यह ख़बर 01 मई, 2012 को प्रकाशित हुई थी

वॉर ज़ोन की कहानियां : माओवादियों से डरें, या पुलिस से...?

खास बातें

  • वैसे पुलिस भले ही 'तांडव' करती हो, लोग सरकार के साथ होने की बात करते हैं। साफ है कि मेनन की मेहनत रंग लाई है, लेकिन क्या नेता अब उसे आगे बढ़ाएंगे...?

सुकमा के कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन की नक्सलियों द्वारा की गई पकड़ और उनकी रिहाई की बातें अभी ठंडी भी नहीं हुईं, लेकिन इस बीच, दक्षिण बस्तर से भी कुछ अच्छी खबरें आईं... जैसे - छत्तीसगढ़ पुलिस के साथ दोरनापाल कैम्प में काम कर रहे 24 साल के करती गंगा को पता चला है कि उसके पिता और भाई को माओवादियों ने करीब 15 दिन तक कैद में रखने के बाद छोड़ दिया है। करती गंगा के अलावा पास के गांव में रह रहे 31 साल के सरियम बोज्जा जैसे लोगों के लिए भी यह खुशखबरी है, जिनके परिवार वालों को पुलिस के मुखबिर और सहायक होने के शक में माओवादियों ने उठाया और अपनी कैद में रखा।

अभी तक माओवादियों की ओर से रिहा गए ये लोग अपने घर तो नहीं पहुंचे हैं, लेकिन नक्सलियों को एक पैगाम साफतौर पर मिल रहा है कि अपहरण की इस रणनीति में बहुत कुछ उनके खिलाफ भी जा सकता है। इस वॉर ज़ोन का दौरा करने पर महसूस होता है कि 'भीतरी' इलाकों में रहने वाले लोगों की हमदर्दी इस मामले में माओवादियों के साथ नहीं है। करती गंगा के पिता और भाई के साथ-साथ कई दूसरे गांववालों की रिहाई से लगता है कि माओवादी भी इस दबाव को महसूस कर रहे हैं।

लेकिन माओवादियों की ओर से किए गए अपहरण कहानी की पूरी तस्वीर नहीं बनाते। दंतेवाड़ा के पालनार से लगे डूंगरपाड़ा गांव में कई ऐसे लोग हैं, जिनके अपनों को पुलिस ने उठा लिया है। 23 साल की बीमे के पति को पिछले साल स्पेशल पुलिस अफसर यानी एसपीओ (जिन्हें अब छत्तीसगढ़ सरकार ने ऑक्ज़िलरी फोर्स का हिस्सा बना दिया है) उठाकर ले गए। तब बीमे गर्भवती थी, और आज उसका बच्चा डेढ़ साल का हो चुका है, लेकिन पति अब भी जेल में बंद है।

ऐसी सैकड़ों कहानियां दक्षिण बस्तर के गांवों में दबी हुई हैं। दो साल पहले कांग्रेस नेता अवधेश गौतम के घर पर माओवादियों ने हमला किया। नक्सलियों का समर्थक होने के शक में पुलिस ने कई लोगों को डूंगरपाड़ा और आसपास के गांवों से उठाया, लेकिन जेल में सड़ रहे लोगों को न तो अदालत में पेश किया जा रहा है, न उन्हें जेल से छोड़ा रहा है।

डूंगरपाड़ा के पास ही 22 साल के कोसा की मां गोंडी भाषा में जो कुछ कहती है, वह तो समझ नहीं आता, लेकिन उसके लगातार बहते आंसू लालपट्टी में चल रहे दोहरे आतंक की कहानियां साफ सुनाते हैं। उसके बेटे को भी बीमे के पति के साथ ही उठा लिया गया, लेकिन अब तक उसका कुछ पता नहीं चला है।

भारत के बीचोंबीच बनी लालपट्टी पर चल रही इस खूनी जंग में माओवादियों या पुलिस वालों को दोषी ठहराना पूरे सच से मुंह छिपाने जैसा है। वर्ष 2005 में सल्वा जुड़ुम का जो बीज नक्सलवाद को मिटाने के लिए सरकार ने बोया, आज वही समस्या को और विकराल बना चुका है। सल्वा जुड़ुम के दौर में मर रहे एसपीओ, पुलिस वालों और माओवादियों की लिस्ट में अब सीआरपीएफ के जवान तेज़ी से जुड़ रहे हैं। आज बारूदी सुरंगों के धमाके अर्द्धसैनिक बल के जवानों और पुलिस के लोगों को ही नहीं मार रहे, बल्कि आम लोग भी इसकी चपेट में आ रहे हैं।

