फाइल फोटो
नमस्कार मैं रवीश कुमार, बस दो बातें हैं। जो दो लोग लड़ रहे हैं उनके बारे में राजनीतिक धारणा कैसी है और जिस बात को लेकर लड़ाई हो रही है वो बात क्या है। धारणा छोड़िये बात पर ज़ोर देते हैं। धारणा से आप इतनी आसानी से मुक्त भी नहीं हो सकते फिर भी कोशिश होगी कि जो बात है उसी पर बात हो। ऐसा प्रतीत होता है कि दिल्ली में उप राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच की लड़ाई अधिकार की लड़ाई है और अहं की भी।
संविधान या नियमों के प्रावधान में ऐसी लड़ाई की कल्पना की गई है। इसीलिए अगर विवाद हो गया तो Article 239 AA (4) के तहत उप-राज्यपाल उस मामले को राष्ट्रपति के पास भेजेंगे, उनका जो भी फैसला होगा उप-राज्यपाल अमल करेंगे। मंगलवार को दिल्ली के मुख्यमंत्री, उप-मुख्यमंत्री और उप-राज्यपाल ने राष्ट्रपति से मुलाकात भी की। बुधवार को केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी मुलाकात की और कहा कि उप-राज्यपाल और मुख्यमंत्री में आपस में इसे सुलझायें। अब यह साफ नहीं हो सका कि राष्ट्रपति अपना मत देंगे या राजनाथ सिंह ने जो कहा वही राष्ट्रपति भवन का भी मत है। दोपहर तीन बजे राजनाथ सिंह राष्ट्रपति भवन से बाहर आकर आपस में सुलझाने की बात करते हैं और घंटे भर के भीतर राजनिवास से एक प्रेस रीलीज़ जारी होती है कि पिछले चार दिनों में दिल्ली सरकार ने जितने भी ट्रांसफर पोस्टिंग के फैसले लिये हैं उन्हें रद्द किया जाता है क्योंकि प्रधान सचिव और सचिव स्तर के अधिकारियों के मामले में फैसला लेने का अधिकार उप-राज्यपाल का है।
प्रेस रीलीज़ में लिखा गया है कि मुख्यमंत्री से सलाह कर अधिकारियों के बारे में फैसला उप-राज्यपाल ही लेंगे। यह नहीं बताया कि मुख्यमंत्री से सलाह ली गई या फैसला रद्द करने के बाद बता दिया गया। पहले पूछना सलाह है या बाद में बताना सलाह है। वैसे मैं कोई सलाह विशेषज्ञ नहीं हूं। दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने भी जवाबी पत्र लिख कर पूछा है कि आपने ऐसा किस नियम के तहत किया है कृपया बतायें। साफ है कि केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह की सलाह दोनों पक्षों ने प्राइम टाइम शुरू किए जाने तक नहीं न सुनी न मानी। लेकिन बुधवार को सुबह मुख्यमंत्री केजरीवाल दिल्ली के अधिकारियों की एक बैठक बुला चुके थे यह समझाने के लिए हम सब समझ लें कि संवैधानिक दायित्वों के अनुसार किसकी भूमिका कहां से शुरू होती है और कहां से खत्म।
मुख्यमंत्री ने अधिकारियों से कहा कि अगर मुख्यमंत्री या उप राज्यपाल के यहां से मौखिक या लिखित निर्देश आता है तो अधिकारी पहले अपने मंत्री को बताएंगे। जब तक मुख्यमंत्री या मंत्री लिखित तौर पर फैसला नहीं दे देते हैं सचिव या मुख्य सचिव फैसला नहीं देंगे।
