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This Article is From Jan 26, 2018

किताब-विताब : 'जग दर्शन का मेला', एक छूटती हुई विधा की ज़रूरी याद

शिवरतन थानवी की किताब 'जग दर्शन का मेला' एक सुदीर्घ चिंतन की प्रक्रिया से निकली है और यह हमें हमारे उस छूटे हुए अभ्यास की याद दिलाती है.

किताब-विताब : 'जग दर्शन का मेला', एक छूटती हुई विधा की ज़रूरी याद
शिवरतन थानवी की किताब 'जग दर्शन का मेला' हाल ही में प्रकाशित हुई है.
जयपुर विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में एक बार अमेरिकी राजदूत जॉन केनेथ गैलब्रेथ मुख्य अतिथि थे जो पहले प्रोफ़ेसर हुआ करते थे. दीक्षांत समारोह में उनका परिचय कराते हुए यह बताया गया कि पहले वे हार्वर्ड के प्रोफ़ेसर थे, अब तरक्की हो गई है और राजदूत हो गए हैं. जब गैलब्रेथ बोलने आए तो उन्होंने कहा कि उनकी तरक्की नहीं हुई है. तरक्की तब होगी जब वे फिर से शिक्षक हो जाएंगे.

यह प्रसंग राजस्थान के वरिष्ठ लेखक शिवरतन थानवी को एक बुज़ुर्ग अमानु्ल्ला साहब ने बताया. अमानुल्ला उनसे काफी लंबी दूरी तय करके मिलने आए थे. उनके साथ यादों की पोटली और अध्ययन का खजाना था. उन्होंने राहुल सांकृत्यायन को याद किया- ‘वोल्गा से गंगा’, ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ और 'तुम्हारी क्षय' जैसी किताब की चर्चा की, और भी बहुत सारी बातें कीं.

यह सारा ब्योरा शिवरतन थानवी ने तब अपनी डायरी में दर्ज किया और अब वह किताब की शक्ल में हमारे सामने है. शिवरतन थानवी राजस्थान सरकार के शिक्षा विभाग में रहे- वहां कई रचनात्मक शैक्षिक पहलकदमियों के सूत्रधार रहे, शिविरा जैसी पत्रिका निकाली, जो एक समय राजस्थान के शिक्षकों के बीच हज़ारों की तादाद में बिकती थी. शिक्षा के क्षेत्र में राजस्थान में जो एक व्यापक आंदोलन चला, शिवरतन थानवी भी उसका अहम हिस्सा रहे.

शिवरतन थानवी की यह किताब 'जग दर्शन का मेला' अलग-अलग छिटपुट समयों में लिखी गई उनकी डायरियों और टिप्पणियों से बनती हैं. इन टिप्पणियों के बीच हमें राजस्थान की शैक्षिक पहल के सूत्र भी मिलते हैं और उसके सामाजिक पर्यावरण के भी. शिवरतन थानवी बीच-बीच में साहित्यिक कृतियों पर भी टिप्पणी करते चलते हैं, व्यक्तित्वों पर भी और आयोजनों पर भी. इनसे गुज़रते हुए कुछ किताबों, कुछ लेखकों और कुछ लेखकीय स्वभाव के बारे में हमें एक अंतर्दृष्टि मिलती चलती है. एक टिप्पणी में वे कृष्ण कुमार की किताब 'राज समाज और शिक्षा' को शिक्षा के क्षेत्र में एक नई दृष्टि के उन्मेष की तरह देखते हैं. किताबों को लेकर उनकी सजग दृष्टि का पता इस बात से चलता है कि जब बरसों बाद इस किताब का दूसरा संस्करण आता है तो वे अपनी डायरी में यह शिकायत दर्ज करते हैं कि इसमें पिछले संस्करण की तरह अनुक्रमणिका नहीं है. एक अन्य टिप्पणी में श्रीश्री रविशंकर की शैक्षणिक समझ पर अफ़सोस करते हैं. संदर्भ श्रीश्री रविशंकर का वह वक्तव्य था जिसमें उन्होंने कहा था कि सरकारी स्कूलों में पढने वाले बच्चे नक्सली बन जाते हैं. शिवरतन थानवी शिक्षक के तौर पर बच्चों के साथ संवाद की नई शैली की ज़रूरत बताते हैं और इसके लिए बिंदुवार सुझाव तक देते हैं.

