रामधारी सिंह 'दिनकर' के बारे में आपने पहले ही बहुत पढ़ा होगा. कभी उनकी जीवनी, कभी उनकी कविताएं, तो कभी उनकी लेखन शैली के बारे में. आज यहां इस लेख में मैं ऐसा कुछ नहीं लिखूंगी... खुद को बयां करने के लिए दिनकर ने इतनी रचानाएं दी हैं कि उनसे मिले बिना उनके बेहद करीब महसूस किया जा सकता है.
क्या कभी आपने सोचा है कि जब एक कवि या लेखक किसी नई रचना का निर्माण करता है, तो वह कैसे वातावरण में लिखता होगा, क्या वह किसी भीड़ भरे बाजार में जाकर लोगों को, लोगों के भावों को और उनसे झलकते या टपकते कथानकों और कविता के स्रोत को तलाश कर वहीं, उसी वातावरण में बैठ कर लिखता है... या नितांत एकांत में कहीं 'यथार्थ कल्पनाओं' का एक बाजार और उस बाजार की भीड़ खुद ही बुन लेता है...
यह बात मेरे दिमाग में तेजी से उठती है, जब मैं दिनकर की उर्वशी को पढ़ती हूं... सोचती हूं बिहार की धरती से निकला एक सूरज, जो पूरे हिंदी साहित्य में अपनी क्रांतिकारी और श्रेष्ठ वीर रस की कविताओं के लिए जाना जाता है, मन की गहराई में इतना सौन्दर्य कहां छिपाए है... आखिर वीर रस के श्रेष्ठ कवि ने सौन्दर्य रस में 'उर्वशी' जैसा एक पूरा खंडकाव्य क्यों लिखा होगा? दिन भर देश की आजादी और उसकी अन्य समस्याओं से उद्वेलित इस कवि के मन में सौन्दर्य आखिर किस वातावरण में जागा होगा...
अगर आप 'उर्वशी' किसी ऐसे व्यक्ति के हाथ में दें, जिसे यह पता न हो कि इसका लेखक कौन है, तो इसे पढ़ने के बाद वह आपको यह बता पाने में यकीनन असमर्थ होगा कि आखिर इसे लिखा किसने है किसी पुरुष ने या नारी ने... दोनों के ही भावों को जिस प्रकार दिनकर ने उकेरा यह कह पाना मुश्किल है कि वे वीर रस के कवि थे.
प्रेम, वंदना और तृष्णा को यूं इस कदर जीवंत कर देने वाले दिनकर मानों उर्वशी से मिल कर आए हों या लेखक के उस 'नितांत एकांत' को भंग करती हुई वह खुद स्वर्ग से उतर कर दिनकर से मिलने आई हो... उस 'यर्थाथ कल्पनामयी' उर्वशी ने ही दिशा दी हो दिनकर को इस लेखन की. मेरी कल्पना कहती है, इसी समय में दिनकर के मन में ये पक्तियां आई होंगी-
इसमे क्या आश्चर्य? प्रीति जब प्रथम–प्रथम जगती है‚
दुर्लभ स्वप्न–समान रम्य नारी नर को लगती है।
तभी शायद दिनकर प्रेम और सौन्दर्य का विधान व्यापक धरातल पर ला पाए हों... उर्वशी जब दिनकर से मिलकर लौटी होंगी, तो दिनकर ने भी पुरुरवा के दर्द को आत्मसात किया होगा... और शायद तभी सूने आकाश को निहारते हुए उनके मुख से पूरी रचना निकल कर हवा में घुल गई होगी.
किंतु‚ हाय‚ यह उद्वेलन भी कितना मायामय है!... इन पक्तियों से लगता है, जैसे उर्वशी एक बार फिर अपने पुरुरवा से मिल कर लौटी हो और पुरुरवा का मन एक बार फिर उर्वशी के लिए उद्वेलित हुआ हो...
उस दिन ही शायद दिनकर उर्वशी के हुए हों और उर्वशी दिनकर की...
क्या कभी आपने सोचा है कि जब एक कवि या लेखक किसी नई रचना का निर्माण करता है, तो वह कैसे वातावरण में लिखता होगा, क्या वह किसी भीड़ भरे बाजार में जाकर लोगों को, लोगों के भावों को और उनसे झलकते या टपकते कथानकों और कविता के स्रोत को तलाश कर वहीं, उसी वातावरण में बैठ कर लिखता है... या नितांत एकांत में कहीं 'यथार्थ कल्पनाओं' का एक बाजार और उस बाजार की भीड़ खुद ही बुन लेता है...
यह बात मेरे दिमाग में तेजी से उठती है, जब मैं दिनकर की उर्वशी को पढ़ती हूं... सोचती हूं बिहार की धरती से निकला एक सूरज, जो पूरे हिंदी साहित्य में अपनी क्रांतिकारी और श्रेष्ठ वीर रस की कविताओं के लिए जाना जाता है, मन की गहराई में इतना सौन्दर्य कहां छिपाए है... आखिर वीर रस के श्रेष्ठ कवि ने सौन्दर्य रस में 'उर्वशी' जैसा एक पूरा खंडकाव्य क्यों लिखा होगा? दिन भर देश की आजादी और उसकी अन्य समस्याओं से उद्वेलित इस कवि के मन में सौन्दर्य आखिर किस वातावरण में जागा होगा...
अगर आप 'उर्वशी' किसी ऐसे व्यक्ति के हाथ में दें, जिसे यह पता न हो कि इसका लेखक कौन है, तो इसे पढ़ने के बाद वह आपको यह बता पाने में यकीनन असमर्थ होगा कि आखिर इसे लिखा किसने है किसी पुरुष ने या नारी ने... दोनों के ही भावों को जिस प्रकार दिनकर ने उकेरा यह कह पाना मुश्किल है कि वे वीर रस के कवि थे.
प्रेम, वंदना और तृष्णा को यूं इस कदर जीवंत कर देने वाले दिनकर मानों उर्वशी से मिल कर आए हों या लेखक के उस 'नितांत एकांत' को भंग करती हुई वह खुद स्वर्ग से उतर कर दिनकर से मिलने आई हो... उस 'यर्थाथ कल्पनामयी' उर्वशी ने ही दिशा दी हो दिनकर को इस लेखन की. मेरी कल्पना कहती है, इसी समय में दिनकर के मन में ये पक्तियां आई होंगी-
इसमे क्या आश्चर्य? प्रीति जब प्रथम–प्रथम जगती है‚
दुर्लभ स्वप्न–समान रम्य नारी नर को लगती है।
तभी शायद दिनकर प्रेम और सौन्दर्य का विधान व्यापक धरातल पर ला पाए हों... उर्वशी जब दिनकर से मिलकर लौटी होंगी, तो दिनकर ने भी पुरुरवा के दर्द को आत्मसात किया होगा... और शायद तभी सूने आकाश को निहारते हुए उनके मुख से पूरी रचना निकल कर हवा में घुल गई होगी.
किंतु‚ हाय‚ यह उद्वेलन भी कितना मायामय है!... इन पक्तियों से लगता है, जैसे उर्वशी एक बार फिर अपने पुरुरवा से मिल कर लौटी हो और पुरुरवा का मन एक बार फिर उर्वशी के लिए उद्वेलित हुआ हो...
उस दिन ही शायद दिनकर उर्वशी के हुए हों और उर्वशी दिनकर की...
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