कारगिल युद्ध में भारतीय जवानों ने जो साहस दिखाया, उस पर देश का हर नागरिक हमेशा गर्व करेगा. इस युद्ध में बहुत से जवानों ने अपनी मिट्टी की रक्षा के लिए अपनी जिंदगी खुशी-खुशी कुर्बान कर दी. भारतीय जवानों की ये शहादत हमेशा याद रखी जाएगी. इस युद्ध में परमवीर चक्र विजेता ऑनररी कैप्टन योगेंद सिंह यादव ने 15 गोलियां लगने के बाद भी हिम्मत नहीं हारी और टाइगर हिल पर भारत का तिरंगा फहराया. कारगिल युद्ध के 25 साल पूरे होने पर एनडीटीवी ने परमवीर चक्र विजेता ऑनररी कैप्टन योगेंद सिंह यादव खास बातचीत की. उन्होंने कहा कि 25 साल बहुत लंबा समय कैसे बीत गया यह पता ही नही चला. ऐसा लगता है यह कल की ही तो बात है. इस युद्ध से देश के सेना ने वह गौरव हासिल किया जो पूरे विश्व की सेना ने कभी नहीं हासिल किया. इतनी दुर्गम पहाड़ियों पर जहां जीवन यापन करना काफी मुश्किल होता है. वहां पर हिंदुस्तान की सेना ने विजय पताका फहराई और दुश्मन को उसकी औकात याद दिला दी. यह बताया कि अगर हमला करोगे तो मां भारती के सपूत 17 हज़ार या 18 हज़ार फुट पर नही 50 हज़ार फुट पर भी नही छोड़ेंगे.
तमन्ना थी कि जिंदगी देश पर कुर्बान हो...
ऑनररी कैप्टन योगेंद सिंह यादव ने कहा कि बचपन से एक सपना था, फिर ईश्वर ने मुझे मौका दिया कि 19 साल की उम्र में करगिल की पहाड़ियों पर लड़ने का मौका मिला. मैं चाहता था कि जिंदगी मेरी है और जिंदगी खत्म हो तो राष्ट्र के नाम खत्म हो. यही उम्र तो होती है जिसमें कुछ करने का उबाल होता है. 21 साल की उम्र में ही सेकंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल 1971 में जंग लड़कर एक नया इतिहास रचते हैं और ये ऐसे ही यह योद्धाओं की धरती रही है. मेरी पलटन 1976 में मध्यप्रदेश के सागर में खड़ी हुई, जवानी के रंग में आगे बढ़ रही थी हम कश्मीर में थे. आतंकवाद विरोधी अभियान में अचानक से करगिल में भेजा गया. द्रास सेक्टर के तोललिंग टॉप पर. शुरुआत में हमें पता लगा कि यहां टेररिस्ट है, वहां पर 16 ग्रेनेडियर्स थी जिन्हें बहुत कैजुअल्टी हुई थी. उसके आधार पर प्लानिंग हुई और फिर अटैक शुरू हुए. नायक सूबेदार लालचंद की अगुवाई में टीम गई पूरी की टीम शहीद हो गई. सूबेदार रणधीर सिंह की टीम गई वह भी शहीद हो गई.
डेड बॉडी तक रिकवर नहीं कर पा रहे थे
26 मई को वायु सेना के जहाज ने बमबारी की, लेकिन उसका भी बहुत असर नहीं हुआ. हर सेक्टर में नुकसान हो रहा था, फिर 28 मई को एयर रेकी किया गया. नीचे से 4-5 आतंकी दिखते थे लेकिन ऊपर से पता लगा 20 से 25 आतंकी है. फिर उसके हिसाब से अटैक शुरू हुआ. 28 मई को ही मेजर राजेश की टीम भी शहीद हो गई. हालत इतने खराब थे कि डेड बॉडी भी नहीं रिकवर किया जा सकता, दुश्मन से फासला अधिक नहीं था. उस वक्त सब का दवाब था हमारा नुकसान बहुत हो रहा था. कमांडिंग ऑफिसर को बोला गया तो उन्होंने साफ कहा कि हमारे बच्चों की डेड बॉडी पड़ी हुई है अब तो विजय होगी या वीरगति. फिर से हमने 2 जून को अटैक किया. लेफ्टिनेंट कर्नल आर विश्वनाथन जो हमारे सेकंड इन कमान थे वह भी शहीद हो गए. फिर से दबाव बना तो सीओ ने कहा कि पलटन तो नीचे नहीं आएगी. हाई लेवल मीटिंग में फैसला हुआ कि बिना आर्टलरी सपोर्ट के जीत नही मिल सकती. 11 जून की रात को दुश्मन पर जबरदस्त फायरिंग की गई. रात भर पहाड़ी के ऊपर गोले बरसाते रहे.
