मैसूर के मशहूर शाही दशहरा (mysore dussehra ) की भव्यता पर भी कोरोना का असर पड़ा है. इस बार हाथियों की सवारी शहर के रास्तों पर नही निकाली जाएगी. इसे देखने के लिए पांच किलोमीटर के रास्ते पर देसी विदेशी लाखों सैलानियों के हुजूम इकठ्ठा होता था.
आय़ोजकों का कहना है कि सदियों पुरानी परंपरा न टूटे इसलिए जंबो सवारी इस बार मैसूर राजमहल परिसर में ही निकाली जाएगी. इसके बाहर जुलूस की इजाजत प्रशासन ने नहीं दी है. पूजा भी पुराने रस्मोरिवाज की तरह राज परिवार मुख्यमंत्री और दूसरे जाने-माने लोगों की मौजूदगी में होगी. हालांकि पहले जैसी भव्यता नहीं होगी. मैसूर राजमहल यानी वाणी विलास पैलेस में शाही दशहरे की तैयारी चल रही है. कोरोना वायरस की वजह से पूरे शहर में होने वाले कार्यक्रम को मैसूर पैलेस में सीमित कर दिया गया है. व्यापारी भी निराश है और स्थानीय लोग भी इस बार मायूस हैं.
750 किलो का सोने का सिंहासन
शुद्ध सोने से बना 750 किलो का ये सिंहासन और इसमे विराजती माता चामुंडेश्वरी की सवारी इस दशहरे की शान कहलाती है. मुख्य पूजा मुख्यमंत्री करेंगे. इसके बाद हाथी और दूसरे घोड़े जानवर पैलेस के अंदर ही परिक्रमा करेंगे और इसी के साथ दशहरा जश्न यहीं खत्म हो जाएगा. लोगों का कहना है कि पिछले 62 सालों से मैं इसे देखता रहा था इस बार नहीं देख पाऊंगा यह हमारी बदनसीबी है.
दशहरे का इतिहास 400 पुराना
मैसूर दशहरा का इतिहास तक़रीबन 400 पुराना है. विजयनगर साम्राज्य के वक्त 16वी सदी में श्रीरंगापट्टनम में विजयनगर साम्राज्य के प्रतापी राजा कृष्ण देव राय ने की थी. जब सत्ता विजयनगर साम्राज्य से वोडेयार घराने के पास आई और राजधानी मैसूर बनाई गई तो दशहरा मैसूर पहुंच गया.
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