नमस्कार... मैं रवीश कुमार। बिना किसी विज्ञापन या किसी ब्रांड एंबेसडर के दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला लेने के लिए भारत भर से पौने तीन लाख छात्र आ जाएं तो यह संख्या किसी भी संस्था को एक बड़े ब्रांड में बदल देने की ताकत रखती है। यह क्या कम है कि जिन छात्रों के 96 और 97 फीसदी अंक वाले छात्रों को भी दिल्ली विश्वविद्यालय में पसंद का कॉलेज और विषय नहीं मिल पाता है।
इतनी सी बात इसलिए बताई ताकि आपके ध्यान में यह बात रहे कि दिल्ली विश्वविद्यालय देश और दुनिया में एक कामयाब इदारा है। आखिर कैसे दिल्ली विश्वविद्यालय बिना अमरीकी सिस्टम का पिछलग्गू बने ऐसे छात्रों को पैदा करता रहा है, जो आज दुनिया के हर उच्चतम विश्वविद्यालय में पढ़ रहे हैं, पढ़ा रहे हैं, शोध कर रहे हैं।
बीबीसी हिंदी से शिक्षाशास्त्री अनिल सदगोपाल ने कहा है कि यह सब अमरीका के दबाव में हो रहा है, ताकि विश्वविद्यालय हिन्दुस्तान में भी अपना कैंपस खोलकर पैसे कमाए। इसका सीधा प्रस्ताव तो अमरीका की तत्कालीन विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन की तरफ से एक इंडो अमरीकी संवाद में आया और भारत ने घुटने टेक दिए।
संभव है कि अमरीका का षडयंत्रकारी एंगल हो पर उसके कुछ विश्वविद्यालय अच्छे भी है और वह सिर्फ कोर्स के कारण नहीं बल्कि संसाधन और बुनियादी ढांचे के कारण भी। बहुत हद तक स्वायत्तता के कारण भी। पिछले साल अल जजीरा की साइट पर सारा केनजियोर का एक लेख पढ़ा था, जिसमें उन्होंने दावा किया था कि अमरीका में 76 फीसदी टीचर अतिथि अध्यापक के रूप में पढ़ाते हैं और उनकी कमाई इतनी कम है कि ज्यादातर गरीबी रेखा के नीचे आते हैं।
मैं अमरीका नहीं गया हूं, तो वहां के अनुभवों को साझा करने हेतु आपका यह एंकर योग्य नहीं है। गूगलाधारित जानकारी की अपनी सीमा होती है। अब दो उदाहरण लेते हैं। बंगलोर यूनिवर्सिटी और दिल्ली के एक और अंबेडकर यूनिवर्सिटी की। बंगलौर यूनिवर्सिटी ने 2010−11 में पहले बीएससी साइंस में चार साल का पैटर्न लागू किया। 2013 से सभी विषयों में यह पैटर्न लागू किया गया है। यानी बंगलौर विश्वविद्यालय ने इसे चरणों में लागू किया। इसके अनुसार आप दो साल की पढ़ाई के बाद एसोसिएट डिग्री लेकर निकल सकते हैं। तीन साल बाद ग्रैजुएशन की डिग्री के साथ निकल सकते हैं। चार साल के बाद ऑनर्स डिग्री मिलेगी और पांचवें साल की पढ़ाई के बाद मास्टर की डिग्री मिलेगी।
रजिस्ट्रार नंजे गौड़ा का कहना है कि उनका कोर्स भी डीयू जैसा नहीं है, मगर यूजीसी की मान्यता भी हासिल है। क्या आपके मन में यह सवाल उठा कि डीयू का कोर्स अगर राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रतिकूल है, तो बंगलौर विश्वविद्यालय का क्यों नहीं है? क्या यूजीसी उस कोर्स को भी खत्म करेगी।
अब आते हैं अंबेडकर यूनिवर्सिटी की बात पर, जिसकी मिसाल एफवाईयूपी के समर्थक देते हैं। अंबेडकर यूनिवर्सिटी के किसी प्रोफेसर से बात की तो उनके अनुसार यह तुलना बिल्कुल अनुचित है। अंबेडकर यूनिवर्सिटी में जरूर चार साल का कोर्स है, मगर यह तीन और चार साल का है। न कि दो तीन और चार साल का जो डीयू में है।
आप इतिहास में एडमिशन लेते हैं और साथ में अन्य विषय पढ़ने होते हैं। तीन साल के बाद आपको आनर्स डिग्री मिलेगी। अगर आपकी दिलचस्पी एक और कोर्स में हो जाती है तो आप एक और साल लेकर चौथे साल की पढ़ाई कर सकते हैं। तब आपको डबल मेजर की डिग्री मिलेगी।
यह बेहद तकनीकि मामला है और शायद आप इतने ध्यान से सुन भी न रहे हों। लेकिन क्या यह भी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रतिकूल नहीं लगता है। कहीं ऐसा तो नहीं डीयू के खिलाफ राष्ट्रीय शिक्षा नीति के नाम पर कमजोर तर्क का सहारा लिया जा रहा है। कायदे से तो पूरे देश में एक ही शिक्षा नीति होनी चाहिए। अगर अलग-अलग विश्वविद्यालयों को अलग-अलग पैटर्न पर पाठक्रम लागू करने की स्वायत्तता है तो दिल्ली विश्वविद्यालय को क्यों नहीं है? आज के हमारे मेहमान प्रो अपूर्वानंद ने भी जनसत्ता अखबार में छपे अपने लेख में स्वायत्तता का सवाल उठाया है?
