एक सैनिक होना सिर्फ वर्दी पहनना नहीं होता, ये एक ऐसा जीवन है जिसमें अपना सब कुछ पीछे छोड़कर देश को पहला दर्जा देना पड़ता है. आज हम एक ऐसी सच्ची घटना लेकर आए हैं, जो सिर्फ एक कहानी नहीं है. ये त्याग, समर्पण और दर्द की वो मिसाल है, जो हर भारतवासी के दिल को झकझोर देगी. ये कहानी है ओडिशा के संबलपुर ज़िले की, लखनपुर ब्लॉक के टेंगनामाल गांव के बहादुर सपूत देबराज की. देबराज सशस्त्र सीमा बल यानी SSB में कार्यरत हैं और जब देश को ज़रूरत पड़ी… तब देबराज ने अपनी सबसे बड़ी निजी लड़ाई को पीछे छोड़कर, वर्दी की शपथ निभाई.
ऑपरेशन सिंदूर के बाद भारत-पाकिस्तान सीमा पर हालात बेहद तनावपूर्ण हो गए थे. छुट्टियां रद्द कर दी गईं और उसी तनाव के बीच 11 मई को देबराज को आदेश मिला कि ड्यूटी पर लौटो, लेकिन इस बार देबराज अकेले नहीं थे. 28 अप्रैल को उनके घर में खुशियों ने जन्म लिया था. उनकी पत्नी लिपि ने एक प्यारी सी बेटी को जन्म दिया था. घर में रौशनी थी. मुस्कानें थीं, लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था.
बेटी के जन्म के कुछ दिन बाद ही लिपि की तबीयत बिगड़ने लगी. हालत इतनी गंभीर हुई कि उन्हें ICU में भर्ती करना पड़ा. अंग एक-एक कर जवाब देने लगे, लेकिन देबराज उनकी हिम्मत बनकर उनके साथ थे.
फिर आया 11 मई का वो दिन जब देश ने आवाज़ दी और देबराज… आंखों में आंसू, दिल में तूफान और पीठ पर वर्दी लेकर, सीमा की ओर रवाना हो गए.
13 मई देबराज की पत्नी लिपि इस दुनिया को अलविदा कह गईं. मल्टी ऑर्गन फेल्योर ने एक मां की सांसें छीन लीं. एक नवजात बच्ची, जिसने अब तक अपनी मां का स्पर्श तक ठीक से नहीं महसूस किया अनाथ हो गई.
क्या आप सोच सकते हैं उस दर्द को…?
एक तरफ वो बेटी जो अपनी मां की गोद के लिए तरसेगी और दूसरी तरफ वो पति जो अपनी पत्नी को अग्नि नहीं दे पाया, क्योंकि वो देश के लिए मोर्चे पर खड़ा था. हम शहीदों की कुर्बानी को सलाम करते हैं… पर जो जिंदा रहते हुए अपने अरमानों की शहादत देते हैं, उनका दर्द कौन समझेगा? देबराज गंड जैसे सैनिक ही असली नायक हैं, जो अपना सब कुछ पीछे छोड़कर, हमारे चैन की नींद की कीमत चुकाते हैं. एक सैनिक होना… सिर्फ नौकरी नहीं…ये एक तपस्या है. एक बलिदान है. और आज… देबराज की ये कहानी हर भारतीय के दिल में दर्ज होनी चाहिए.
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