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This Article is From Jun 06, 2018

उपन्यासकार सुरेंद्र मोहन पाठक से NDTV की खास मुलाकात

उपन्यासकार सुरेंद्र मोहन पाठक कहते हैं कि हिंदी के पाठक बढ़ नहीं रहे हैं. जो हैं वो कमिटेड पाठक हैं. पहले से हिंदी के रीडर बने हुए हैं वहीं कमिटेड है वो पढ़ते चले आ रहे हैं.

उपन्यासकार सुरेंद्र मोहन पाठक से NDTV की खास मुलाकात
सुरेंद्र मोहन पाठक.
नई दिल्ली: सवाल - हिंदी का लेखक रायल्टी कै पैसे से टैक्स भरता है, ये बात कैसी लगती है आपको? 
पाठक - भईया, हिंदी के लेखक की अभी इतनी औकात नहीं बनी और बनती भी नहीं दिख रही कि वो रायल्टी के पैसे से अपने घर  बार चला सके  रोजी रोटी चला सके यह हिंदूस्तान में अभी भी पासिबल  नहीं है. ये अंग्रेजी के राइटर हैं चेतन भगत, अमिष त्रिपाठी जैसे जो बहुत पैसा कमा रहे हैं, हिंदी में कोई ऐसा नहीं है कि जो रायल्टी के दम पर अपना घर बार चला ले, बच्चों को पढ़ा ले, और वो भी एक स्टाइल आफ लिविंग  होता है अर्बन लाइफ स्टाइल वो अफोर्ड कर सके , मेरी निगाह में एक भी हिंदी का सिंगल राइटर नहीं है ऐसा.. मैं हूं संयोगवश  हूं, ...लेकिन मैं इकलौती मिसाल हूं. आदि काल से मैं देखता चला आ रहा हूं बड़े  बड़े लेखक मोहन राकेश, कमलेश्वर कितने ही राइटर ऐसे ही  थे जो नौकरियां करते थे साथ में, नौकरी चाहे अपने ट्रेड से रिलेटेड  ही है, कोई एडिटर है, कोई कंसल्टेंट है कोई मैगजीन निकालता है , कोई  पब्लिशर के पास काम करता है, चाहे वो अपना ट्रेड रिलेटेड काम ही करते थे लेकिन करते थे, इतनी इंडेपेंडेस किसी राइटर में नहीं थी कि वो ये कहे  कि मैं पैसा बहुत कमाता हूं. मेरे को किसी  सप्लिमेंट्री इनकम की जरूरत नहीं है. शरद जोशी थे जो भोपाल हेवी इलेक्ट्रिकल्स में आफिसर थे , उन्होंने नौकरी छोड़ी थी लेकिन  वो भी तब छोड़ी थी  जब वो रिटायर होने वाले थे, चेतन भगत का नौकरी छोड़ना छोड़ना है...ये सारा मेला चकाचौंध है वो अंग्रेजी के लिए  है हिंदी के लिए नहीं है, आप बताइये है कोई ऐसा राइटर.

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सवाल - हिंदी का जो पब्लिशिंग बिजनेस था वो आर्गनेइज्ड नहीं था, उन्होंने लेखकों को प्रोमोट नहीं किया और उन्होंने ठीक से सामान नही बेचा...
पाठक - देखिए हिंदी के पाठक बढ़ नहीं रहे हैं.. जो हैं वो कमिटेड  पाठक हैं. पहले से हिंदी के रीडर  बने हुए हैं वहीं कमिटेड है वो पढ़ते चले आ रहे हैं, हिंदी की नई रीडरशिप नहीं पैदा है रही है , इंटरनेट ने केबल ने लोगो की रीडींग हैबिट्स लोगो की बहुत खराब की है, लोग किताब को हाथ ही नही लगाना चाहता, पिज्जा कल्चर इतनी पापुलर हो गई है कि मां बाप  बच्चों को पिज्जा की किस्में बताते हैं, नए से नए रेस्टोरेंट में लेकर जाते हैं वहां आओ वहां फलाना  चीज मिलती है, बच्चे सब कुछ जानते हैं  सब  वे में ये मिलता है  लेकिन किताब के बारे में कोई नहीं जानता क्योंकि मां  बाप ही नहीं  जानते तो औलाद को कैसे ओरिएंट  करेंगे. तो हिंदी की रीडरशिप जो है ना वो मल्टीप्लाई नहीं हो रही है, अंग्रेजी की मल्टीप्लाई हो रही है, इसलिए कि अंग्रेजी की किताब पढ़ना फैशनेबल बन गया है, बगल में दबा के इंग्लिश की किताब पढ़ना, एयरपोर्ट पर देखो हिंदी का नोवेल कोई पढ़ता है, अव्वल तो कोई पढ़ता नहीं है पढ़ता है तो अंग्रेजी का नोवेल पढ़ता है 

