झटका अस्थायी था, क्योंकि शादी-ब्याह में बाजा-गाजा तो होगा ही... बैंड के ड्रमर ने बताया कि दूल्हे आजकल सलमान खान की सुपरहिट फिल्म 'सुल्तान' के गीत 'बेबी को बेस पसंद है' की अक्सर फरमाइश करते हैं, सो, जनता के मूड को पकड़ते हुए टीम अखिलेश यादव ने भी एक कॉलर ट्यून बना डाली है - 'बेबी को बेस पसंद है, यूपी को अखिलेश पसंद है...'

पिछले तीन विधानसभा चुनाव में यहां हमेशा वही जीता है, जिसकी पार्टी की सरकार बनी... NDTV के कैमरों की ओर देखते हुए कुछ लोगों ने कहा कि इस बार यहां की पसंद बीजेपी है... खुद को बीजेपी का समर्थक बताने वाले एक शख्स ने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की आलोचना करते हुए कहा, "क्या हुआ, अगर अखिलेश ने सड़कें बनवाईं...? मैं उसके लिए पैसे देता हूं... मेरे टैक्स से इन सब कामों के लिए पैसा आता है... क्या इसके लिए मैं उनका शुक्रगुज़ार हो जाऊं...?"

एक अन्य शख्स का कहना है था कि इस बात से कतई फर्क नहीं पड़ता कि बीजेपी ने मुख्यमंत्री पद के लिए किसी का नाम घोषित नहीं किया है... कहा जा रहा था कि बीजेपी ने मुख्यमंत्री का नाम घोषित नहीं कर वही गलती दोहराई है, जो वह बिहार में कर चुकी है, और पार्टी का वोटों के लिए प्रधानमंत्री पर निर्भर होना दिखाता है कि यहां वैकल्पिक नेतृत्व का अभाव है... यह शख्स कहता है, "हम कतई चिंतित नहीं हैं, और मुख्यमंत्री बाद में भी चुन सकते हैं... क्या हुआ, अगर नेतृत्व करने के लिए (नरेंद्र) मोदी यहां नहीं होंगे...? वह किसी विश्वसनीय व्यक्ति को चुन लेंगे... यह बिल्कुल विराट कोहली जैसा ही है - उनके साथ 10 अन्य खिलाड़ी भी होते हैं, लेकिन कप्तान वही हैं... सो, (नरेंद्र) मोदी कप्तान हैं... उन्हें मैच जीतना है..."

क्रिकेट के खेल से राजनीतिक जंग की यह तुलना बीजेपी के मध्यम दर्जे के कार्यकर्ता की ओर से आई थी, जो इलाके में जाना-पहचाना शख्स है, और भीड़ जमा होने पर जल्द ही बेहद आसानी से प्रवक्ता की भूमिका अख्तियार कर सकता है... अन्य पार्टियों का कहना है कि जिन इलाकों में बीजेपी लड़ाई में है ही नहीं, वहां भी उसके 'बोलने वाले' कार्यकर्ता ऐसा इम्प्रेशन बनाने में माहिर हैं, जैसे वही सबसे प्रमुख पार्टी है...

यह भी सच है कि कुछ इलाकों में दलित जब अन्य लोगों से घिरे होते हैं, कहते हैं कि उनकी पसंद 'फूल' (बीजेपी का चुनाव चिह्न कमल) है, लेकिन जब उन्हें अलग ले जाकर कुछ और सवाल किए जाएं, तो कुछ का दावा है कि वे अब तक 'हाथी' (मायावती की पार्टी बहुजन समाज पार्टी का चुनाव चिह्न) से दूर नहीं हुए हैं... उनके लिए यह तय करना मुश्किल है कि उनसे इन दोनों में कौन-से जवाब की उम्मीद की जा रही है... याकूबगंज गांव में विकास के कोई चिह्न दिखाई नहीं देते... वहां सिर्फ एक दुकान दिखाई देती है, जो दरअसल, लकड़ी का एक काउंटर है, और उस पर कुछ टॉफियों के डिब्बे और गुटके नज़र आते हैं... इस दुकान के मालिक रावत (गैर-जाटव अनुसूचित जाति) दंपति हैं, और कहते हैं, "हम हरिजन हैं... पिछली बार हमने हाथी को वोट दिया था, लेकिन इस बार हमारे लिए ज़रूरी है कि हम फूल को समर्थन दें..." वे इसकी वजह भी बताते हैं, "आप बाकियों को देखिए... सभी मुस्लिमों के पीछे भाग रहे हैं... हमारे बारे में कौन सोचेगा...? यह धर्म का सवाल है... क्या हिन्दुओं को एकजुट नहीं होना चाहिए...? बिल्कुल होना चाहिए..."

