पूर्व विदेश राज्य मंत्री एमजे अकबर (फाइल फोटो)
नई दिल्ली:
जो काम रविवार को हो सकता था वो तीन दिन बाद बुधवार को हुआ. सरकार की किरकिरी हुई वो अलग. बीजेपी पर महिला विरोधी होने के आरोप लगे. पार्टी के प्रवक्ता सवालों से मुंह छिपाते फिरे. लेकिन आखिरकार हुआ वही, जो पहले भी हो सकता था. यानी एम जे अकबर का इस्तीफा. यौन उत्पीड़न के आरोपों से घिरे विदेश राज्यमंत्री एमजे अकबर ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया है. #MeToo मुहिम के तहत 20 महिला पत्रकारों ने उन पर यौन शोषण के आरोप लगाए थे. इसे लेकर वो लगातार घिरे हुए थे. एमजे अकबर ने बयान जारी करके कहा है कि मैंने निजी तौर पर अदालत में न्याय पाने का फ़ैसला किया है, मुझे यह उचित लगा कि पद छोड़ दूं और अपने ऊपर लगे झूठे इल्ज़ामों का निजी स्तर पर ही जवाब दूं. इसलिए मैंने विदेश राज्य मंत्री के पद से अपना इस्तीफ़ा दे दिया है.
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इन तीन दिनों में अकबर पर आरोप लगाने वाली महिलाओं की संख्या लगातार बढ़ती गई. यह संख्या 20 तक पहुंच गई. यानी न तो अकबर की सफाई काम आई और न ही प्रिया रमानी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की धमकी और कदम. पत्रकारों की संस्थाओं ने सरकार को लपेटे में ले लिया. बात यहां तक पहुंच गई कि प्रिया रमानी को कानूनी लड़ाई लड़ने में मदद देने के लिए चंदा तक जुटाने की बात होने लगी. हालांकि रमानी ने यह लेने से इनकार कर दिया.
अकबर के साथ काम कर चुके कुछ पुरुष पत्रकार भी सामने आए. रशीद किदवई और अक्षय मुकुल ने कहा कि वे महिला पत्रकारों की शिकायतों का समर्थन करते हैं. इस बीच सरकार के आला स्तर पर अकबर को सरकार में बनाए रखने के सियासी नफे नुकसान का अंदाजा लगाना शुरू किया गया. हिंदी पट्टी के राज्यों के विधानसभा चुनावों के प्रचार में कूदे बीजेपी नेताओं को लगा कि अकबर को बनाए रखने से नुकसान ज्यादा है. महिला सुरक्षा और बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ के बीजेपी के मुद्दे इससे कमजोर होते हैं. अकबर का न तो कोई सियासी वजूद है और न ही सियासी वज़न. ऐसे शख्स को सरकार में रखने का क्या फायदा जिसके चलते सीधे प्रधानमंत्री मोदी की छवि पर सवाल उठाए जाने लगें. एक दलील यह जरूर दी गई थी कि अकबर को हटाने का मतलब एक मिसाल कायम करना होगा जिसमें किसी भी नेता पर सालों बाद ऐसे आरोप लगने पर इस्तीफा लेने का दबाव पड़ने लगे. लेकिन सरकार के कार्यकाल के अब कुछ ही महीने बचे हैं. ऐसे में इस दलील का कोई मतलब नहीं रहा.
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रहा सवाल विपक्ष का तो, कांग्रेस शुरू से इस मुद्दे पर हमलावर नहीं थी क्योंकि उसके दामन पर भी दाग थे. जब एनएसयूआई के अध्यक्ष फैरोज़ खान का इस्तीफा हुआ तो बीजेपी पर भी नैतिक दबाव पड़ा. अब चर्चा यूपीए सरकार में मंत्री रहे कांग्रेस नेता की भी हो रही है. देरसवेर उसका नाम भी सामने आएगा. ऐसे में बीजेपी कांग्रेस पर हमलावर हो जाएगी. लेकिन महिला पत्रकारों को इस सियासी खेल से कोई लेना देना नहीं है. उनके लिए यह लड़ाई सम्मान, सुरक्षा और समानता के अधिकार की है. खबर थी कि अकबर के इस्तीफे की मांग को लेकर बड़ी संख्या में महिला पत्रकार सड़कों पर उतरने वाली थीं. दूसरी तरफ सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के मुद्दे पर कवरेज के लिए गईं महिला पत्रकारों के साथ हाथापाई की खबरों ने भी उनकी सुरक्षा को लेकर बड़े सवाल खड़े कर दिए.