सवाल - लेकिन आपके नोवेल मैंने एयरपोर्ट पर देखे हैं 
पाठक - अब, जब हार्पर में छपे हैं, हार्पर में छपने से पहले ये एक्सेसबिलिटी हमारे दूसरे पब्लिशर को नहीं थी 

सवाल -  जब हिंदी के पाठक थे, अस्सी और नब्बे का दशक था, पल्प फिक्शन का बाजार था, हिंदी साहित्य जिसे गंभीर साहित्य कहते हैं उसके प्रकाशकों ने  या पल्प के प्रकाशकों ने उनलोगो ने कोई ऐसी कोशिश नहीं कि हिंदी साहित्य का बाजार बने 
पाठक - जो गंभीर साहित्य के पाठक हैं उन्होंने पाकेट बुक्स के प्रकाशकों को हमेशा रिडिक्यूल किया है और ये कहा है कि ये होना ही नहीं चाहिए, डेमोक्रेसी में क्यों नहीं होना चाहिए इसका जवाब किसी के पास नहीं है क्योंकि वो उसकी इंमेंस पापुलरिटी से कुढ़ते हैं हिंदी के साहित्य की किताब एक हजार कापी छपती है दस साल में खतम नहीं होती, सवा सौ आबादी वाला हमारा मुल्क है ये शर्मनाक बात नहीं है कि हिंदी का पब्लिशर एक हजार बायर नहीं ढूंढ सकता, इतने बड़े मुल्क में, उसको एक हजार खरीदार  किताब के नहीं मिलते, दस साल किताब खतम नहीं होती, अवेलेबेल है तो लाइब्रेरी में वहां से कोई इश्यु कराए तो पढ़ेगा नहीं तो इग्नोरड पड़ी है पब्लिशर ने पैसे कमा लिए लाइब्रेरी में भी रखेगा तो पैसा तो मिलेगा न लेकिन आगे पढ़ने वाला कोई नहीं है, साहित्यकार के और पाठक के बीच में दीवार बन कर तो खुद उसका पाठक खड़ा है. हमारा पब्लिशर रीडर  को कंज्यूमर मानता है ये जैसे कंज्यूमर प्रोडक्ट है पेप्सी है, कोलगेट है, ऐसे किताब को सबस्क्राइब करे, पैटर्नाइज करे उनकी ऐसी कोशिश है ही नहीं जब आप सौ पेज की  किताब की ढाई सौ रुपये कीमत रखेंगे तो ग्राहक कहां से आएगा मेरी तीन सौ पेज की किताब  सौ रुपये में छपती है .. जो पाकेट बुक का पब्लिशर है वो साहित्यिक किताब छाप सकता है, साहित्यिक किताब छापने वाला ऐसी किताब नहीं छाप सकता है...उनकी चैनल ही नहीं पाठक तक पहुंचाने  वाली.  वो किताब छापते ही हैं इस निगाह से  कि या तो पुस्तक मेलों में बिकनी है या लाइब्रेरी में जानी है, दो ठिकाने तो बने हुए हैं .. उनकी रिटेल सेल तो नहीं है, मेरा पाठक तो बुक स्टॉल पर जाकर पूछता है  मेरी नई किताब आई कि नहीं आई?उनका पाठक वाणी का राजकमल का, राजपाल का पूछता है कि नई किताब आई कि नहीं आई .. इनकी किताब का बुकस्टाल पर तो कोई मतलब ही नहीं है .. आप रीडर को पैटर्नाइज करना चाहते हैं कि नहीं... सवाल ये है ना.

