हम आज जिस चंद्रमा (Moon) को देख रहे हैं वह कभी पिघली हुई चट्टान का एक जलता हुआ गर्म गोला था. इसरो (ISRO) की चंद्रयान-3 (Chandrayaan-3) की साइंस टीम की ओर से की गई एक बड़ी खोज में इसकी पुष्टि की गई है. टीम ने प्रज्ञान रोवर के जरिए चंद्रमा पर भेजे गए उपकरणों से हासिल किए गए पहले वैज्ञानिक परिणाम प्रकाशित किए हैं. यह ऐतिहासिक शोधपत्र बुधवार को प्रतिष्ठित ब्रिटिश वैज्ञानिक पत्रिका नेचर में प्रकाशित हुआ है. यह पत्रिका सिर्फ महत्वपूर्ण वैज्ञानिक सफलताओं के बारे में प्रकाशित करती है.
शोधपत्र के मुख्य लेखक और अहमदाबाद में स्थित भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला (PRL) के वैज्ञानिक डॉ संतोष वी वडावले ने करीब तीन दर्जन वैज्ञानिकों की टीम का नेतृत्व किया था. उन्होंने कहा कि, "चंद्रमा की मिट्टी का विश्लेषण करके हमारी टीम ने पुष्टि की है कि चंद्रमा अपने जन्म के तुरंत बाद, लगभग 4.4 अरब साल पहले चट्टान की एक पिघली हुई गेंद था."
इसे लूनर मैग्मा ओशन (LMO) हाइपोथिसिस कहा जाता है. विशेषज्ञों ने यह सिद्धांत बनाया है कि मंगल के आकार का एक ग्रहीय पिंड करीब 4.5 अरब साल पहले पृथ्वी से टकराया था. इसके कारण अंतरिक्ष में द्रव्यमान का निष्कासन हुआ था, जो फिर से एकत्रित हुआ और इससे चंद्रमा का निर्माण हुआ. वडावले ने कहा, "प्राचीन चंद्रमा पूरी तरह पिघला हुआ मैग्मा था, जैसा कि पृथ्वी के केंद्र में देखा जाता है. उसका तापमान लगभग 1500 डिग्री सेल्सियस था."
चंद्रमा की मिट्टी पृथ्वी की मिट्टी से बहुत अलग नहीं
वडावले ने कहा कि, जब भारत की दक्षिणी ध्रुव के पास शिव-शक्ति बिंदु पर लैंडिग हुई, तो इसने विश्व इतिहास रच दिया, क्योंकि कोई भी अन्य देश उस क्षेत्र में लैंडिंग नहीं कर सका था. तब यही सोचा गया था कि भारतीय वैज्ञानिक जो भी खोजेंगे उसमें नवीनता होगी. दिलचस्प बात यह है कि चंद्रमा की मिट्टी की मौलिक संरचना पृथ्वी पर देखी जाने वाली मिट्टी से बहुत अलग नहीं है. चूंकि चंद्रमा पर कोई अपक्षय नहीं है, इसलिए यह खोज सौर मंडल के गहरे ऐतिहासिक अतीत की एक झलक भी प्रदान करती है.
एनडीटीवी से बात करते हुए इसरो के चेयरमैन डॉ एस सोमनाथ ने कहा, "चंद्रयान-3 ने न केवल सॉफ्ट लैंडिंग करके भारत की तकनीकी और इंजीनियरिंग क्षमता को साबित किया है, बल्कि अब प्रतिष्ठित जर्नल नेचर में प्रकाशित इस मील के पत्थर वैज्ञानिक शोधपत्र से पता चलता है कि भारत ने शिव-शक्ति बिंदु पर दक्षिणी ध्रुव के पास चंद्र मिट्टी का पहला इन-सीटू एलिमेंटल कम्पोजीशन एनालिसिस सामने लाकर वैज्ञानिक विश्लेषण में भी सफलता हासिल की है. भारत ऐसा करने वाला पहला देश है. यह एक रोमांचक खोज है, जो भविष्य में चंद्रमा पर स्थायी निवास बनाने की संभावनाओं को खोलती है."