VIDEO: यौन उत्पीड़न के आरोपों से घिरे विदेश राज्यमंत्री एमजे अकबर का इस्तीफा
एक तरफ दफ्तर में सहकर्मियों की घूरती नजरें तो दूसरी तरफ दफ्तर के बाहर काम करते समय सुरक्षा की चिंता. इन दोहरे मुद्दों ने भी अकबर का ताज छीनने में बड़ी भूमिका निभाई है. कहा जा रहा है कि संघ भी इस्तीफा चाहता था. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल की पहले अकबर फिर अमित शाह से हुई मुलाकात को भी उनके इस्तीफे से जोड़ा जा रहा है. जाहिर है यह सिर्फ कयास भर हैं. बाकी जो होना था वो हो चुका. पर अब भी यही पूछा जा रहा है कि अकबर सरकार से तो हट गए लेकिन वो बीजेपी में कब तक रहेंगे.
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इन तीन दिनों में अकबर पर आरोप लगाने वाली महिलाओं की संख्या लगातार बढ़ती गई. यह संख्या 20 तक पहुंच गई. यानी न तो अकबर की सफाई काम आई और न ही प्रिया रमानी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की धमकी और कदम. पत्रकारों की संस्थाओं ने सरकार को लपेटे में ले लिया. बात यहां तक पहुंच गई कि प्रिया रमानी को कानूनी लड़ाई लड़ने में मदद देने के लिए चंदा तक जुटाने की बात होने लगी. हालांकि रमानी ने यह लेने से इनकार कर दिया.
अकबर के साथ काम कर चुके कुछ पुरुष पत्रकार भी सामने आए. रशीद किदवई और अक्षय मुकुल ने कहा कि वे महिला पत्रकारों की शिकायतों का समर्थन करते हैं. इस बीच सरकार के आला स्तर पर अकबर को सरकार में बनाए रखने के सियासी नफे नुकसान का अंदाजा लगाना शुरू किया गया. हिंदी पट्टी के राज्यों के विधानसभा चुनावों के प्रचार में कूदे बीजेपी नेताओं को लगा कि अकबर को बनाए रखने से नुकसान ज्यादा है. महिला सुरक्षा और बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ के बीजेपी के मुद्दे इससे कमजोर होते हैं. अकबर का न तो कोई सियासी वजूद है और न ही सियासी वज़न. ऐसे शख्स को सरकार में रखने का क्या फायदा जिसके चलते सीधे प्रधानमंत्री मोदी की छवि पर सवाल उठाए जाने लगें. एक दलील यह जरूर दी गई थी कि अकबर को हटाने का मतलब एक मिसाल कायम करना होगा जिसमें किसी भी नेता पर सालों बाद ऐसे आरोप लगने पर इस्तीफा लेने का दबाव पड़ने लगे. लेकिन सरकार के कार्यकाल के अब कुछ ही महीने बचे हैं. ऐसे में इस दलील का कोई मतलब नहीं रहा.
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रहा सवाल विपक्ष का तो, कांग्रेस शुरू से इस मुद्दे पर हमलावर नहीं थी क्योंकि उसके दामन पर भी दाग थे. जब एनएसयूआई के अध्यक्ष फैरोज़ खान का इस्तीफा हुआ तो बीजेपी पर भी नैतिक दबाव पड़ा. अब चर्चा यूपीए सरकार में मंत्री रहे कांग्रेस नेता की भी हो रही है. देरसवेर उसका नाम भी सामने आएगा. ऐसे में बीजेपी कांग्रेस पर हमलावर हो जाएगी. लेकिन महिला पत्रकारों को इस सियासी खेल से कोई लेना देना नहीं है. उनके लिए यह लड़ाई सम्मान, सुरक्षा और समानता के अधिकार की है. खबर थी कि अकबर के इस्तीफे की मांग को लेकर बड़ी संख्या में महिला पत्रकार सड़कों पर उतरने वाली थीं. दूसरी तरफ सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के मुद्दे पर कवरेज के लिए गईं महिला पत्रकारों के साथ हाथापाई की खबरों ने भी उनकी सुरक्षा को लेकर बड़े सवाल खड़े कर दिए.
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एक तरफ दफ्तर में सहकर्मियों की घूरती नजरें तो दूसरी तरफ दफ्तर के बाहर काम करते समय सुरक्षा की चिंता. इन दोहरे मुद्दों ने भी अकबर का ताज छीनने में बड़ी भूमिका निभाई है. कहा जा रहा है कि संघ भी इस्तीफा चाहता था. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल की पहले अकबर फिर अमित शाह से हुई मुलाकात को भी उनके इस्तीफे से जोड़ा जा रहा है. जाहिर है यह सिर्फ कयास भर हैं. बाकी जो होना था वो हो चुका. पर अब भी यही पूछा जा रहा है कि अकबर सरकार से तो हट गए लेकिन वो बीजेपी में कब तक रहेंगे.
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