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सवाल - पल्प के जो हिंदी में पब्लिशर हैं उनमें कौन अच्छा  काम कर रहे हैं?
पाठक - पाकेट बुक इज डूम्ड ट्रेड., पहले तो ये डिमिनिशिंग ट्रेड था,अब ये डिमिनिश्ड ट्रेड है... 80 और 90 के दशक में साठ सत्तर पब्लिशर थे हर हफ्ते दर्जन किताबें  मार्केट में होती थीं... इतना बड़ा था, सबने चांदी काटी बहुत  पैसा कमाया अब सिर्फ एक पब्लिशर राजा पाकेट बुक्स दिल्ली में है और एक रवि पाकेट बुक्स मेरठ में है सारे पब्लिकेशन बंद हो गए.  पाकेट बुक्स की किताबों की खासियत होती थी कि उसकी प्रिटिंग लो कास्ट होती थी और प्रिंट आर्डर बड़ा होता था, वो ज्यादा कमाते थे... अब तो 300 कापी छापते हैं, ये कोई अच्छी बात थोड़े है, शर्मनाक बात है, सारे विश्व में बुक ट्रेड फ्लरिश कर रहा है... ये जो डिजिटल  बुक्स का फॉरेन में ट्रेड पर असर क्यों नहीं है, इंडिया में हाय हाय हो रही है ... नहीं जी ...ई- बुक सस्ती मिल रही है तो हार्ड कॉपी कौन लेगा, दलील ही गलत है ...आपको पता है इंटिरियर डेकोरेशन में  किसी डेकोरेटर को कांट्रैक्ट दे तो आपको इंटिरयर डेकोरेशन में बुक्स की जगह बतायेगा कि आप पढ़ो या मत पढ़ो.. मतलब बुक इंटिरियर डेकोरेशन का पार्ट बन चुका है कि किताबें आप यहां लगाओ, पढ़नी है कि नहीं पढ़नी है इससे मतलब नहीं है  बुक की इतनी महिमा है. लेकिन हमारे यहां तो नहीं है. बंगाल  में जाओ घर घर किताब दिखाएगी , केरल में जाओ, महाराष्ट्र में जाओ, नार्थ इंडिया में नहीं है , राष्ट्रभाषा हिंदी.. है आप मानते हो ... 


सवाल - इस मोहल्ले में कितने लोग जानते हैं कि हिंदी का बड़ा उपन्यासकार इस मोहल्ले में रहता है, 
पाठक - कोई भी नहीं जानता, पिछले दिनों जनसत्ता में फोटो छपी, इंडियन एक्सप्रेस में तो एक दो जनों ने पहचान लिया लेकिन उन्होंने मेरे को नहीं कहा गार्ड को कहा .. एक बंदा नहीं जानता, मेरे घर में मेरे रीडर वनहीं है,.. मेरे बेटे और बेटियां मेरी किताबें नहीं पढ़ते, किताब का दुख होता है मेरे को..  किताब जैसी कोई शै नहीं है...

