प्रदूषण के मामले में दिल्ली सहित उत्तर भारत के तमाम शहर पूरी दुनिया में प्रदूषण के नक्शे में सबसे ऊपर हैं. आम दिनों में ज़हर तो सांसों से शरीर में जा ही रहा होता है, पर सर्दी के मौसम में तो सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है. लगता है मोदी सरकार ने इस बात को अब गंभीरता से लिया है और पर्यावरण मंत्रालय अपने 100 दिनों के एजेंडे के तहत आबोहवा आखिर कैसे सुधरे, इस पर एक मसौदा तैयार करने में जुट गया है. किसी भी बीमारी से भारत में तीसरी सबसे ज़्यादा मौत ज़हरीली हवा से होती है. हवा में घुले ज़हर ने 2017 में 12 लाख लोगों की जान ली. ये आंकड़ा स्टेट ग्लोबल एयर 2019 का है जिसे हेल्थ इफ़ेक्ट इंस्टिट्यूट ने जारी किया है. इतना ही नहीं आबोहवा खराब होने से कई तरह की बीमारियां भी होती हैं और इसका असर भारत आने वाले विदेशी सैलानियों की कमी के तौर पर भी दिखा है. अब मोदी सरकार ने ज़हरीली हवा से जंग लड़ने के लिए कमर कसने का मन बना लिया है.
दस हजार में से 9 से अधिक लड़कियों की पांच साल की उम्र से पहले जान ले रहा वायु प्रदूषण
- 102 शहरों में जहां पीएम 2.5 और पीएम 10 ने सांस का संकट पैदा कर रखा है वहां आबोहवा को 20-30 फीसद तक बेहतर करने का इरादा मंत्रालय ने बनाया है.
- 10 लाख से ज़्यादा आबादी वाले 27 शहर को 10 करोड़ रुपये
- 5 से 10 लाख की आबादी वाले 19 शहरों को 20 लाख रुपये
- 5 लाख से कम आबादी वाले 43 शहर को 10-10 लाख रुपये दिए जाएंगे
- इन पैसों को खर्च सड़क के किनारे ग्रीन बफर जोन, मेकैनिकल स्ट्रीट स्वीपर्स, वाटर स्प्रिंकलर, लोगों को जागरूक करने जैसे कामों में लगाया जाएगा.
पर्यावरण सचिव सी के मिश्रा ने बताया कि जो प्रमुख कुछ चैलेंजेज थे उसके आधार पर हमने 100 दिनों में हम क्या करेंगे और अगले 5 वर्षों में हम क्या करने वाले हैं. ये प्रक्रिया है. ये ग्रुप ऑफ सेक्रेटरीज भी डिसकस कर रहे हैं और ऊंचे लेवल पर भी ये डिसकस हो रहा है. पर कुछ प्राथमिकताएं जो एयर क्वालिटी से संबंधित हैं, वाटर से सम्बन्धित हैं या फॉरेस्ट्री से संबंधित हैं वो हमने तय किये हैं.
सिर्फ आबोहवा को लेकर ही बात नहीं की. इसमें
- 100 झीलों का मरम्मत और कायाकल्प करना
- बिलियन ट्री कैंपेन के जरिये पेड़ों की संख्या को दुगुना करना
- कभी 600 दिनों में मिलने वाले एनवायर्नमेंटल क्लीयरेंस को घटाकर 112 दिन किया गया. अब कोशिश इसे टू डिजिट में करने की है.
- देश के 13 कोस्टल राज्यों के 100 बीच को 5 सालों में ब्लू बीच सर्टिफिकेट देना और
- हिमालयन क्षेत्र में झरनों का बेहतर रखरखाव और कायाकल्प करना शामिल है.
पर्यावरण के जानकार मानते हैं कि कम संसाधन में ज़्यादा हाथ पसारने से जिस असर की उम्मीद है उससे कहीं अछूते न रह जाएं. पर्यावरणविद मनु भटनागर का मानना है कि 100 दिन की लिमिट रखने से बहुत से काम शुरू हो जाएंगे. जो नॉर्मल प्रॉसेस में काफी देर बाद शुरू होते. ये अच्छी बात है. मगर दूसरी तरफ से हम देखें तो ये बहुत ज़्यादा रिसोर्सेज नहीं हैं. तो हम बहुत ज़्यादा एरिया में न फैलें. वरना क्या होगा जिसे हम कहते हैं Spreading Ourselves Too Thin. तो किसी भी जगह बहुत ज़्यादा इम्पैक्ट नहीं होगा. कागज़ पर तो योजना तैयार है. पर अब देखना होगा कि ज़मीनी हक़ीक़त सुधारने को लेकर ज़मीन पर आखिर इसे कैसे लागू किया जाता है.
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