बस, यही इस चुनाव का सार है... अखिलेश यादव और कांग्रेस गठबंधन में हैं और उनका सारा ध्यान मुस्लिमों और यादवों की तरफ है, बड़ी संख्या में... सो, हिन्दुओं को भी लगता है कि उन्हें इस बार जाति के आधार पर नहीं, धर्म के आधार पर वोट करना चाहिए... ऐसी मान्यता चारों ओर फैली हुई है कि अखिलेश यादव ने मुस्लिमों को फायदा पहुंचाने महत्वपूर्ण नीतियों को इस्तेमाल किया, और उन्होंने ऐसा हिन्दुओं की कीमत पर किया... इसके अलावा पुलिस थानों को यादवों के भर्ती केंद्र में तब्दील कर देने को लेकर भी लोगों में असंतोष है...

गांव में बसे चार मुस्लिम परिवारों में से एक की सदस्य एक महिला ने कहा, "मुझे सिर्फ फूल, फूल सुनाई दे रहा है... वे सब उन्हीं को वोट देने वाले हैं... मैं उन्हें वोट नहीं दे सकती... क्या दे सकती हूं...?" इस महिला ने 'साइकिल' (अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी का चुनाव चिह्न) को वोट दिया है... 'हाथ' (कांग्रेस का चुनाव चिह्न) को नहीं दिया, पूछने पर वह कहती हैं, "पंजा हमें क्या दे सकता है...? साइकिल हमारे (मुस्लिमों के) लिए है..."
 
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पिछले हफ्ते फतेहपुर में पीएम मोदी की रैली में जुटी भीड़

इस तरह की ज़्यादातर चर्चाओं में कांग्रेस नदारद है... वह ज़ैदपुर जैसे गांवों में मुस्लिमों की पसंद है, या रायबरेली के कुछ इलाकों में उसका ज़िक्र होता है, लेकिन बस... युवावर्ग अक्सर कहता है, अखिलेश यादव अच्छा काम करते दिखते हैं, लेकिन यह पूछे जाने पर कि उनके माता-पिता किन्हें समर्थन दे रहे हैं, स्कूली लड़कियों का एक समूह कहता है, "मोदी, मोदी..." लेकिन राहुल गांधी का नाम कोई नहीं ले रहा है... न युवक, न महिलाएं, न बुज़ुर्ग... फतेहपुर में पीएम नरेंद्र मोदी की रैली में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा कि उनकी रैलियों में भारी भीड़ पहुंच रही है (आलोचकों का कहना है कि बिहार में भीड़ वोटों में तब्दील नहीं हुई थी)... पुलिस अधिकारी के मुताबिक राहुल गांधी कुछ कर नहीं पा रहे हैं... उनका कहना था, "लगता है, उनके पास कोई योजना नहीं है... क्या उन्होंने किसी के लिए भी चुनाव बाद की कोई योजना पेश की है...?" अखिलेश और राहुल को सुनने के लिए इलाहाबाद में भारी भीड़ जुटी, इस पर एक शख्स ने कहा, "क्या आपको ऐसी ही भीड़ दिखी थी, जब राहुल गांधी किसान यात्रा कर रहे थे...? अगर अब लोग उन्हें देखने आ रहे हैं, तो उसकी वजह है कि वह अखिलेश यादव के साथ हैं..."
 
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एक चुनावी रैली को संबोधित करते अखिलेश यादव

अखिलेश यादव और राहुल गांधी के साथ आने की वजह यह मान्यता रही कि एक साथ आ जाने से मुस्लिम वोटों का बंटवारा नहीं होगा... इस विचार का सबूत भी आसानी से मिल जाता है... याकूबगंज में एक मुस्लिम ने कहा, "अगर हमें लगता है कि मोदी अच्छा काम कर रहे हैं और मैं उन्हें वोट देता भी हूं, तो यहां के बाकी लोग यकीन ही नहीं करेंगे कि मैंने उन्हें वोट दिया... सो, मैं क्यों उन्हें वोट दूं...? मेरे वोट को कतई नज़रअंदाज़ कर दिया जाएगा..." उसने बताया, "मैंने अपने परिवार के 150 लोगों से साइकिल को वोट दिलवाया..." वैसे इस शख्स ने अपने विचार एक हिन्दू के साथ बैठकर व्यक्त किए, और कहा, "यहां, हम सब मिलजुलकर रहते हैं... आप उसे वोट दें, जिसे आप चाहते हैं, मैं उसे वोट दूंगा, दिसे मैं चाहता हूं... कोई टेंशन नहीं..."

