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This Article is From Jul 05, 2012

क्या भारत पहुंचना चाहिए 'ओवर द काउंटर होम एचआईवी टेस्ट'...?

क्या भारत पहुंचना चाहिए 'ओवर द काउंटर होम एचआईवी टेस्ट'...?
नई दिल्ली से अंजलि इष्टवाल: हमारे देश में कितने लोगों को एड्स है, इसकी गिनती सरकार ने वर्ष 2009 के बाद करने की ज़रूरत नहीं समझी है... ऐसे में जो आंकड़े मेरे पास हैं, वे शायद आज सही न हों, फिर भी इन्हें बताकर हमें तो अपना फर्ज़ पूरा करना ही है... तो लीजिए, सरकारी आंकड़ों के मुताबिक हमारे देश में 23.9 लाख लोगों को या तो एड्स है या फिर वे एचआईवी पॉज़िटिव हैं...

ऐसे में जब मैंने अखबार में पढ़ा कि अमेरिका में फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन ने अब 'ओवर द काउंटर होम एचआईवी टेस्ट' को मंज़ूरी दे दी है तो मैं दुविधा में थी... क्या यह भारत के लिए भी एक अच्छा विकल्प होगा...?

आखिर जिस देश के नागरिक गर्भनिरोधक तक खरीदने में शर्माते हैं, वहां क्या लोग अपनी इस बीमारी की जांच कराने जाते भी हैं... क्या ऐसे हालात में घर पर ही बैठकर अगर आपको कोई दिशा मिल जाए तो इसमें हर्ज़ ही क्या है... लेकिन फिर मुझे याद आई एक और खबर, जो मैंने कुछ दिन पहले पढ़ी थी... एक एड्स पीड़ित, जो कभी मुंबई में ऑटोचालक था, ने दो दिन पहले ही खुदकुशी की और जाते-जाते अपने ख़त में अपनी पत्नी की बीमारी का खुलासा भी कर गया...

तब मैंने सोचा कि इस इंसान की कोई मजबूरियां रही होंगी - आर्थिक तंगी, सामाजिक बहिष्कार, डिप्रेशन या आत्म−ग्लानि - लेकिन सवाल उठता था, यह शख्स अपनी पत्नी का बाकी जीवन क्यों बर्बाद कर गया... उसे बेसहारा तो छोड़ ही गया, जो बीमारी शायद उसने खुद ही अपनी पत्नी को दी हो, वह सारे समाज को बता भी गया... अब उस महिला के पास क्या चारा रह जाता है... ऐसे में इस तरह के पीड़ित कोई गलत कदम न उठा लें, उसके लिए नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गेनाइज़ेशन (NACO) का सुझाव है - काउंसिलिंग... मेरा सवाल है कि यदि किसी इंसान को अपने घर में बिना किसी काउंसिलिंग सपोर्ट के अपने एड्स से ग्रसित होने का पता चलता है, तो क्या उसकी मानसिक हालत ऐसी होगी कि वह अपनी इस स्थिति को समझ सके और अपने भविष्य के लिए कुछ सोच सके...

मैं किसी भी टेस्ट के खिलाफ या पक्ष में राय नहीं देना चाहती, लेकिन दोनों तरह के सवाल खड़े करना चाहती हूं... शायद घर की प्राइवेसी में किए गए टेस्ट से अब से ज़्यादा लोगों में इस बीमारी के लिए अपनी जांच कराने की रज़ामंदी पैदा हो जाए, और उससे वक्त रहते लोगों को इलाज मिल सके... लेकिन वहीं दूसरी मुश्किल यह है कि क्या रोग के बारे में जानने के बाद वे लोग सही मदद की तरफ हाथ बढ़ाएंगे, या समाज के डर से चुपचाप कोई गलत राह चुन लेंगे...

एक दलील यह भी दी जा सकती है कि हर चीज़ की च्वाइस होनी चाहिए... अगर हमारे देश में दुनिया के कई विकसित देशों के मुकाबले, जीवन के हर पहलू में चुनने का हक है, तो फिर यहां क्यों नहीं... हर इंसान को चुनने का हक हो कि वह घर पर टेस्ट चाहता है या नहीं... जिसे नहीं करना, वह किट न खरीदे...

खैर, दलीलें बहुत हैं... फिलहाल यह टेस्ट अमेरिका में ही विकसित हुआ है, और NACO ने पहले ही इसे भारत लाने से मना कर दिया है... लेकिन मैं बिना किसी पक्षपात के सवाल उठाती हूं - क्या यह फैसला सही है...?

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