पुस्तक में आडवाणी से जुड़े विभिन्न पहलुओं की जानकारी दी गई है।
नई दिल्ली:
बीजेपी के बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी पर केंद्रित एक किताब शुक्रवार को रिलीज होने जा रही है। पुस्तक के लेखक तीन दशक तक आडवाणी के सहयोगी के तौर पर काम कर चुके हैं। कार्यक्रम में बीजेपी सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी मुख्य अतिथि के रूप में मौजूद रहेंगे। हालांकि लालकृष्ण आडवाणी इस मौके पर मौजूद नहीं रहेंगे।
88 वर्षीय वरिष्ठ बीजेपी नेता आडवाणी के सचिव दीपक चोपड़ा ने एक बयान में कहा है, 'इस किताब को लेकर एलके आडवाणी की सहमति नहीं है और यह उनकी इच्छा के खिलाफ प्रकाशित की गई है।' पुस्तक के लेखक विश्वंभर श्रीवास्तव के नजदीकी सूत्रों ने बताया कि आडवाणी को पुस्तक की स्क्रिप्ट भेजी गई थी, ऐसे में उनके ऑफिस की ओर से मीडिया को जारी किये गये पत्र से उन्हें हैरत हुई है। उन्होंने एक फोटोग्राफ का भी हवाला दिया जिसमें आडवाणी को लेखक के साथ पुस्तक पकड़े दिखाया गया है। उनके अनुसार, आडवाणी की ओर से तब पुस्तक को लेकर कोई ऐतराज नहीं जताया गया था। ' अपने सहयोगी विश्वंभर श्रीवास्तव और उनकी लिखी पुस्तक के साथ लालकृष्ण आडवाणी।
'आडवाणी के साथ 32 साल' (32 Years with Advani) में अयोध्या में राम मंदिर के लिए आडवाणी के अभियान सहित उनकी जिंदगी से जुड़े राजनीतिक पहलुओं को समेटा गया है। गौरतलब है कि दक्षिणपंथियों द्वारा वर्ष 1992 में बाबरी ढांचा ढहाये जाने के बाद देश में सांप्रदायिक दंगे प्रारंभ हो गये थे। पुस्तक में आडवाणी से जुड़े मौजूदा विवाद, जैसे गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को संभावित प्रधानमंत्री के रूप में चुनने के पार्टी के फैसले पर इस वरिष्ठ बीजेपी नेता के विरोध को भी स्थान दिया गया है।
सितंबर 2013 में आडवाणी, पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की उस बैठक में शमिल नहीं हुए थे जिसमें मोदी को आधिकारिक तौर पर प्रधानमंत्री पद के लिए पार्टी का चेहरा घोषित किया गया था। उन्होंने बीजेपी संसदीय बोर्ड के लिखे पत्र में कहा था, 'मैंने आप लोगों से कहा था कि मैंने अपने विचार बोर्ड सदस्यों तक पहुंचाने के बारे में सोचूंगा। मैंने फैसला किया है कि बेहतर यह होगा कि मैं आज की बैठक में नहीं रहूं।'
नई पुस्तक में इस बात का खुलासा है कि आडवाणी ने सत्र में भाग लेने की योजना बनाई थी, यहां तक कि वे बैठक में जाने के लिए अपनी कार तक पहुंच गये थे लेकिन अंतिम मिनट में अपना फैसला बदल दिया। इस फैसले के बाद आडवाणी और उनके उस पूर्व शिष्य के बीच संबंधों में खटास आ गई, जिसने 2014 के आम चुनाव में 30 साल के सबसे बड़े जनादेश के साथ जीत हासिल की। आडवाणी को बीजेपी के 'मार्गदर्शक मंडल' में भी जगह नहीं दी गई, जिसे विपक्ष, पार्टी (बीजेपी) की ओर से बनाये गए 'रिटायरमेंट होम' की तरह मानता था। पुस्तक राजनीति में भाईभतीजा को लेकर आडवाणी के विरोध का जिक्र करते हुए बताती है कि वर्ष 1989 में गुजरात की गांधीनगर सीट के लिए होने वाले उपचुनाव में बेटे जयंत को मैदान में उतारने के सुझाव को किस तरह उन्होंने सिरे से खारिज कर दिया था। इस तथ्य के बावजूद कि राज्य के बीजेपी नेताओं ने संभावित आसान जीत को लेकर आश्वस्त किया था।
पुस्तक बताती है कि वर्ष 1977 में जब आडवाणी को मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली सरकार में सूचना-प्रसारण मंत्री बनाया गया तो रिपोर्ट के अनुसार, शपथ लेने के तुरंत बाद ही वे उस घेरे से हट गए थे जो सशस्र गार्डों ने उनके आसपास बनाया हुआ था। श्रीवास्तव किताब में लिखते हैं, 'जब उन्हें (आडवाणी को) बताया गया कि सुरक्षाकर्मी उनकी सुरक्षा करेंगे तो आडवाणी बेहद नाराज हुए उन्होंने अपने सहयोगी से कहा था-मुझे सुरक्षा की जरूरत नहीं है। उनसे कहिये, वे वापस चले जाएं। ' पुस्तक के लेखक के अनुसार, शीर्ष अधिकारियों के दखल के बाद ही सशस्र गार्डों को रहने की इजाजत दी गई थी।