यहां शांति भी क्षणभंगुर है, जैसा हाल ही में मुज़फ़्फ़रनगर में देखने को मिला था... ढेरों जातियां होने की वजजह से खतरा तो रहता ही है... लेकिन अर चुनाव भी हिन्दू और मुस्लिम के बीच चुनाव की तरफ बढ़ा, तो सुरक्षा कम लगने लगती है... अंदर ही अंदर बहने वाली लहर को पूरी तरह नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता... माहौल इस तरह का है कि सिर्फ एक भड़काऊ, उकसाऊ भाषण या वीडियो से ही एक घड़ी में ही वोटों का पूरी तरह ध्रुवीकरण हो सकता है...

जिस वक्त कैमरे गांव के बड़े-बूढ़ों से बातचीत को कवर कर रहे थे, नाले के उस पार से साइकिल के साथ खड़ी एक लड़की देख रही थी... उसने बताया कि साइकिल के साथ उसे कॉलेज फीस के नाम पर 10,000 रुपये भी मिले थे, जो अखिलेश यादव की शिक्षा को प्रोत्साहन देने की योजना के तहत दिए गए थे... वह अभी वोट नहीं दे सकती, लेकिन जब दे पाएगी, "वह हाथी होगा, सिर्फ हाथी... उन्होंने (अखिलेश ने) भले ही मुझे साइकिल दी हो, लेकिन वह बहनजी (मायावती) थीं, जिन्होंने हमें सम्मान दिया, जिन्होंने सुनिश्चित किया कि हमें नज़रअंदाज़ नहीं किया जाएगा... वरना, दलित को मिलता ही क्या है...? कुछ भी नहीं..."

इस लड़की की मां बताती है कि गली में एक घर ऐसा भी है, जिसमें एलपीजी का सिलेंडर है... उसने कहा, "वह (नरेंद्र) मोदी ने भिजवाया था... हमें नहीं मिला... हो सकता है, कुछ और भी भेजे जाएं..." बहरहाल, महिलाओं में निश्चित रूप से गरीबों को मुफ्त गैस सिलेंडर देने की योजना सबसे बढ़िया मानी जा रही है... किसी ने भी जन-धन योजना या ज़ीरो-बैलेंस बैंक खातों के बारे में बात नहीं की... लगभग सभी ने एलपीजी या खाना पकाने वाली गैस के बारे में ही बात की...

जिनके पास फिलहाल सिलेंडर नहीं है, उन्हें पूरी उम्मीद है कि उनकी बारी भी ज़रूर आएगी... यह उस विश्वास का एक और सबूत है, जो लोगों के मन में पीएम के प्रति मौजूद है - उनके फैसले प्रभावी होते हैं, और उनकी नीतियां हमेशा सही इरादों से बनाई जाती हैं, भले ही उनके क्रियान्वयन में कुछ गड़बड़ियां हो जाएं, या नतीजे कुछ देर से हासिल हों... विपक्षी भी मानते हैं कि ऐसे समय में, जब अधिकतर राजनेता 'विश्वसनीयता के संकट' से जूझ रहे हैं, अपना आधा कार्यकाल बिता चुके प्रधानमंत्री नोटबंदी के बावजूद वर्ष 2014 में स्थापित की गई विश्वसनीयता बरकरार रखे हुए हैं... यहां तक कि जो उन्हें वोट नहीं देते, वे भी विरले ही उनके नेतृत्व के तरीके पर अंगुली उठाते हैं...

युवा मुख्यमंत्री के सहयोगी मानते हैं कि उनके प्रचार का शुरुआती हिस्सा विकास के मुद्दे पर आधारित था, जाति पर नहीं, जिससे प्रधानमंत्री को फायदा मिला, क्योंकि आर्थिक उपलब्धियों के बखान के मामले में वह कहीं आगे हैं... दवाइयां सस्ती करेंगे, किया... यूरिया की कालाबाज़ारी पर हमला बोलेंगे, किया... किसानों के कर्ज़ माफ करेंगे, अगर बीजेपी सरकार बनी तो यूपी कैबिनेट की पहली बैठक के एजेंडे में शामिल होगा यह मुद्दा... अखिलेश यादव ने जवाब में कहा कि राज्य में जीतना ज़रूरी नहीं है, क्योंकि केंद्र सरकार जब चाहे, कर्ज माफ कर सकती है...

भले ही उत्तर प्रदेश में बीजेपी जीते या नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रिपोर्ट कार्ड साफ पढ़ा जा सकता है... यह सच्चाई कि उन्हें पार्टी से ऊपर, और अलग करके देखा जाता है, हारने की सूरत में ज़िम्मेदारी से उन्हें दूर भी रखेगा... साथ ही निजी ब्रांड के रूप में उनकी छवि का संदेश यही है - वही, सिर्फ वही जनता का भला कर सकते हैं...

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