90 डिग्री की खड़ी चट्टान पर रस्सी के सहारे चढ़े
12 जून को राज रिफ और ग्रेनेडियरस ने मिलकर पहली सफलता हासिल की, इससे जीत का मोमेंटम बन गया. पहले लग रहा था कि असंभव है अब जीत का भरोसा बन गया. जवानों में एक नया जोश और ऊर्जा जागी, इसके बाद इंडियन आर्मी ने विजय पताका लहराना शुरू कर दी. हमें लगातार 22 दिन हो गए थे पहाड़ी पर लड़ते लड़ते, जवानों को चेहरे पहचान नहीं जा रहे थे. 22 दिन की लड़ाई के दौरान हमें टास्क मिला था कि जो तोलोलिंग में जवान लड़ रहे हैं उनका राशन और हथियार पहुंचाया जाए. हम सुबह तीन जवान थे जिन्होंने यह काम भारी गोलाबारी के दौरान किया, पता नहीं था कि गोली किस तरफ से आ जाए. उसके बाद हमें टाइगर हिल कब्जा करने का आदेश मिला, उसके लिए तैयारी शुरू की. लेफ्टिनेंट बलवान सिंह को इसका कमान दिया गया. नए और पुराने जवानों से मिलकर टीम बनाई गई. दो रात और एक दिन चलकर दुर्गम पहाड़ी पर पहुंचे. तीसरी रात का मंजर आज भी हमारे आंखों के सामने है. 25 साल हो गए 90 डिग्री के चट्टान पर रस्सी के सहारे चलना शुरू किया. पत्थर गिरने शुरू हो गए ऊपर बैठे पाकिस्तानियों को इस बात का पता लग जाए, फायर खुलते ही रास्ता रुक गया.
तय किया था कि बुजदिलों की तरह नहीं मरना
हमारे 21 में से केवल सात जवान ही ऊपर चढ़ पाए, बाकी जवान को ऊपर चढ़ने का मौका नहीं मिला. हम सातों ने अंधाधुंध फायरिंग किया. वहां से टाइगर हिल 50 से 60 मीटर था. ऊपर से हमारे ऊपर जबरदस्त गोलाबारी शुरू हुआ, इतना कि हम कहीं भी मूवमेंट नहीं कर सकते थे. हम सबने तय किया कि मरना है लेकिन कायरों की तरह नहीं मरना है बुजदिल की तरह नही. सुबह से 5 घंटे हो गए फायरिंग चलती रही, हम तीन तरफ से घिरे थे. पीछे से जवान गोला बारूद भी फेंक रहे थे लेकिन हम उठा नहीं पाए. पाकिस्तनी हमारे काफी नजदीक आ गए, हमारे ऊपर ग्रेनेड फेंका जाता है. हमारे एक साथी की उंगली कट जाती है उसको फर्स्ट एड देता हूं. अब स्नाइपर से फायरिंग शुरू हुई थी, तभी मुझे ग्रेनेड लगा और उसका टुकड़ा लगा. नाक से खून की धार बह रही थी, मेरे एक और साथी को गोली लगती है. उनकी तरफ लगा कि हम सब मर चुके है. पाकिस्तानी कमांडर ने अपने सैनिकों से कहा कि हम लोग को चेक तो करें कि हम सब मर चुके हैं ना.