दोरनापाल से कुछ किलोमीटर आगे एर्राबोर कैम्प के हालात और भी खराब हैं, जहां नक्सलियों ने कई बार हमले किए हैं। वर्ष 2006 में जब सल्वा जुड़ूम ज़ोरों पर था तो नक्सलियों ने एक बड़ा हमला कर कई लोगों को मार डाला और कैम्प में आग लगा दी। नक्सल एर्राबोर और आसपास के इलाकों से पुलिस के करीबी समझे जाने वाले लोगों का अपहरण भी करते रहे हैं, जिनकी किस्मत का फैसला माओवादियों के लिबरेटेड ज़ोन में लगने वाली जन अदालतों में होता है।

ऐसा नहीं है कि जन अदालतों में हर किसी को मौत की सज़ा सुना दी जाती हो, क्योंकि नक्सली कुछ लोगों को छोड़ भी देते हैं, जिनके बारे में उन्हें लगता है कि वे आइंदा पुलिस का साथ नहीं देंगे। लेकिन एर्राबोर जैसे घोर नक्सलविरोधी अभियान से जुड़े कैम्प के लोगों के लिए ऐसी उम्मीद कम होती है। दूसरी ओर हमारे देश की अदालतों में सड़ रहे लोगों के लिए भी न्याय की उम्मीद बेहद धुंधली है। सुकमा और दंतेवाड़ा के आसपास बिखरे डूंगरपाड़ा, समेली, जबेली, अरबेट्टा, कुआकोंडा जैसे कई गांव हैं, जहां लोगों को 'अपनों' के जेल से बाहर आने का इंतज़ार है।

हज़ारों किलोमीटर दूर हमारी संसद में कभी इन लोगों की दुर्दशा बहस का मुद्दा नहीं बनती, और राष्ट्रीय मीडिया में भी सिर्फ नक्सली हमलों और सरकारी रणनीति की खबरें छप रही हैं। जिन लोगों के नाम पर 15 से 20 हज़ार अर्द्धसैनिक बलों को झोंककर यह लड़ाई लड़ी जा रही है, वे या तो जंगल में माओवादियों की कैद में हैं या हमारी सभ्यता के बीच बनी जेलों में सड़ रहे हैं।

बेगुनाह लोगों के जेल में बंद होने के सवाल को पुलिस या तो टाल जाती है या फिर वह इसे माओवादियों का प्रचार कहती है, लेकिन इसी कड़वी हकीकत के दम पर माओवादी अपने प्रेस रिलीज़ तैयार कर रहे हैं। इस बार भी नक्सलियों ने बाकायदा बयान जारी कर डीएम के अपहरण को जायज़ ठहराया है। उनके मुताबिक डीएम ने अपने ही क्षेत्र में पुलिसिया ज़ुल्म की अनदेखी की है और उनकी कार्यशैली कॉरपोरेट घरानों की मदद करने वाली है।

अपने बयान में नक्सली दंतेवाड़ा की जेल में ठूंस दिए गए सैकड़ों गांववालों का ज़िक्र करते हैं या फिर पुलिस हिरासत में मारे गए लोगों का। ऐसे में सरकार के खिलाफ दलील खड़ी होती है और नेताओं की विश्वसनीयता कमज़ोर होती है। उधर, बस्तर के जंगलों में ठेकेदारों और वन कर्मचारियों को कोई दिक्कत नहीं हैं। उनके हाथ में ब्लैकबेरी और सैमसंग गैलेक्सी के मोबाइल दिखते हैं, जिनमें से कई हैंडसेट में तो हाईस्पीड इंटरनेट सुविधा भी है। वे इस इलाके में नक्सलवाद को काबू करने के लिए कड़े पुलिस अफसरों की तैनाती की वकालत करते हैं, लेकिन लोगों के बीच राजनेताओं के दौरे न होने की उन्हें परवाह नहीं है।

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लेकिन मांझापाड़ा – जहां से सुकमा के कलेक्टर को अगवा किया गया – में उम्मीद की एक किरण ज़रूर दिखती है। नक्सलियों के अभियान के बाद तलाशी के लिए घुसी पुलिस ने भले ही मारपीट का तांडव किया हो, लेकिन लोग फिर भी सरकार के साथ खड़े होने की बात करते हैं। साफ है कि डीएम एलेक्स पॉल मेनन की मेहनत कुछ रंग ज़रूर लाई है। क्या हमारे नेता उसे आगे बढ़ाने का काम करेंगे...?