सवाल - आप खुद  क्या पढ़ते हैं...
पाठक - पहले मैं आपको  मार्क ट्वेन का कोटेशन बताता हूं  'ए पर्सन हु डज नाट रीड हैज नो एडवांटेज आन ए पर्सन हू कैननॉट रीड.. जो आदमी पढ़ता नहीं है उस शख्स से किसी कदर बेहतर नहीं है जो पढ़ सकता नहीं है ..' फिर क्या फायदा इलिट्रेट  वाली बात है ना, ना पढ़ सकना ... जिस घर में किताब  नहीं है वो ऐसे जिस्म की तरह है जिसमें आत्मा नहीं है ... अब ये वेस्टर्न थिंकिंग है न... मेरा ताया मुझे पीट देता था  किताब पढ़ने के लिए... सिगरेट पीना, ताश खेलना और नोवेल पढ़ना एक लेवल के अपराध थे. मैं इतना अडिक्ट हूं पढ़ने का जिस लिफाफे में मुंगफली खाउं तो लिफाफा भी पढ़ कर फेंकता हूं, मेरे तो  जो हाथ में आए वहीं पढ़ता हूं वैसे मेरे फर्स्ट च्वाइस तो वही नोवेल्स हैं जैसी मैं खुद लिखता हूं, लेकिन पढ़ता मैं हर किताब हूं, जो भी किताब चर्चा का विषय बन जाए  जैसे 'इश्क में शहर होना' , मेरा रवीश जी से कोई लेना देना नहीं इस तरह की राइटिंग से कोई लेना देना नहीं लेकिन मैं वो किताब इस लिए लाया क्योंकि चर्चित  पुस्तक है हर कोई उसका जिक्र कर रहा है तो मुझे मालूम होना चाहिए उसमें क्या है... तो मेरी ये एट्टीट्यूड है आज की तारीख में, मैं ज्यादा नहीं पढ़ पाता .. कुछ विजन की प्रोब्लम है ...अभी  कैट्रेक्ट का आपरेशन कराया सुधरने की बजाए बिगड़ गई है, मे आई गेट ब्लाइंड बाई राइट आई, तो पढने में और तरह का प्रेशर ...

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सवाल - आजकल आपकी दिनचर्या क्या है? 
पाठक - सबेरे उठता हूं तो चाय वाय पीता हूं, अखबार जरूर पढ़ता हूं,  नहाता जरुर हूं, जीवन का कोई एक दिन नहीं याद है जब मैं नहीं नहाया हूं... उसके बाद ग्यारह बजे यहां आ जाता हूं और सोने के टाइम तक यहीं रहता हूं... रात का खाना नहीं खाता, दोपहर में चलते फिरते खा लेता हूं, टिक के बैठ के लंच  नहीं करता, नाश्ता भी नहीं करता...डॉक्टर के पास गया मैंने कहा भूख नहीं लगती ... तो कहा कितना वजन घट गया है, मैंने कहा वजन तो नहीं घटा, बॉडी को जितनी  जरुरत है उतनी पूरी हो रही है तो तुम्हें भूख लगने से ना लगने से क्या परेशानी है ...चिकेन और आमलेट का शौकिन हूं लेकिन बहुत पहले छोड़  दिया.. मेल बड़ी आती है उसका जवाब दे रहा था, रीडर मेल भेजते हैं., जो बड़ी अच्छी होती है लिखने में एक्सप्रेसिव होता है उसकी एक कॉपी  निकाल कर रख लेता हूं... जब मैं अपना प्रिफेस लिखता हूं उसी में चिठ्ठी के बारे में भी  बताता हूं...दुबारा रिप्रोड्यूस करने के काबिल लगे वही लिखता हूं...रोज दस बारह चिठ्ठियां आती है, पहले तो मैंने  पोस्ट बॉक्स लिया हुआ था, जब हफ्तों जाता नहीं था तो  पोस्टमैन घर पर आता था कि भाई उसमें जगह नहीं है भर गया है खाली करो इतनी चिठ्ठियां आती थी, मेरी जिद है कि हर चिठ्ठी का जवाब देता हूं चाहे गालियां  क्यों ना हो...