इसका मतलब है कि यह मामला दोनों आपस में नहीं सुलझाने वाले। अगर मुख्यमंत्री को पता न हो और उनके मुख्य सचिव उप राज्यपाल के निर्देश पर फैसला दे दें तो क्या यह अपने आप में संवैधानिक संकट नहीं है। अगर ऐसी कोई संवैधानिक व्यवस्था है तो क्या उस पर विचार नहीं किया जा सकता है, यह कहां लिखा है कि जो भी कमी होगी वो तभी दूर होगी जब दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलेगा। ज़रूरी है कि हम कुछ सवाल आपके सामने रख दें।
क्या उप राज्यपाल ट्रांसफर पोस्टिंग के अलावा भी अधिकारियों को निर्देश देते हैं
यह धारणा है या वाकई उप राज्यपाल स्वतंत्र रूप से निर्देश दे सकते हैं
उन निर्देशों की प्रकृति क्या होती है और जवाबदेही किसकी होती है
अधिकारी किसे रिपोर्ट करेंगे उप राज्यपाल को या अपने मंत्री या मुख्यमंत्री को
अगर ऐसा है तब तो आईएएस अधिकारियों को ही इस व्यवस्था से शिकायत होनी चाहिए कि उनका बॉस कौन है पता ही नहीं चलता। शायद उन्हें लाभ भी होता होगा। कम से कम चश्मा पहनने पर नोटिस कौन देगा इसी पर आर्डर होने और कैंसिल होने में महीना निकल जाएगा। क्या उप-राज्यपाल अपने अधिकारों का सक्रिय इस्तमाल नहीं कर रहे हैं। राष्ट्रपति और राज्यपाल भी जब अपने अधिकारों का सक्रिय इस्तमाल करते हैं तब एक टकराव पैदा होता है।
2011 में जब गुजरात की राज्यपाल कमला बेनिवाल ने आरए मेहता को लोकायुक्त नियुक्त कर दिया था तब मुख्यमंत्री मोदी ने विरोध किया था, कि बिना मुख्यमंत्री की सलाह नियुक्ति कैसे कर दी। सुषमा स्वराज और अरुण जेटली ने राष्ट्रपति भवन तक मार्च किया था।
इसिलए पूर्ण और अपूर्ण की बात नहीं है। एक नियुक्त प्रतिनिधि और निर्वाचित प्रतिनिधि के अधिकारों को सिर्फ संविधान के शब्दों से ही न तौला जाए बल्कि परंपराओं के चश्मे से भी देखा जाए। परंपरा के अनुसार सभी मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री अपनी टीम का गठन करते हैं। वे किसी जूनियर को भी चोटी के पद पर बिठा सकते हैं। अपने चहेते को बार बार सेवा विस्तार देकर किसी को मुख्य सचिव बनने से रोक सकते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी, नृपेंद्र मिश्रा को प्रधान सचिव को नियुक्त करने के लिए अध्यादेश ही ले आए। नुक्ताचीनी हुई लेकिन इस फैसले को प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार मानकर स्वीकार किया गया। अगर कोई नियम एक निर्वाचित मुख्यमंत्री के आड़े आता है तो क्या उसे बदलने के लिए अध्यादेश नहीं लाया जा सकता। इस साल जनवरी में जब एक महिला विदेश सचिव सुजाता सिंह के रिटायर होने में सात महीने बाकी थे तब उनकी जगह जयशंकर को विदेश सचिव नियुक्त कर दिया गया। सुजाता सिंह ने कहा था कि मेरे हटाये जाने को सही ठहराने के नाम पर मेरी साख को खराब किया जा रहा है। उन्होंने इसके विरोध में इस्तीफा दे दिया।
कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री को जयशंकर ज्यादा योग्य लगे होंगे तो उसी तरह अगर अरविंद केजरीवाल को लगे कि फलां सचिव योग्य नहीं है तो उन्हें वो अधिकार क्यों नहीं मिलना चाहिए। मुख्यमंत्री केजरीवाल ने शकुंतला गैमलिन पर सार्वजनिक आरोप लगाकर एक नई मर्यादा बना दी। वे इस मामले को केंद्रीय अधिकारियों के पंचाट कैट या कोर्ट क्यों नहीं ले गए। उप राज्यपाल को बताना चाहिए कि जब बिजली मंत्री से गैमलिन के खिलाफ आरोपों की जानकारी मिली तो उन्होंने किस आधार पर पाया कि आरोप गलत है।
