Pakistan Election Results 2018: इमरान खान पार्टी की बढ़त बरकरार
नई दिल्ली:
पाकिस्तान में वोटों की गिनती का काम जारी है और इमरान खान प्रधानमंत्री पद से चंद कदम ही दूर नजर आ रहे हैं. अगर कुछ सीटें कम भी रह जाती हैं तो भी शायद ही कोई ताकत इमरान खान को प्रधानमंत्री बनने से रोक पाए. इमरान खान के लिए कहा जाता है कि वह जब से राजनीति में आए तब से ही प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के लिए शेरवानी सिलवाए बैठे हैं और जब उन पर फौज के साथ मिलकर राजनीति करने के आरोप लग रहे हैं तो ऐसे में सवाल उठता है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत को लेकर उनका रुख़ क्या होगा. इमरान खान अपने चुनावी भाषणों में कई बार बानगी पेश कर चुके हैं कि भारत को लेकर वह क्या सोचते हैं यहां तक की अपने धुर विरोधी नवाज शरीफ पर आरोप लगाने में भी वह भारत को घसीटते रहे हैं.
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एक दिलचस्प बात यह है कि इमरान खान ने अपने चुनावी भाषणों में प्रधानमंत्री मोदी की ईमानदारी की तारीफ की है और कहा है कि और कुछ भी हो बंदा तो ईमानदार है, नहीं तो उसके भी विदेशों में पैसे होते बैंक अकाउंट होता लेकिन इमरान खान तब तक ही पीएम मोदी की तारीफ करते नजर आते हैं जब तक कि वह नवाज शरीफ पर निशाना साधने में इसका इस्तेमाल करें. जैसे ही भारत और पाकिस्तान के रिश्तों की बात आती है तो इमरान के तेवर काफी तल्ख होते हैं जिसमें कोई गुंजाइश नजर नहीं आती. हालांकि सत्ता पर बैठने के बाद हर कोई अपने आपको थोड़ा ठीक करने की कोशिश करता है.
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इमरान खान कहते हैं कि भारत ने नवाज के साथ मिलकर पाकिस्तान की फौज को कमजोर किया है यानि एक तीर से दो निशाने साधे हैं. पाकिस्तान की फौज को पूरी तरह से सर आंखों पर बिठाते हैं तो दूसरी और नवाज पर आरोप भी लगाते हैं और पाकिस्तान में भारत विरोधी भावना को भड़काते हैं. अपने चुनावी भाषणों में वह प्रधानमंत्री मोदी को काफी भला बुरा कह चुके हैं. उन्होंने यहां तक कहा है कि अगर प्रधानमंत्री मोदी कश्मीर को मामला अपने तरीके से हल करना चाहते हैं, तो वह उनकी भूल है. उन्होंने पाकिस्तान की फौज की ताकत का हवाला भी दिया. वह यूएन रेजुलेशन के जरिए कश्मीर समस्या को सुलझाने की बात भी करते हैं, लेकिन इन सब बातों को चुनाव जीतने से पहले की एक ऐसी औपचारिकता मानी जाए, जिसमें भारत और पाकिस्तान दोनों के नेता एक दूसरे देश के खिलाफ आग उगल कर वोट जुटाने की कोशिश करते हैं तो यह इतना भर नहीं है.
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इमरान खान की जीत भारत के लिए कई चिंताएं लेकर आई हैं. इमरान पर अपने ही देश में उदारवादी और विरोधी पार्टियों ने 'तालिबान खान' होने का आरोप लगाया है्. जाहिर है इमरान खान ने मानवाधिकार की रक्षा के नाम पर जिस तरह से पाकिस्तान के अलग-अलग इलाकों में आतंकवादियों के खिलाफ सैनिक ऑपरेशन का विरोध किया उनकी सहानुभूति जीती और उन इलाकों में अपनी पैठ बनाई है. अब इमरान उसे और पुख्ता करने की कोशिश करेंगे. कई इलाकों में पाकिस्तान की सेना भी ऑपरेशन नहीं करना चाहती थी और इमरान खान के इस रूख ने उन्हें सहूलियत दी ताकि आतंकवादियों के खिलाफ एक्शन ना लिया जाए. वैसे आतंकवादी हैं जिनको लेकर यह कहा जाता है कि पाकिस्तान की सेना के सहयोग उनकी मदद के बिना वह टिक नहीं सकते. यानि ऐसे आतंकवादियों के साथ खड़े होकर इमरान खान ने कहीं ना कहीं सेना की ही मदद की. उससे सिविल गवर्नमेंट के नेशनल एक्शन प्लान के तहत आतंकवादियों को पूरी तरह से सफाया करने के मंसूबे के रास्ते में खड़ी रही. अपने निहित स्वार्थों की वजह से अब यह गठजोड़ सत्ता तक पहुंचती नजर आ रही है, तो एक तरफ आतंकी तंजीम है तो दूसरी तरफ पाकिस्तान की सेना का हाथ भी पूरी तरह से उनकी पीठ पर रहा है.