सवाल - आपने अपनी आत्मकथा  में वेदप्रकाश काम्बोज और ओमप्रकाश शर्मा  का जिक्र किया है..
पाठक - वेद और मैं  एक बेंच पर बैठते थे स्कूल टाइम में हायर सेकेंड्री तक इकठ्ठे पढ़ें हैं,  वो फ्रेंड ज्यादा है फेलो राइटर कम है, मेल मुलाकात नहीं होती बात तो होती है जब तक किशन  नगर में था ज्यादा मुलाकात होती थी, ओमप्रकाश शर्मा मेरठ रहते थे, मेरे से 17 साल बड़े थे वो चमचागिरी थी,  ही वाज एन एस्टैबलिश राइटर आई वाज एन सट्रग्लिंग राइटर तो उनके दरबार में हाजिरी भरने से लगता था कुछ एडवांटेज  मिले नहीं तो साठ सत्तर किलोमीटर मेरठ कौन जाए... मैं झूठ नहीं बोलता .. काम कोई होता नहीं था शाम को उनकी एक जमात बैठती थी महफिल बाजी में उसमें शामिल होने में चार पब्लिशर आते हैं शायद मेरे को भी कोई आफर करे कि नोवेल लिखे...मेरी तो चलती ही नहीं,  पब्लिशर की प्रोब्लम आज भी है, इतने नोवेल लिख चुकने के बावजूद मेरे पांव जमे नहीं है, नोवेल टू नोवेल  का कोई भरोसा नहीं छपेगा कि  नहीं कहा छपेगा.. इतना नेम और फेम हासिल करने के बाद भी मेरे इस धंधे में पांव मजबूती से जमे नहीं है.. 

सवाल - पाकेट बुक्स के ट्रेड में जो घोस्ट राइटर थे उनमें सबसे अच्छा कौन था ? 
पाठक - सबसे अच्छा तो नहीं बता सकता क्योंकि उसके लिए तो उसका रीडर होना पड़ेगा, सबसे ज्यादा चला कौन ये बता सकती हूं... इस धंधे में ऐज ए घोस्ट राइटर सबसे ज्यादा नाम कमाया है तो कर्नल रंजीत ने कमाया है. मख्मुर नाम था उनका मिलाप में नौकरी करते थे , पत्रकार थे, कई सालों तक हिंद पाकेट बुक्स  ने खबर नहीं  लगने  दी कि ये असली नाम नहीं है , फिर एक संडे  मैगजीन छपती थी कलकत्ता से उन्होंने एक लीड स्टोरी छापी 'हु इज  कर्नल रंजीत' . सारी पोल पट्टी खोल दी, मख्मुर की फोटो भी छाप दी, उसका बयान भी छाप दिया कि मैं हूं कर्नल रंजीत...

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सवाल -  नब्बे के दशक में हिंदी के किसी मैगजीन का ध्यान गया पाकेट बुक्स राइटर का 
पाठक - पाकेट बुक्स पर कोई नोटिस भी नहीं लेता था, बड़े अखबार है आजकल जैसा नोटिस लेतै है, इंडियन एक्सप्रेस के दफ्तर में आठ जनों  ने मुझे ग्रिल किया घेर कर के उनके सिनियर एडिटोरियल  स्टाफ ने... तब कोई ऐसा नहीं था...पहले कौन परवाह करता था  पाकेट बुक्स राइटर का ...

सवाल - आप  मानते हैं कि आप क्राइम के बारे में लिखते हैं 
पाठक- क्राइम तो एक जरिया है ... बात कहने का .. क्राइम के बारे में क्या लिखना? मैं किसी को डकैती या मर्डर तो नहीं सीखाता न, मैं तो उसकी ग्राफिक डिटेल में तो नहीं जाता कि कत्ल करना है तो ये ये तैयारी कर लो क्राइम तो एक  पात्र  है जिसमें .. एक बुनियाद है, एक खुंटी है जिसमें मैं अपनी कहानी टांगता हूं. कत्ल क्लिनिकल मामला है, ग्राफिक डिटेल में कभी नहीं गया मैं ...

सवाल - आप उपन्यासों के कवर भी बनाते थे? 
पाठक - कवर खुद बनाता था, लेकिन जब धंधे में मेरे पांव मजबूत हो गए तो बनाना छोड़ दिए. मैंने सौ बुक्स के कवर बनाए हैं. एक कवर बनाने के बीस रुपये मिलते थे... 