88 वर्षीय वरिष्ठ बीजेपी नेता आडवाणी के सचिव दीपक चोपड़ा ने एक बयान में कहा है, 'इस किताब को लेकर एलके आडवाणी की सहमति नहीं है और यह उनकी इच्छा के खिलाफ प्रकाशित की गई है।' पुस्तक के लेखक विश्वंभर श्रीवास्तव के नजदीकी सूत्रों ने बताया कि आडवाणी को पुस्तक की स्क्रिप्ट भेजी गई थी, ऐसे में उनके ऑफिस की ओर से मीडिया को जारी किये गये पत्र से उन्हें हैरत हुई है। उन्होंने एक फोटोग्राफ का भी हवाला दिया जिसमें आडवाणी को लेखक के साथ पुस्तक पकड़े दिखाया गया है। उनके अनुसार, आडवाणी की ओर से तब पुस्तक को लेकर कोई ऐतराज नहीं जताया गया था। '
'आडवाणी के साथ 32 साल' (32 Years with Advani) में अयोध्या में राम मंदिर के लिए आडवाणी के अभियान सहित उनकी जिंदगी से जुड़े राजनीतिक पहलुओं को समेटा गया है। गौरतलब है कि दक्षिणपंथियों द्वारा वर्ष 1992 में बाबरी ढांचा ढहाये जाने के बाद देश में सांप्रदायिक दंगे प्रारंभ हो गये थे। पुस्तक में आडवाणी से जुड़े मौजूदा विवाद, जैसे गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को संभावित प्रधानमंत्री के रूप में चुनने के पार्टी के फैसले पर इस वरिष्ठ बीजेपी नेता के विरोध को भी स्थान दिया गया है।
सितंबर 2013 में आडवाणी, पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की उस बैठक में शमिल नहीं हुए थे जिसमें मोदी को आधिकारिक तौर पर प्रधानमंत्री पद के लिए पार्टी का चेहरा घोषित किया गया था। उन्होंने बीजेपी संसदीय बोर्ड के लिखे पत्र में कहा था, 'मैंने आप लोगों से कहा था कि मैंने अपने विचार बोर्ड सदस्यों तक पहुंचाने के बारे में सोचूंगा। मैंने फैसला किया है कि बेहतर यह होगा कि मैं आज की बैठक में नहीं रहूं।'
नई पुस्तक में इस बात का खुलासा है कि आडवाणी ने सत्र में भाग लेने की योजना बनाई थी, यहां तक कि वे बैठक में जाने के लिए अपनी कार तक पहुंच गये थे लेकिन अंतिम मिनट में अपना फैसला बदल दिया। इस फैसले के बाद आडवाणी और उनके उस पूर्व शिष्य के बीच संबंधों में खटास आ गई, जिसने 2014 के आम चुनाव में 30 साल के सबसे बड़े जनादेश के साथ जीत हासिल की। आडवाणी को बीजेपी के 'मार्गदर्शक मंडल' में भी जगह नहीं दी गई, जिसे विपक्ष, पार्टी (बीजेपी) की ओर से बनाये गए 'रिटायरमेंट होम' की तरह मानता था। पुस्तक राजनीति में भाईभतीजा को लेकर आडवाणी के विरोध का जिक्र करते हुए बताती है कि वर्ष 1989 में गुजरात की गांधीनगर सीट के लिए होने वाले उपचुनाव में बेटे जयंत को मैदान में उतारने के सुझाव को किस तरह उन्होंने सिरे से खारिज कर दिया था। इस तथ्य के बावजूद कि राज्य के बीजेपी नेताओं ने संभावित आसान जीत को लेकर आश्वस्त किया था।
पुस्तक बताती है कि वर्ष 1977 में जब आडवाणी को मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली सरकार में सूचना-प्रसारण मंत्री बनाया गया तो रिपोर्ट के अनुसार, शपथ लेने के तुरंत बाद ही वे उस घेरे से हट गए थे जो सशस्र गार्डों ने उनके आसपास बनाया हुआ था। श्रीवास्तव किताब में लिखते हैं, 'जब उन्हें (आडवाणी को) बताया गया कि सुरक्षाकर्मी उनकी सुरक्षा करेंगे तो आडवाणी बेहद नाराज हुए उन्होंने अपने सहयोगी से कहा था-मुझे सुरक्षा की जरूरत नहीं है। उनसे कहिये, वे वापस चले जाएं। ' पुस्तक के लेखक के अनुसार, शीर्ष अधिकारियों के दखल के बाद ही सशस्र गार्डों को रहने की इजाजत दी गई थी।
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