वैसे शकुंतला गैमलिन कार्यवाहक मुख्य सचिव के साथ साथ ऊर्जा सचिव तो आज भी हैं। उन्हें उस पद से केजरीवाल ने क्यों नहीं हटाया। क्या मुख्य सचिव बनकर वे रिलायंस को लाभ पहुंचाने वाले पत्र पर दस्तखत कर सकती थीं। शायद नहीं। उप राज्यपाल के फैसले से पहले शकुंतला गैमलिन से यह कहलाना कि आप रेस से हट जाएं क्या यह उचित था। फर्स्ट पोस्ट ने लिखा है कि गैमलिन लगातार बीस साल से केंद्र और दिल्ली सरकार के बहाने दिल्ली में हैं। इस रिपोर्ट में ज़िक्र है कि गैमलिन की यह निरंतर पोस्टिंग के लिए कई नियमों को अनदेखा किया जाता रहा है।
इस पूरी प्रक्रिया में अनिंदो मजूमदार की क्या गलती है। उप राज्यपाल के फैसले के हिसाब से शकुंतला गैमलिन को कार्य भार दिला दिया। मुख्यमंत्री और उप-राज्यपाल की इस लड़ाई में एक अधिकारी किसकी माने क्या यह किसी नियम में स्पष्ट है खासकर उन नियमों में जिन्हें दिल्ली के अपूर्ण राज्य होने के संदर्भ में महान और शाश्वत बताया जा रहा है। दिल्ली सरकार ने उनके कमरे में ताला जड़ दिया। क्या यह उचित तरीका है। एक दिन फैक्स मशीन और ई-मेल भी ब्लॉक किया जाने लगेगा ताकि राजनिवास से कोई आदेश ही न आए। आखिर जब राष्ट्रपति के यहां मामला चला गया है तो उनके यहां से फैसला क्यों नहीं आ रहा है। क्या राष्ट्रपति को अब तक अपना निर्णय नहीं देना चाहिए था। एक निर्वाचित मुख्यमंत्री अपना अधिकारी नियुक्त नहीं कर सकता तो वो मुख्यमंत्री क्यों हैं। नाम के लिए मुख्यमंत्री का चुनाव हो और काम के लिए उप-राज्यपाल नियुक्त हों, क्या यह तर्कसंगत व्यवस्था है। प्राइम टाइम
संविधान या नियमों के प्रावधान में ऐसी लड़ाई की कल्पना की गई है। इसीलिए अगर विवाद हो गया तो Article 239 AA (4) के तहत उप-राज्यपाल उस मामले को राष्ट्रपति के पास भेजेंगे, उनका जो भी फैसला होगा उप-राज्यपाल अमल करेंगे। मंगलवार को दिल्ली के मुख्यमंत्री, उप-मुख्यमंत्री और उप-राज्यपाल ने राष्ट्रपति से मुलाकात भी की। बुधवार को केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी मुलाकात की और कहा कि उप-राज्यपाल और मुख्यमंत्री में आपस में इसे सुलझायें। अब यह साफ नहीं हो सका कि राष्ट्रपति अपना मत देंगे या राजनाथ सिंह ने जो कहा वही राष्ट्रपति भवन का भी मत है। दोपहर तीन बजे राजनाथ सिंह राष्ट्रपति भवन से बाहर आकर आपस में सुलझाने की बात करते हैं और घंटे भर के भीतर राजनिवास से एक प्रेस रीलीज़ जारी होती है कि पिछले चार दिनों में दिल्ली सरकार ने जितने भी ट्रांसफर पोस्टिंग के फैसले लिये हैं उन्हें रद्द किया जाता है क्योंकि प्रधान सचिव और सचिव स्तर के अधिकारियों के मामले में फैसला लेने का अधिकार उप-राज्यपाल का है।
