Book Review: क्या आपको भी समझ नहीं आ रहा है कि लॉकडाउन के इन 21 दिनों में घर पर क्या करें? तो बेचैन न हों. क्यों न इस वक्त में किताबों की ओर रुख किया जाए. और अलमारी की शेल्फ में रखी किताबों के ऊपर धूल को हटाया जाए. मैं भी कुछ ऐसा ही करने जा रही हूं. आज जो किताब मेरे हाथ लगी है वह है पेशे से मीडियाकर्मी पीयूष पांडे का नया व्यंग्य संग्रह 'कबीरा बैठा डिबेट में' (Kabira Baitha Debate Mein).
यह एक तीखी किताब है. जी हां, इसे उठाते ही पहली पंक्ति में आपको तल्ख महसूस हो सकता है. और अगर आपको व्यंग्य पसंद हैं, तो यह पहली लाइन ही आपके मन में जिज्ञासा पैदा कर देगी. लेकिन जरा संभल कर! यह किताब उन लोगों के लिए घातक साबित हो सकती है, जो किताब पसंद आने पर एक ही सांस में उसे खत्म कर देने की आदत के शिकार हैं. भूमिका की पहली लाइन दिमाग में जाकर ऐसा मीठा चुभेगी कि उसकी मिठास की थाह पाने के फेर में आप पूरी किताब एक साथ पढ़ ड़ालेंगे. कमसकम मेरे साथ तो यही हुआ.
किताब के लेखक पीयूष खुद मीडिया से जुड़े हैं. ऐसे में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के हर चेहरे को उन्होंने बखूबी व्यंग्यों में पेश किया है. कई व्यंग्यों में कबीरदास को टीवी डिबेट का भाग बनाया गया है. और इसके साथ ही साथ कई मीडिया और समाज की विसंगतियों को कहीं तीखे, तो कहीं कसैले तड़के लगाए गए हैं.
इस व्यंग्य संग्रह में कुल 65 व्यंग्य हैं. जिनमें मीडिया से लेकर बाजार तक, राजनीति से लेकर समाज तक फैली विसंगतियों पर कटाक्ष हैं. व्यंग्य भी ऐसे ऐसे कि आप हंसने के साथ ही दुख भी महसूस करेंगे. व्यंग्य 'मिलावट का स्वर्ण काल' की एक पक्ति ही ले लीजिए 'देश के करोड़ों लोग शुद्ध दूध पी लें तो उनका हाजमा बिगड़ सकता है.' आपको पहली बार में इस पर हंसी सकती है, लेकिन दूसरे ही पल में आप इसमें छिपे तंज से त्रस्त भी हो सकते हैं. यही नहीं संग्रह का हर व्यंग्य आपको चौंकाएगा. समाज और मीडिया में उत्पन्न इन विसंगतियों को लेखक ने जिस नजर से देखा और लिखा है वह बेहद रोचक व्यंग्य पैदा करता है.
इस व्यंग्य संग्रह को पढ़ते हुए आप बोझिल महसूस नहीं करेंगे, जो कि कई बार इस तरह की विधा में देखने को मिलता है. क्योंकि कई व्यंग्य बेहद छोटे हैं, इतने की आप महज 10 मिनट में पढ़ सकते हैं. लेकिन धार इतनी कि 10 दिन तक दिमाग पर वार होता रहेगा.
व्यंग्य संकलन की भाषा की समीक्षा करें तो यह यह कठिन हिंदी नहीं. इसमें आप बोलचाल की भाषा को अपनी बात कहने के लिए चुना गया है. भाषा इतनी सरल और सहज है कि कहीं-कहीं आपको यह गलतफहमी हो सकती है कि आप किताब पढ़ नहीं रहे, बल्कि किसी के मुंह से कहानी सुन रहे है.
क्या है खास
आज का युवा पाठक कम शब्दों में बहुत से मतलब तलाशता है. ऐसे में इस संग्रह में ऐसे बहुत से ‘वन-लाइनर' आपको मिल जाएंगे जिन्हें आप शायद आने नियमित बोलचाल में भी शामिल कर लें.
लेखक के बारे में- अखबारों और पत्रिकाओं के लिए नियमित व्यंग्य लेखन करने वाले पीयूष पांडे के दो व्यंग्य-संग्रह ‘छिछोरेबाजी का रिजोल्यूशन' और ‘धंधे मातरम्' प्रकाशित हो चुके हैं.
किताब- कबीरा बैठा डिबेट में
प्रकाशक- प्रभात प्रकाशन
कीमत- 250 रुपए.
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