छह पहियों वाले 26 किलोग्राम वजनी प्रज्ञान चंद्र रोवर ने अपने 10 दिन के जीवनकाल में चांद की सतह पर करीब 103 मीटर की यात्रा की थी. वह एक सेंटीमीटर प्रति सेकंड की शानदार गति से यात्रा करता रहा था.
चंद्रमा की मिट्टी की मौलिक संरचना मापी गई
नेचर जर्नल ने एक बयान में कहा, "भारत के चंद्रयान-3 मिशन के डेटा का उपयोग करके चंद्रमा के दक्षिणी उच्च अक्षांश क्षेत्रों में चांद की मिट्टी का विश्लेषण किया गया, जो मैग्मा के एक पूर्व महासागर के अवशेषों की उपस्थिति की बात कहता है."
उन्होंने कहा कि चंद्रमा के भूविज्ञान पर पिछले शोध मुख्य रूप से अपोलो कार्यक्रम में चंद्र मध्य अक्षांशों पर मिशनों द्वारा लिए गए नमूनों पर निर्भर रहे हैं. हालांकि अगस्त 2023 में भारत के विक्रम लैंडर (चंद्रयान-3 मिशन का हिस्सा) ने चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के पास सफलतापूर्वक सॉफ्ट लैंडिंग की थी. इसके बाद प्रज्ञान रोवर ने अपने ऑनबोर्ड अल्फा पार्टिकल एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर का उपयोग करके चंद्र सतह के 103 मीटर के क्षेत्र में विभिन्न स्थानों पर 23 मेजरमेंट लिए, जिसने चंद्रमा के रेगोलिथ, यानी चंद्रमा की मिट्टी की मौलिक संरचना को मापा.
संतोष वडावले और उनके सहयोगियों ने प्रज्ञान के मापों का विश्लेषण किया और पाया कि लैंडर के आस-पास के चंद्र रेगोलिथ में अपेक्षाकृत एक समान तत्व संरचना है, जिसमें मुख्य रूप से चट्टान-प्रकार के फ़ेरोन एनोर्थोसाइट शामिल हैं. उन्होंने पाया कि चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव की संरचना माप अपोलो 16 और लूना-20 मिशनों द्वारा लिए गए चंद्रमा के भूमध्यरेखीय क्षेत्र के नमूनों के बीच मध्यवर्ती हैं. लेखकों का कहना है कि भौगोलिक रूप से दूर इन नमूनों की समान रासायनिक संरचना चंद्र मैग्मा महासागर परिकल्पना का समर्थन करती है.
चंद्रमा पर खेती हो सकती है संभव
इस परिकल्पना के अनुसार जब चंद्रमा अपने निर्माण के दौरान ठंडा हुआ तो कम घनत्व वाले फ़ेरोन एनोर्थोसाइट चंद्रमा की सतह पर तैरने लगे, जबकि भारी खनिज नीचे डूबकर मेटल बन गए. डॉ वडावले और उनके सहयोगियों का कहना है कि मैग्नीशियम खनिज को प्रज्ञान द्वारा भी खोजा गया है. इसे चंद्र मैग्मा महासागर परिकल्पना द्वारा समझाया नहीं जा सकता है. यह संभवतः पास के दक्षिणी ध्रुव-ऐटकेन प्रभाव द्वारा उत्खनित गहरे पदार्थ हैं.
लेखकों ने निष्कर्ष निकाला है कि विक्रम के लैंडिंग स्थल की संरचना एलएमओ परिकल्पना के अनुरूप है. यह भविष्यवाणी करती है कि चंद्रमा के ऊंचे क्षेत्रों का निर्माण हल्की एनोर्थोसिटिक चट्टानों के तैरने के परिणामस्वरूप हुआ था.
चूंकि चंद्रमा की मिट्टी पृथ्वी पर देखी जाने वाली मिट्टी से बहुत अलग नहीं है, इसलिए चंद्रयान-3 की ऐतिहासिक खोज से चंद्रमा पर खेती करने के लिए उसी चंद्र रेगोलिथ का उपयोग करने का आकर्षक अवसर मिलता है. जैसा कि स्थायी रूप से बसे होने पर किया जा सकता है.
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