आज सरदार वल्लभभाई पटेल की जयंती (Sardar Patel Birthday) है. देश के पहले गृहमंत्री पटेल कद-काठी में तो मजबूत थे ही, लेकिन उससे कहीं मजबूती से वह विचारों और सिद्धांतों के धरातल पर खड़े नजर आते थे. इसी वजह से उन्हें 'लौह पुरुष' भी कहा गया. सियासी गलियारों में अक्सर इस बात पर बहस होती है कि वल्लभभाई पटेल जिस 'पद' के हकदार थे, उन्हें वह नहीं मिला. खासकर केंद्र की मौजूदा सरकार ने इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया है. पीएम मोदी तमाम मंच से यह कह चुके हैं कि वल्लभभाई पटेल को कांग्रेस ने हाशिये पर रखा. उन्हें अनदेखा किया गया. सरदार पटेल ने आजादी के बाद देशी रियासतों के भारत में विलय का मुश्किल काम अपने हाथ में लिया और उन्होंने वो कर दिखाया जिसे तमाम लोग असंभव मान रहे थे. आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) देश के पहले प्रधानमंत्री बने, तो वल्लभभाई पटेल उप-प्रधानमंत्री और गृहमंत्री. हालांकि स्वतंत्रता के कुछ दिनों बाद ही दोनों नेताओं में तमाम मुद्दों पर टकराव की स्थिति पैदा हो गई, लेकिन जनवरी 1948 में जब महात्मा गांधी का निधन हुआ तो दोनों नेता एक बार फिर करीब आए. असहमतियों को भुलाकर आगे बढ़ने का फैसला लिया गया, लेकिन साल भर बाद ही मतभेद फिर सामने आ गया.
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पहली बार 'राष्ट्रपति' को लेकर पैदा हुआ मतभेद :
ये साल 1949 के आखिरी दिन थे. अगले साल यानी 1950 में भारत ब्रिटिश सम्राट की अगुवाई वाले 'डोमिनयन स्टेट' से एक संप्रभु गणराज्य बनने वाला था. नेहरू (Jawaharlal Nehru) चाहते थे कि उस समय गवर्नर जनरल के पद पर तैनात सी. राजगोपालचारी को ही देश का पहला राष्ट्रपति बना दिया जाए, लेकिन वल्लभभाई पटेल इससे असहमत थे. वे चाहते थे कि शहरी पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखने वाले 'राजाजी' की जगह ग्रामीण परिवेश से आने वाले राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति बनें. राजेंद्र प्रसाद की कांग्रेस में ठीक-ठाक पैठ थी और लोग उन्हें पसंद करते थे. विख्यात इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब 'इंडिया आफ्टर गांधी' में लिखते हैं, 'नेहरू पहले ही सी. राजगोपालचारी को आश्वस्त कर चुके थे कि राष्ट्रपति वही बनेंगे, लेकिन जब पटेल ने राजेंद्र प्रसाद का नाम आगे किया तो उन्हें बहुत निराशा हुई'. राजेंद्र प्रसाद देश के पहले राष्ट्रपति चुने गए और 26 जनवरी को भव्य समारोह में उन्होंने सशस्त्र सेनाओं के कमांडर के रूप में सैनिकों की सलामी ली.
साल भर बाद फिर शुरू हो गया 'शीत युद्ध' :
राजेंद्र प्रसाद के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद वल्लभभाई पटेल पार्टी के अंदर पहली 'सियासी लड़ाई' जीत चुके थे, लेकिन मामला यहीं खत्म नहीं हुआ. कुछ दिनों बाद 'शीत युद्ध' का दूसरा चैप्टर शुरू हुआ. 1950 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव होना था. सरदार वल्लभभाई पटेल ने नेहरू के गृह शहर इलाहाबाद (अब प्रयागराज) से ताल्लुक रखने वाले वरिष्ठ नेता पुरुषोत्तम दास टंडन का नाम आगे कर दिया. जबकि जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) इसके खिलाफ थे. इसकी वजह यह थी कि पुरुषोत्तम दास टंडन की छवि एक धुर दक्षिणपंथी नेता की थी और वे कांग्रेस के सांप्रदायिक खेमे के साथ खड़े नजर आते थे. नेहरू पहले भी कई मौकों पर टंडन की आलोचना कर चुके थे और अब वही शख़्स पार्टी का अध्यक्ष बने, यह उन्हें कतई पसंद नहीं था, लेकिन नेहरू के तमाम विरोध के बावजूद पुरुषोत्तम दास टंडन आसानी से चुनाव जीत गए.
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बकौल रामचंद्र गुहा इसके बाद नेहरू ने सी. राजगोपालचारी को एक पत्र लिखा. जिसमें उन्होंने कहा, 'टंडन का कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर चुना जाना मेरे पार्टी या सरकार में रहने से ज्यादा महत्वपूर्ण समझा जा रहा है. मेरी आत्मा कह रही है कि कांग्रेस और सरकार दोनों के लिए अपनी उपयोगिता खो चुका हूं'. बाद में नेहरू ने राजाजी को एक और पत्र लिखा और कहा कि 'मैं अपने आप को थका हुआ महसूस करता हूं. मैं नहीं सोचता की आगे संतुष्ट होकर कार्य कर पाऊंगा'. बाद में राजाजी यानी सी. राजगोपालचारी ने दोनों नेताओं या यूं कहें कि धड़ों के बीच सुलह कराने की कोशिश की और पटेल नरम रुख अख़्तियार करने पर तैयार हुए.
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