प्रेस रीलीज़ में लिखा गया है कि मुख्यमंत्री से सलाह कर अधिकारियों के बारे में फैसला उप-राज्यपाल ही लेंगे। यह नहीं बताया कि मुख्यमंत्री से सलाह ली गई या फैसला रद्द करने के बाद बता दिया गया। पहले पूछना सलाह है या बाद में बताना सलाह है। वैसे मैं कोई सलाह विशेषज्ञ नहीं हूं। दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने भी जवाबी पत्र लिख कर पूछा है कि आपने ऐसा किस नियम के तहत किया है कृपया बतायें। साफ है कि केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह की सलाह दोनों पक्षों ने प्राइम टाइम शुरू किए जाने तक नहीं न सुनी न मानी। लेकिन बुधवार को सुबह मुख्यमंत्री केजरीवाल दिल्ली के अधिकारियों की एक बैठक बुला चुके थे यह समझाने के लिए हम सब समझ लें कि संवैधानिक दायित्वों के अनुसार किसकी भूमिका कहां से शुरू होती है और कहां से खत्म।
मुख्यमंत्री ने अधिकारियों से कहा कि अगर मुख्यमंत्री या उप राज्यपाल के यहां से मौखिक या लिखित निर्देश आता है तो अधिकारी पहले अपने मंत्री को बताएंगे। जब तक मुख्यमंत्री या मंत्री लिखित तौर पर फैसला नहीं दे देते हैं सचिव या मुख्य सचिव फैसला नहीं देंगे।
इसका मतलब है कि यह मामला दोनों आपस में नहीं सुलझाने वाले। अगर मुख्यमंत्री को पता न हो और उनके मुख्य सचिव उप राज्यपाल के निर्देश पर फैसला दे दें तो क्या यह अपने आप में संवैधानिक संकट नहीं है। अगर ऐसी कोई संवैधानिक व्यवस्था है तो क्या उस पर विचार नहीं किया जा सकता है, यह कहां लिखा है कि जो भी कमी होगी वो तभी दूर होगी जब दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलेगा। ज़रूरी है कि हम कुछ सवाल आपके सामने रख दें।
क्या उप राज्यपाल ट्रांसफर पोस्टिंग के अलावा भी अधिकारियों को निर्देश देते हैं
यह धारणा है या वाकई उप राज्यपाल स्वतंत्र रूप से निर्देश दे सकते हैं
उन निर्देशों की प्रकृति क्या होती है और जवाबदेही किसकी होती है
अधिकारी किसे रिपोर्ट करेंगे उप राज्यपाल को या अपने मंत्री या मुख्यमंत्री को
अगर ऐसा है तब तो आईएएस अधिकारियों को ही इस व्यवस्था से शिकायत होनी चाहिए कि उनका बॉस कौन है पता ही नहीं चलता। शायद उन्हें लाभ भी होता होगा। कम से कम चश्मा पहनने पर नोटिस कौन देगा इसी पर आर्डर होने और कैंसिल होने में महीना निकल जाएगा। क्या उप-राज्यपाल अपने अधिकारों का सक्रिय इस्तमाल नहीं कर रहे हैं। राष्ट्रपति और राज्यपाल भी जब अपने अधिकारों का सक्रिय इस्तमाल करते हैं तब एक टकराव पैदा होता है।
2011 में जब गुजरात की राज्यपाल कमला बेनिवाल ने आरए मेहता को लोकायुक्त नियुक्त कर दिया था तब मुख्यमंत्री मोदी ने विरोध किया था, कि बिना मुख्यमंत्री की सलाह नियुक्ति कैसे कर दी। सुषमा स्वराज और अरुण जेटली ने राष्ट्रपति भवन तक मार्च किया था।