सवाल - अपने ही बनाये कैरेक्टरों में आपका  फेवरेट कैरेक्टर कौन है ...
पाठक - मेरा फेवरेट  तो सुनील है क्योंकि मेरे को बड़ी खुशफहमी है कि  मैं ही सुनील हूं. बाकियों पर तो मेरे को एफर्ट करना पड़ता है .. सुनील लिखता हूं तो लगता है कि अपने आप को ही लिख रहा हूं, अपनी आत्मकथा डिस्क्राईब कर रहा हूं, जो भाषा मैं बोलता हूं वो सुनील की वही  भाषा मैं बोलता हूं. बाकियों मे मेरे को नोट्स बनाने पड़ते हैं , नोट्स बना के रखना पड़ता है सुधीर का नोवेल लिखुंगा तो ये ये बाते लिखुंगा...(डायरी  निकालते हैं दिखा देते हैं...बंदूक का विवरण लिखा है,  डुप्लीकेट हथियारों के रेट लिखे हैं ) इसमें फिंगर प्रिंटस् के बारे में हैं जो भी बात मेरे मतलब की दिखाई  देती है उसे छोड़ थोड़े देता हू, जैसे ये देखिए कि दिल्ली पुलिस में कितनी डिस्ट्रिक्ट्स हैं, इन बातों से आथेंटिसीटी आती है , मेरी किताबों को लोग प्रामाणिक जानकारी मांगते हैं...मुझे कैसे पता लगेगा कि ग्लौक कौन सी गन होती है , 9 एमएम कौन सी गन हौती है, मेरा कौन सा जरिया है जानने का.  पौने दो लाख की पिस्टल आती है, वो मैं खरीद कर थोड़े रखूंगा...

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सवाल - तो अब आपको लग रहा है सर कि साठ साल आपने राइटिंग में बिताए है तब जाके आपको तवज्जो देना शुरु किया, कोई मलाल है आपको?
पाठक - मलाल तो कोई नही है अच्छा ही चला, पैसा भी ढेर कमाया लेकिन ये जो एक ठप्पा जो लुगदी वाला लगा हुआ है ये तो नही हटता ना. ये तो बड़े महन्तो ने एक साजिश बना ली है एक फर्क बना के रखने के लिए कि मैं उजला तू काला,इसको लुगदी साहित्य का नाम दे दिया है जो कि गलत है. लुगदी वो पेपर है जिसपे किताब छपती है. राइटर थोड़े लुगदी है... उसका कंटेट तो लुगदी नही है ना... केवल मीडियम लुगदी है और लुगदी की ही ये महिमा है कि किताब घर घर पँहुची क्योंकि लुगदी कागज सस्ता होता है उसकी वजह से किताब की कीमत कम होती है, उसी की महिमा है कि किताब घर घर पँहुची.

सवाल - आपने अपनी आत्मकथा में लिखा है वेदप्रकाश शर्मा और आपके बीच
पाठक - वेदप्रकाश शर्मा  गुज़र गया है बेचारा कम उम्र में मैं कुछ कहना नही चाहता. इसमें कोई शक नहीं है कि 90 के दशक का  जो हिस्सा था उसमें उसनें बहुत नाम कमाया लेकिन उस नाम की किसी ने सर्जरी नहीं की कि क्यूँ कमाया? उसके नाम कमाने के पीछे वजह थी कि उस दौर में जब राइटर की किताब 200 पेज की छपती थी सेम प्राइस में इसकी किताब 300 पेज की छपती थी और लुगदी में भी कुछ कागज़ सुपीरियर होते थे जिनका वेट ज्यादा होता था, मोटे कागज़ पे छपाई अच्छी आती थी,संयोग से उसे पब्लिशर ऐसा मिला जिसने दिल से किताबें छापी और उसका नेटवर्क बहुत बड़ा था. सारी बातों का बेनेफिट उसको मिला.