दरअसल यह किताब एक पूरे दौर का झरोखा है. यह किताब यह भी याद दिलाती है कि कभी हमारे शिक्षक अपने साहित्य-समाज और संस्कृति के प्रति कितने सजग थे. यह शिक्षक-संस्कृति कैसे सरकारी उदासीनता की शिकार होकर और नंबरों की होड़ में लगातार पीछे छूटती पढ़ाई के बीच बेमानी होते शिक्षण की सिर्फ वेतनभोगी और यांत्रिक रुटीन में तब्दील होकर रह गई- इसकी करुण कहानी यहां नहीं है, मगर इस त्रासदी की ओर इशारा है. शिवरतन थानवी अलग-अलग जगहों पर तरह-तरह की चर्चा में लीन दिखते हैं-  कहीं वे कुछ अच्छी फिल्मों की चर्चा करते हैं, कहीं कुछ पठनीय किताबों की, कहीं किन्हीं बड़े लेखकों के आतिथ्य की और कहीं किसी आयोजन की उचित समीक्षा करते हैं. युवा कवि पीयुष दईया की कविता पर एक आलोचनात्मक टिप्पणी लिखते हिचकते हैं, फिर उसे भेज देते हैं और इस बात पर संतुष्ट होते हैं कि दईया ने उनकी टिप्पणी को सम्मानपूर्वक ग्रहण किया है. यह बौद्धिक रूप से सक्रिय एक व्यक्ति का रोज़नामचा है जो अपने समाज के प्रति संवेदनशील है.

लेकिन एक अन्य वजह से हमारे लिए यह किताब महत्वपूर्ण हैं. डायरियां और चिट्ठियां इस दौर में लगभग विलुप्त होती विधाएं हैं. चिट्ठियों की जगह ईमेल ने ले ली है जो अमूमन कारोबारी सूचनाओं तक सीमित है. बची-खुची बातों के लिए मोबाइल फोन, एसएमएस से लेकर वाट्सऐप और मेसेंजर तक हैं. डायरी लिखने की जगह लोग अब सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखते हैं. जिनको हम पहले अपनी डायरी में दर्ज करते थे, उन्हें अब फेसबुक पोस्ट बनाते हैं- चाहे वह निजी अनुभव हो या किसी सार्वजनिक अनुभव या आयोजन पर निजी टिप्पणी.  लेकिन इस स्थानांतरण भर से हमारी टिप्पणियों की प्रकृति बदल जाती है. उनका निजी आस्वाद जाता रहता है, वे एक सार्वजनिक मसले में बदल जाती हैं. अचानक हम पाते हैं कि वे निजी अनुभव या विचार की धीरज भरी अभिव्यक्ति न रहकर वाद-विवाद के सूत्र में बदल रही हैं. उनमें वह अपेक्षित ठहराव नहीं है जो एक सुदीर्घ चिंतन की प्रक्रिया से निकलता है. यह किताब हमें हमारे उस छूटे हुए अभ्यास की याद दिलाती है.

किताब टुकड़ा-टुकड़ा टिप्पणियों से बनी है. यह इसकी ताकत भी है और सीमा भी. कुछ मुद्दों पर और गहराई से उनके विचार जानने की इच्छा होती है, लेकिन वे मिलते नहीं. कुछ मुद्दों पर अनायास कई सूत्र हाथ लग जाते हैं. एक खुले हुए व्यक्तित्व की खुली हुई इस किताब का अपना एक स्थिर आनंद है.

जग दर्शन का मेला : शिवरतन थानवी;  राजमकल प्रकाशन, मूल्य 295 रुपये

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