इसिलए पूर्ण और अपूर्ण की बात नहीं है। एक नियुक्त प्रतिनिधि और निर्वाचित प्रतिनिधि के अधिकारों को सिर्फ संविधान के शब्दों से ही न तौला जाए बल्कि परंपराओं के चश्मे से भी देखा जाए। परंपरा के अनुसार सभी मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री अपनी टीम का गठन करते हैं। वे किसी जूनियर को भी चोटी के पद पर बिठा सकते हैं। अपने चहेते को बार बार सेवा विस्तार देकर किसी को मुख्य सचिव बनने से रोक सकते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी, नृपेंद्र मिश्रा को प्रधान सचिव को नियुक्त करने के लिए अध्यादेश ही ले आए। नुक्ताचीनी हुई लेकिन इस फैसले को प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार मानकर स्वीकार किया गया। अगर कोई नियम एक निर्वाचित मुख्यमंत्री के आड़े आता है तो क्या उसे बदलने के लिए अध्यादेश नहीं लाया जा सकता। इस साल जनवरी में जब एक महिला विदेश सचिव सुजाता सिंह के रिटायर होने में सात महीने बाकी थे तब उनकी जगह जयशंकर को विदेश सचिव नियुक्त कर दिया गया। सुजाता सिंह ने कहा था कि मेरे हटाये जाने को सही ठहराने के नाम पर मेरी साख को खराब किया जा रहा है। उन्होंने इसके विरोध में इस्तीफा दे दिया।
कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री को जयशंकर ज्यादा योग्य लगे होंगे तो उसी तरह अगर अरविंद केजरीवाल को लगे कि फलां सचिव योग्य नहीं है तो उन्हें वो अधिकार क्यों नहीं मिलना चाहिए। मुख्यमंत्री केजरीवाल ने शकुंतला गैमलिन पर सार्वजनिक आरोप लगाकर एक नई मर्यादा बना दी। वे इस मामले को केंद्रीय अधिकारियों के पंचाट कैट या कोर्ट क्यों नहीं ले गए। उप राज्यपाल को बताना चाहिए कि जब बिजली मंत्री से गैमलिन के खिलाफ आरोपों की जानकारी मिली तो उन्होंने किस आधार पर पाया कि आरोप गलत है।
वैसे शकुंतला गैमलिन कार्यवाहक मुख्य सचिव के साथ साथ ऊर्जा सचिव तो आज भी हैं। उन्हें उस पद से केजरीवाल ने क्यों नहीं हटाया। क्या मुख्य सचिव बनकर वे रिलायंस को लाभ पहुंचाने वाले पत्र पर दस्तखत कर सकती थीं। शायद नहीं। उप राज्यपाल के फैसले से पहले शकुंतला गैमलिन से यह कहलाना कि आप रेस से हट जाएं क्या यह उचित था। फर्स्ट पोस्ट ने लिखा है कि गैमलिन लगातार बीस साल से केंद्र और दिल्ली सरकार के बहाने दिल्ली में हैं। इस रिपोर्ट में ज़िक्र है कि गैमलिन की यह निरंतर पोस्टिंग के लिए कई नियमों को अनदेखा किया जाता रहा है।
इस पूरी प्रक्रिया में अनिंदो मजूमदार की क्या गलती है। उप राज्यपाल के फैसले के हिसाब से शकुंतला गैमलिन को कार्य भार दिला दिया। मुख्यमंत्री और उप-राज्यपाल की इस लड़ाई में एक अधिकारी किसकी माने क्या यह किसी नियम में स्पष्ट है खासकर उन नियमों में जिन्हें दिल्ली के अपूर्ण राज्य होने के संदर्भ में महान और शाश्वत बताया जा रहा है। दिल्ली सरकार ने उनके कमरे में ताला जड़ दिया। क्या यह उचित तरीका है। एक दिन फैक्स मशीन और ई-मेल भी ब्लॉक किया जाने लगेगा ताकि राजनिवास से कोई आदेश ही न आए। आखिर जब राष्ट्रपति के यहां मामला चला गया है तो उनके यहां से फैसला क्यों नहीं आ रहा है। क्या राष्ट्रपति को अब तक अपना निर्णय नहीं देना चाहिए था। एक निर्वाचित मुख्यमंत्री अपना अधिकारी नियुक्त नहीं कर सकता तो वो मुख्यमंत्री क्यों हैं। नाम के लिए मुख्यमंत्री का चुनाव हो और काम के लिए उप-राज्यपाल नियुक्त हों, क्या यह तर्कसंगत व्यवस्था है। प्राइम टाइम
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