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यह नई बात नहीं है कि इमरान खान और चाइना के बीच आपसी गठजोड़ के आरोप लग रहे हो. 2013 में भी कमोबेश स्थिति यही थी लेकिन तब इमरान सत्ता तक नहीं पहुंच पाए और अब जब वह पहुंच रहे हैं तो भारत के लिए चुनौती बड़ी है. पाकिस्तान में विदेश नीति पर हमेशा से सेना का दखल रहा है. इमरान खान के सत्ता संभालने के बाद वह पूरी तरह से सेना के हाथ में ही होगा. नवाज सरकार के साथ या उसके पीछे चुनी हुई किसी सरकार के साथ जब-जब भारत के रिश्ते बेहतर होने की दिशा में बड़े हैं या तो कोई बड़ा आतंकी हमला हुआ है या फिर पाकिस्तान की तरफ से सीजफायर उल्लंघन किया गया है्. सीमा पार से कोई और वारदात शांति की प्रक्रिया टूटेगी. मुंबई अटैक से लेकर पठानकोट हमले तक इसका उदाहरण है. भारत हमेशा से कहता रहा है कि आतंकवाद और बातचीत साथ-साथ नहीं चल सकते तो सवाल ये है कि क्या पाकिस्तान की सत्ता भारत के खिलाफ आतंकवाद को खत्म करके जवाब देगी. वैसे कूटनीति के रास्ते भारत के लिए हमेशा से खुले रहे हैं और आगे भी खुले रहेंगे, लेकिन पाकिस्तान की नई सत्ता और वह भी इमरान खान जिसके पीछे सेना खड़ी है उसके साथ बातचीत करना अपने आप में एक चुनौती है.
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इमरान खान कहते हैं कि भारत ने नवाज के साथ मिलकर पाकिस्तान की फौज को कमजोर किया है यानि एक तीर से दो निशाने साधे हैं. पाकिस्तान की फौज को पूरी तरह से सर आंखों पर बिठाते हैं तो दूसरी और नवाज पर आरोप भी लगाते हैं और पाकिस्तान में भारत विरोधी भावना को भड़काते हैं. अपने चुनावी भाषणों में वह प्रधानमंत्री मोदी को काफी भला बुरा कह चुके हैं. उन्होंने यहां तक कहा है कि अगर प्रधानमंत्री मोदी कश्मीर को मामला अपने तरीके से हल करना चाहते हैं, तो वह उनकी भूल है. उन्होंने पाकिस्तान की फौज की ताकत का हवाला भी दिया. वह यूएन रेजुलेशन के जरिए कश्मीर समस्या को सुलझाने की बात भी करते हैं, लेकिन इन सब बातों को चुनाव जीतने से पहले की एक ऐसी औपचारिकता मानी जाए, जिसमें भारत और पाकिस्तान दोनों के नेता एक दूसरे देश के खिलाफ आग उगल कर वोट जुटाने की कोशिश करते हैं तो यह इतना भर नहीं है.
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यह नई बात नहीं है कि इमरान खान और चाइना के बीच आपसी गठजोड़ के आरोप लग रहे हो. 2013 में भी कमोबेश स्थिति यही थी लेकिन तब इमरान सत्ता तक नहीं पहुंच पाए और अब जब वह पहुंच रहे हैं तो भारत के लिए चुनौती बड़ी है. पाकिस्तान में विदेश नीति पर हमेशा से सेना का दखल रहा है. इमरान खान के सत्ता संभालने के बाद वह पूरी तरह से सेना के हाथ में ही होगा. नवाज सरकार के साथ या उसके पीछे चुनी हुई किसी सरकार के साथ जब-जब भारत के रिश्ते बेहतर होने की दिशा में बड़े हैं या तो कोई बड़ा आतंकी हमला हुआ है या फिर पाकिस्तान की तरफ से सीजफायर उल्लंघन किया गया है्. सीमा पार से कोई और वारदात शांति की प्रक्रिया टूटेगी. मुंबई अटैक से लेकर पठानकोट हमले तक इसका उदाहरण है. भारत हमेशा से कहता रहा है कि आतंकवाद और बातचीत साथ-साथ नहीं चल सकते तो सवाल ये है कि क्या पाकिस्तान की सत्ता भारत के खिलाफ आतंकवाद को खत्म करके जवाब देगी. वैसे कूटनीति के रास्ते भारत के लिए हमेशा से खुले रहे हैं और आगे भी खुले रहेंगे, लेकिन पाकिस्तान की नई सत्ता और वह भी इमरान खान जिसके पीछे सेना खड़ी है उसके साथ बातचीत करना अपने आप में एक चुनौती है.
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