केंद्र ने शुक्रवार को दिल्ली उच्च न्यायालय को बताया कि वह लोक सेवकों को सरकारी आवास का आवंटन करने के दौरान किसी तरह का पक्षपात नहीं करता, चाहे उनके पास ड्यूटी वाले स्थान पर अपना निजी घर हो अथवा नहीं हो. केंद्र ने साथ ही कहा कि वह किसी लोकसेवक के सेवानिवृत्त होने के बाद निश्चित समय के लिए आवास में रहने को लेकर भी कोई भेदभाव नहीं करता. शहरी विकास मंत्रालय ने मुख्य न्यायाधीश डीएन पटेल और न्यायमूर्ति प्रतीक जालान की पीठ को बताया कि केंद्र सरकार के आवास संबंधी नियम सीजीजीपीआरए के तहत सरकारी आवास की मांग करने वाले प्रत्येक कर्मचारी को इस बात का खुलासा करना होता है कि ड्यूटी वाले स्थान पर उनका या उनके परिवार के किसी सदस्य के पास अपना घर है अथवा नहीं है.
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मंत्रालय ने केंद्र सरकार के स्थायी वकील अजय दिगपॉल द्वारा दायर अपने शपथ-पत्र में कहा, ''यदि किसी आवंटी के पास ड्यूटी वाले स्थान पर अपना घर है और उसे किराये के जरिए प्रति माह 12,000 रुपये तक की आय मिल रही है, तो वह आवंटित आवास के संबंध में सामान्य लाइसेंस शुल्क का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी है.''
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इसी तरह, किराये की आय बढ़ने के अनुपात में लाइसेंस शुल्क का भुगतान दोगुना और तीन गुना तक होता है. हलफनामा उस जनहित याचिका के जवाब में दायर किया गया था जिसमें अनुरोध किया गया कि सरकारी आवास उन लोक सेवकों को आवंटित नहीं किए जाएं, जिनके पास ड्यूटी वाले स्थान पर अपना निजी मकान है.
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चेन्नई फाइनेंशियल मार्केट्स एंड अकाउंटेबिलिटी सोसायटी ने अपनी याचिका में यह भी अनुरोध किया कि सेवानिवृत्ति के बाद खुद के आवास वाले लोक सेवकों को अपने सरकारी आवास में छह महीने की निर्धारित अवधि से अधिक समय तक रहने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. पीठ ने मामले की अगली सुनवाई दो सितंबर के लिए तय की.
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