30-35 दुश्मनों का अकेले किया सामना
हमें गोलियां लगी थी सब कुछ सुन्न था, पैर और कंधे पर गोली मारी गई. उनको जब यकीन हो गया कि हम में से कोई जिंदा नहीं है तो उन्होंने हमारे साथियों के शव के साथ अमानवीय क्रूरता दिखाई. उन लोगों का इरादा हमारे एलएमजी पोस्ट पर भी हमला करने का था. पाकिस्तानी आकर हमारे हथियार उठाने लगे. मैंने सोचा अगर सर और सीने में गोली नहीं लगी है तो उफ़ तक नहीं करूंगा. उसने फिर दोबारा से गोली मारी, ये गोली सीधे मेरे सीने में लगी. वहां पर पर्स था जिसमे सिक्के पड़े थे और उस वजह से गोली अंदर नही गई. जब पाकिस्तानी मेरा हथियार लेकर जाने लगे तो उसके पैर से पर मेरा टकराया उसे लगा कि मैं जिंदा हूं. मैंने ग्रैंनेड उठाया और उसके ऊपर फेंक दिया, उसका सर उड़ गया. पाकिस्तान के वहां 30- 35 जवान खड़े थे उनमें खलबली मच गई. मैंने एक हाथ से उसकी राइफल को उठाया और फायरिंग करना शुरू कर दिया और 4-5 बंदे को मार दिया.
घायल होने के बाद पहाड़ी नाले से रेंगता हुआ नीचे आया
मैं बेबस और लाचार था.. चल नहीं सकता था, लेकिन रेंग तो सकता था. जोश और हौसले में कोई कमी नहीं थी. जो साथी शहीद हो गए थे उनको हिला कर देखा कहीं वह जिंदा तो नहीं था, वहां काफी देर तक रोता रहा. क्षत विक्षत हालत में कई शव पड़े हुए थे. बगल में पहाड़ी नाला था और फिर रेंगता हुआ नीचे आ गया. फिल्मों में देखते हैं जिस तरह से ग्रेनेड फटता है सब कपड़े फट गए थे कोई कह नहीं रहा था कि जिंदा रहेगा पर बच गया. देखिए घर में आग लग जाए तो मां बच्चे को बचाने के लिए कुद पड़ती है. सोचती नहीं है कि जल जाएंगे. ऐसे ही सैनिक साथी के लिये करते हैं कि ऐसा ट्रेनिंग मिलां हुआ है. यह फौज का एनवायरमेंट है. ग्रेनेडियस का इतिहास तो बहुत पुराना है. अब्दुल हमीद 1965 में कई पाकिस्तानी टैंकों को उड़ा दिया. हमारा लांस नायक अल्बर्ट इक्का 1971 में जबरदस्त बहादुर दिखाई. इस धरती में वह वीरता है जिसको हम पहचान नहीं पा रहे हैं, यह धरती शौर्य से भरा है.
शहीदों के लहू का चिराग है जो मुझे मेडल के तौर पर मिला
हमारी ट्रेनिंग हमें सख्त और समर्थवान बनाती है कि आपके अंदर सहनशक्ति और क्षमता बढ़ जाती है कि आपके पैर भी कट जाए तो परवाह नहीं होती है. सात ही ऊपर चढ़े और सात में से छह खत्म हो गए. एक बचता है तो उसका दायित्व होता है जिम्मेदारी निभाना. यही इंडियन आर्मी की सबसे बड़ी ताकत है. दूसरे देश की सेना को मैंने देखा है 10 में से तीन मर जाए तो 7 भाग जाते हैं. देशवासियों का ही आशीर्वाद है परमवीर चक्र. शहीदों के लहू का चिराग है जो मुझे मेडल के तौर पर मिला है. इससे युवाओं के अंदर देशभक्ति पैदा कर सकूं तो बड़ी बात होगी. आज बस देश वासियों से यही कहना चाहूंगा कि आज जो शालीनता और चैन के साथ हम घरों में सो रहे हैं. एक पल उन 527 मां भारती के बेटों के बारे में भी सोचे जिन्होंने 25 साल पहले अपने जीवन की हर सांस को देश के नाम कर दी.
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