पीटीआई के अनुसार डीयू के 64 में से 57 कालेजों ने यूजीसी को सूचित कर दिया है कि वे तीन साल का पाठक्रम लागू करने जा रहे हैं। यूजीसी ने दिल्ली विश्वविद्यालय को नया निर्देश जारी किया है कि कॉलेजों को तीन साला कायर्क्रम में एडमिशन शुरू करने के लिए चिट्ठी लिखे। अब देखिये इसकी सूचना या घोषणा डीयू या उसके वीसी की तरफ से क्यों नहीं आ रही है? क्या वीसी भी अड़ गए हैं?
अब एफवाईयूपी की समाप्ति के बाद उनकी क्या स्थिति रह जाती है। उनके इस्तीफे की खबर ब्रेकिंग न्यूज़ बनकर ब्रोकन न्यूज हो चुकी है, यानी पुष्टि ही नहीं हो सकी। मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने कहा है कि वह बोलने की स्थिति में नहीं है, मगर दिल्ली की राजनीति से जुड़े और स्वास्थ्य मंत्री का इंटरव्यू छपा कि सरकार एफवाईयूपी को समाप्त करने से नहीं हिचकेगी।
आज एफवाईयूपी समर्थक सुप्रीम कोर्ट गए मगर राहत नहीं मिली। आज भी सोशल मीडिया के इस जागृत और पारदर्शी दौर में न तो यूजीसी के प्रमुख ने पौने तीन लाख छात्रों और उनके परिवारों को आश्वासन देना जरूरी समझा कि हम जो भी कर रहे हैं। नियम के अनुसार कर रहे हैं और न ही वाइस चांसलर ने सामने आकर अपनी बात रखी। सबकुछ पर्दे के पीछे से हो रहा है।
मधु किश्वर ने न्यूज एजेंसी एएनआई से कहा है कि वे दिनेश सिंह से मिली हैं उन पर इस्तीफे का बहुत दबाव है। सोमवार को स्मृति ईरानी से मिलने गए थे। दिनेश सिंह को एक घंटे तक इंतजार करवाया गया और मंत्री जी नहीं मिलीं। किरण बेदी ने भी ट्वीट किया कि क्या यूजीसी के चेयरमैन को इस्तीफा नहीं देना चाहिए और उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं होनी चाहिए। किरण बेदी के कई ट्वीट आप देखेंगे जो नरेंद्र मोदी के समर्थन में लग सकते हैं। मगर क्या वह अपने इस ट्वीट के बहाने मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी को भी टारगेट कर रही हैं। उनकी गैरमौजूदगी में पुख्ता तौर पर ऐसा कहना उचित नहीं होगा।
उधर बीजेपी समर्थित एनडीटीएफ ने मांग कर दी है कि पाठक्रम लागू करने में जो खर्च हुए हैं, प्रक्रियाओं का उल्लंघन हुआ, इन सबका पता लगाने के लिए वीसी के खिलाफ जांच होनी चाहिए। यानी इस प्रक्रिया में बीजेपी और बीजेपी समर्थक दो खेमों ने मोर्चा संभाला हुआ है। यंग इंडिया वाले छात्रों के साथ जो हो रहा है और जो पिछले साल हुआ वह क्या ठीक है?
अब यह दीर्घउत्तरीय प्रश्न बन चुका है। प्राइम टाइम के चंद लघुउत्तरीय प्रश्न है कि कोर्स का क्या हुआ? क्या होगा? और क्या इसकी सजा किसी को मिलेगी? किसे मिलेगी..यूजीसी या डीयू को या दोनों को?
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