एक छोटी कहानी: लक्ष्‍मी खोलियों में नहीं आती!

एक छोटी कहानी: लक्ष्‍मी खोलियों में नहीं आती!

प्रतीकात्मक तस्वीर

मुंबई की स्लम बस्ती में खोली के सामने बैठा नौ वर्षीय ‘भाऊ’अपनी मां कांता बाई के आने का इंतजार कर रहा था. हर रोज घरों में झाड़ू-पौचा कर वह नौ-दस बजे के आस-पास लौट आती थी. आज साढ़े बारह बज चुके थे. भाऊ ने उठ कर गंदगी और कचरे से अटी संकरी गली में दूर-दूर तक निगाह दौड़ाई, लेकिन उसे मां की कहीं झलक न पड़ी. वह निराश होकर वापस खोली के सामने बैठ गया. उसे जोरों की भूख लगी थी. पेट से ‘घुरड़-घुरड़’ की आवाज आ रही थी. उसे भूख ने बेचैन कर दिया था. अन्य दिनों में तो वह इस वक्त खाना खाकर कब का कचरा बीनने जा चुका होता था, लेकिन आज तो अभी तक उसकी मां झाड़ू-पौचा करके वापस भी नहीं लौटी है. वह कब आएगी, कब खाना पकाएगी, कब खाने को मिलेगा कुछ मालूम नहीं...

वह फिर उठा और गली में झांकने की बजाय खोली के अंदर चला गया. उसने मटके से पानी का गिलास भरा और ‘गटक-गटक’ एक सांस में सारा पानी पी गया.

अमीर के लिए पानी केवल प्यास बुझाने का जरिया है, लेकिन यही पानी गरीब की प्यास के साथ-साथ एक बार तो भूख भी मिटा देता है. गरीब के बच्चों को ऐसी बातें कोई अलग से नहीं सिखायी जाती, वे स्वतः सीख जाते हैं. भाऊ पानी पीकर अब अपने-आप को तृप्त महसूस कर रहा था.

वह वापस खोली के बाहर आकर फिर मां का इंतजार करने लगा. लगभग डेढ़ बजे के आसपास कांताबाई अपनी खोली पर लौटी. वह हाथ में पुराने अखबार की एक पोटली लिये हुए थी. उसने भाऊ के मुरझाये चेहरे की तरफ देखा, “भाऊ, आज तो तू मेरी बाट जोहकर थक गया होगा.” भाऊ ने केवल सिर हिला दिया.

“आ अंदर आजा. तू सुबह से भूखा है. देख, मैं तेरी खातिर खाने के लिए क्या लेकर लायी हूं.''

दोनों मां-बेटे खोली के अंदर आ गये. कांता बाई ने चप्पल एक तरफ निकाली, पुरानी साड़ी के पल्लू से अपना मुंह पोंछा और जमीन पर बैठ कर अखबार को खोलने लगी. भाऊ भी उसके सामने बैठकर कौतुक नजरों से अखबार को देखने लगा. अखबार की तहें खुलते ही भाऊ की आंखों में चमक और मुंह में पानी आ गया. उसके सामने हलवा-पूरी थे. कांता बाई बेटे के चेहरे पर चमक देखकर मुस्करायी. बोलीं- “देशी घी के हैं. बासी भी नहीं हैं. मालकिन ने कल शाम को ही बनाये थे. वो मुझे वहीं खाने को बोल रही थीं. लेकिन मुझे मालूम था, तू भूखा है. इसलिए मैं यहीं ले आयी. चल अब जल्दी खा ले.”

भाऊ ने मासूम नजरों से कांता बाई की तरफ देखा, “आई, तूने भी तो सुबह से कुछ नहीं खाया है...?”

“तो क्या हुआ? तू खा ना..”

“जब तू मेरे बिना नहीं खा सकती, तो मैं तेरे बिना कैसे खा सकता हूं? चल दोनों खाते हैं.”

कांता बाई बेटे का प्यार देखकर गदगद हो उठी. आज उसे अपना भाऊ मालकिन के माडर्न कॉर्नवेंट में पढ़ने वाले जिद्दी बंटी से ज्यादा समझदार लग रहा था. कई दफा गरीबी वो सिखा देती है, जो अमीर किसी शिक्षण संस्था को लाखों रुपये देकर भी अपनी औलाद को नहीं सिखा पाते.

दोनों मां-बेटे बड़े प्यार और तल्लीनता से खाना खा रहे थे. अचानक भाऊ ने खाते-खाते चुप्पी तोड़ी, “आई, आज तूने इतनी देर क्यों कर दी...”

कांता बाई निवाला चबाते हुए बोली, “अरे, परसों दिवाली है ना.. मालकिन साफ-सफाई में लगी हुई थी. मैं भी उनका हाथ बटाने लगी. हमें उनकी बख्शिश का भार भी उतारना होता है. इसीलिए देर हो गयी.”

“आई, ये बड़े लोग दिवाली पर सफाई क्यों करते हैं?”

कांता बाई हंसकर बोली, “दिवाली की रात धन की देवी लक्ष्मी आती हैं. जिसका घर सबसे ज्यादा साफ-सुथरा होता है. लक्ष्मी उसी घर में वास करती हैं.”

भाऊ ने कांता बाई की तरफ देखकर बड़ी मासूमियत से पूछा, “आई, फिर तुम कभी अपनी खोली साफ क्यों नहीं करती..?”

भाऊ का सवाल सुनकर कांता बाई के चेहरे की मुद्रा बदल गयी. वह गंभीर स्वर में बोली, “भाऊ, लक्ष्मी खोलियों में नहीं, कोठियों में जाती है.”

“क्यों आई..? ऐसा क्यों..?”
“क्योंकि वह गरीब के पतरे के बक्से में नहीं, अमीर की मजबूत लोहे की तिजोरी में रहना पसंद करती है.”

भाऊ की अबोध आंखों ने मां के चेहरे के पर उभरे बेबसी के भावों को भांप लिया. वह आगे बिना कोई सवाल किये नजरें झुकाकर चुपचाप खाने लगा.

--सोमवीर भारद्वाज

 

(इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)


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