सवाल - सर उनसे आपका कुछ संबंध था कुछ बातचीत होती थी
पाठक - बातचीत थी जब वो खुद किताब छाँपने लग गया तुलसी तो मेरी किताब भी छापनें लगा तो ऐज़ ए पब्लिशर घर आते थे. ऐज़ ए राइटर तो नहीं,मैं खुद ही कह रहा हूँ कि कोई बुरी बात नहीं कहनी चाहिए, उसका एक अपना तरीका था अपने आपको प्रोमोट करने का जो कोई कांशश वाला बंदा नहीं कर सकता.  

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सवाल - तो सर किसी फिल्म बनाने वाले नें आपसे संपर्क नहीं किया?
पाठक - बहुत करते हैं अपनी शर्तें बताते हैं किताब खरीदनें की जगह राइटर खरीदना चाहते है,हमें नही मंज़ूर. फाक्स स्टार वाला तो वकील साथ ही लेकर आ गया अभी कांट्रेक्ट करो, चैक रख दिया मेरे सामनें विमल के नोवेलों का फिर 42 नोवलों का,5 लाख रुपये. मैनें कहा कि पागल हो गया है कि 200 साल लगते हैं 42 नोवलों पर फिल्म बनाने में. मैनें कहा जब फिल्म एक बनानी है तो 42 नोवेल क्यूँ कब्जे में कर रहे हो? नहीं कैरेक्टर की वजह से कहीं आप दूसरों को न दे दो. मैनें कहा कि फिर 42 नोवेल के पैसे दो ना, आप तो 1 नोवल के दे रहे हो ना जिसपे फिल्म बनानी है बाकी फोकट में कमिटमेंट चाहिए तुम्हें, मना कर दिया मैनें.   

सवाल - आपने अपनी कॉपीराइट अपने साथ रखी,इससे आपको फायदा क्या हु्‌आ सर
पाठक - 4 times I have gone to the high court,4 times I have gone to high court against publishers,वो कई बार कहते हैं कि क्या पिद्दी क्या पिद्दी का शोरबा,हमारे से लडेगा. मैनें कहा भाई हमारे हक़ की बात है, तुम धोखा दोगे तो कहीं तो मुझे अपील करनी पड़ेगी I won 4 times, I  lost lot of money. हाईकार्ट का वकील बहुत पैसे लेता है लेकिन मैंने अपना हक़ नहीं छोडा, आप पूछ रहे हो कापीराइट होल्डर होने का फायदा, मेरी '57 साल पुराना आदमी'  22 बार छपी मुझे 22 बार पैसे मिले ये है फायदा. अगर मैं क]पीराइट होल्डर ना होता तो यही फायदा पब्लिशर उठाता...अगर मेरा नोवेल छापना है तो मेरे पास ही अवेलेबल है मेरे पास ही आना पड़ेगा। वेदप्रकाश शर्मा के नोवेल मार्केट में मिलते हैं किसी दूसरे पब्लिशर से खरीद लो.

सवाल - तो सर आप क्या पॉकिट बुक्स या इस तरह के उपन्यास लेखन का कोई फ्यूचर देखते हैं ?
पाठक - भई नया राइटर कोई पॉकिट बुक के ट्रेड में आ ही नहीं सकता जब पब्लिशर ही नही है. पॉपुलर राइटिंग में ये है ना कि वो उनको पास नहीं फटकने देता नए राइटर को. एक फर्क मैं आपको समझाता हूँ. इंग्लिश का धंधा ऐजेंट के थ्रू चलता है मतलब मैनें एक इंग्लिश का नॉवल लिखा है  तो मुझे प्रकाशक को नहीं एजेट को एप्रोच करना पड़ेगा... 10% लेते है या कितना मुझे नही पता... तो अब जो फुटवर्क करना है वो लिट्रेरी एजैन्ट को करना है. वो एक पब्लिशर को स्क्रिप्ट दिखाता है वो कहता है हमारे काम की नहीं वो दूसरे को दिखाता है तीसरे को दिखाता है, चौथे, पाँचवे, छठे को. इंग्लिश में बहुत पब्लिशर है कहीं भी छप जाती है,या नहीं भी छपती तो सॉरी बोल देता है. ही ऑल्सो लूज़्ड हिज़ मनी एन्ड  एफर्ट्स. इंग्लिश का तो ये सिलसिला है.  राइटर को ये सिर नहीं फोड़ना कि कैसे किताब छपवाऊँ?  हिन्दी में ये सिस्टम है नही.
  
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सवाल - लेखक जाए कहाँ?
पाठक - लेखक जाए कहाँ,लेखक के पास एक आल्टरनेटिव ये बचता है कि वो खुद इनवैस्ट करे किताब पर. अमिष त्रिपाठी जैसे ने अपनी पहली किताब खुद छापी थी, खुद छापी, किताब पॉपुलर हो गई, ई-बुक्स पर उसने पोस्ट की थी, वो किताब पॉपुलर हो गई तो वैस्टलैंड ने खुद ऑफर की, वो किताब छाप ली. वो किताब बहुत चली उसको भी 5 करोड रुपये दिए थे वैस्टलैंड ने. मिलते ही मर्सडीज़ खरीदी. उसको पूछा था अभी न्यूज़पेपर नेे इंटरव्यू में कि पाँच करोड का क्या किया, कहने लगा कि सबसे पहले मर्सडीज़ खरीदी.

सवाल - तो आप ये लिखते रहे और नौकरी करते रहे हैं.
पाठक - नौकरी पूरी इमानदारी से की एक साल की मेरी तनख्वाह जो थी मेरे एक नोवेल की फीस से कम थी फिर भी नौकरी की.   

सवाल - आपने कहा सर कि आप हलवाई की तरह हैं,तरह तरह की मिठाईयाँ बनाते है
सवाल -  वो इसलिए कहते है कि आपने इतने सारे हीरो क्यों खडे़ कर लिए मैंने कहा कि मैं कंपीटीटीव ट्रेड में हूं मेरी एक चीज नहीं चल रही है उस पर से फोकस हट रहा है तो मैं दूसरी क्यों ना बनाउं! 

सवाल - तो पाठक आपका पीछा करते हुए यहाँ तक आते हैं इस मुकाम तक
पाठक - अब तो बहुत आते हैं..  जब से ये लिटरेरी फेस्टिवल शुरु हुए हैं ना तब से राइटर की थोडी औकात इम्प्रूव हुई है

सवाल - और वहाँ वाले घर पे ज्यादा आते थे या यहाँ ज्यादा आते हैं
पाठक -  वहांँ का तो मेरे पास सॉल्यूशन था ना घर आए तो बीवी को बोल देता था कि ऑफिस का पता बता दें...वहां आ जाएं सरकारी टाईम खराब हो घर पर  ना आए. यहाँ आते है लेकिन वो ही आ सकता है ना यहांँ जिसको मैं बुलाऊँ. वहाँ तो लोग बिना बुलाए आ जाते थे रात के 11-12 बजे आ गये 3-4 जने. 

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सवाल - ये तो रहता है ना कि पाठकों के बीच में घिरा रहे लेखक
पाठक - ना जी ना मेरी ऐसी कोई तमन्ना नही है. आई में नोट बी ए गुड राइटर बट आई एम ए वेरी सिनसियर राइटर, मैं डंडी नही मारता, मैं रुपये का 15 स्टाक नही डोलता. मेरा एक मेयार है, जब तक कोई चीज़ मुझे ही अच्छी नहीं लगती मैं उसको छपने कैसे भेज सकता हूँ. मैंने आधा नोवेल फाड़ कर फेंक दिया... रद्दी है. जो चीज मुझे नहीं जंच रही तो उन्हें कैसे जंचेगी.  लोग नही अफार्ड कर सकते. वो कहते है छपने दो यार अगली बार ज्यादा मेहनत कर लेंगे, मैने नही किया ये...जरा सी जिंदगी बाकी है आजकल अपने आँखों से परेशान हूं, दोनों आँखों  में कैट्रेक्ट था आजकल में सर्जरी कराई है, एक आंख तो सुधर गई है एक पहले से ज्यादा बिगड़ गई है बहुत अफसोस हो रहा है इस बात का.

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