क्या है मोहर्रम, जानिए इस महान शहादत के पर्व के बारे में सब कुछ..

इमाम हुसैन अस की शहादत अमर है, हर वह इंसान जो इंसानयित के रास्ते पर चलता है उन्हें सलाम करता है

क्या है मोहर्रम, जानिए इस महान शहादत के पर्व के बारे में सब कुछ..

मोहर्रम पर इमाम हुसैन अस की याद में मातम करते अज़ादार (फाइल फोटो).

खास बातें

  • इस्लामी कैलेंडर के अनुसार मोहर्रम गम का महीना
  • इस महिने में आखिरी नबी हजरत मोहम्मद (स.अ.) के नवासे शहीद हुए थे
  • इमाम ने ज़िल्लत की जिंदगी से बेहतर इज़्ज़त की मौत मंजूर की
नई दिल्ली:

आखिर मोहर्रम है क्या? आइए बताते हैं- इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार साल का पहला महीना मोहर्रम होता है और मोहर्रम महीने की 10 तारीख को आशूरा कहा जाता है. इस्लामी कैलेंडर के अनुसार मोहर्रम का महीना गम का महीना माना जाता है. इस महिने में खुदा के भेजे हुए आखिरी नबी हजरत मोहम्मद (स.अ.) के नवासे शहीद हुए थे.

आज से तकरीबन 1400 साल पहले सीरिया का एक शासक बना. उस बादशाह का नाम था यज़ीद (ला.). यज़ीद हर बुरे काम को जायज़ बताता था और हर बेगुनाह पर ज़ुल्म करता रहता था. यज़ीद चाहता था कि वो अपने अनुसार कानून बनाए. यजीद इस्लाम को अपने ढंग से चलाना चाहता था. हर इंसान उसकी बात को माने और उसी के कानून को माने. यज़ीद के ज़ुल्म की वजह से वहां के हज़ारों लोगों ने पैगम्बर मोहम्मद (स.) के नवासे इमाम हुसैन अ.स. को मदीने में खत लिखे कि वो यहां आएं और हमें नेक रास्ते की हिदायत दें.

इमाम हुसैन अ.स. कौन थे और लोगों ने क्यों इमाम हुसैन अ.स. को खत लिखा...
अल्लाह (स.व.) ने अपने 1 लाख 24 हज़ार नबी (अ.स.) ज़मीन पर भेजे .. जिनमें आखिरी नबी (स.अ.) हज़रत मोहम्मद मुस्तफा (स.अ.) थे. जो सभी नबियों से ज़्यादा अफज़ल हैं. हज़रत मोहम्मद (स.अ) के दामाद व चाचा ज़ात भाई हज़रत अली (अ.स.) और उनकी बेटी जनाबे फातेमा ज़ेहरा (स.अ.)  थीं जिनके 2 बेटे थे. पहले थे इमाम हसन अ.स. जिन्हे जहर देकर मार दिया गया था और दूसरे थे इमाम हुसैन अ.स.

इमाम हुसैन अ.स. अपने नाना हज़रत मोहम्मद स.अ.व.स. के नेक रास्ते पर चलते थे.. इमाम हुसैन अ.स. बेसहारा को सहारा देना.. किसी पर ज़ुल्म ना करना, सच का साथ देना.. हक़ को हक़दार तक पहुंचाना, इंसानियत को बचाना समेत हमेशा हलाल काम की तरफ ही रहते थे. इमाम हुसैन अस की शान में जितना लिखें उतना कम है.

10 मोहर्रम यानी आशूर के दिन की दास्तान
जिस वक्त शाम (सीरिया)  का बादशाह यज़ीद बना था उसने अपने हर आस पास के शहरों पर अपनी ज़बरदस्ती हुकुमत करना शुरू कर दी. उसने सभी जगह अपने खत भी भिजवा दिए कि सब लोग यजीद की बैयत (यानि उसकी हर बात मानें) करें. इमाम हुसैन अ.स. को भी उसने कहा था कि उसकी बैयत करें. लेकिन इमाम हुसैन अ.स. ने उसकी बैयत न की और इमाम हुसैन ने कह दिया कि मुझ जैसा तुझ जैसी की बैयत नहीं करेगा. यज़ीद का ज़ुल्म दिन ब दिन बढ़ता जा रहा था. जभी इराक में एक जगह कुफा के हज़ारों लोगों ने  इमाम हुसैन अ.स. को खत लिखा कि आप हमारे यहां आइए.. और अपने नेक रास्ते पर हमें चलाइए.

इमाम हुसैन अस के पास इतने खत आने के बाद इमाम हुसैन ने अपने एक चाचा ज़ात भाई हजरत मुस्लिम को कुफा भेजा.. लेकिन जिन लोगों ने इमाम हुसैन को खत लिखा था वे लोग लालच और यज़ीद के डर की वजह से हजरत मुस्लिम से दूरी बनाने लगे और एक वक्त ये आया कि मुस्लिम के साथ कोई ना रहा और उन्हें यजीद के लश्कर ने शहीद कर दिया. वहीं इमाम हुसैन अस अपने साथियों, बीवी, बहनों बच्चों समेत इराक के लिए निकल गए. इस सफर में उनके साथ उनका 6 महीने का बच्चा अली असगर, 4 साल की बच्ची जनाबे सकीना और 80 साल के बुज़ुर्ग तक मौजूद थे.

मोहर्रम महीने की 2 तारीख थी जब इमाम हुसैन अ.स. का काफिला करबला नाम की जगह पर पहुंच गया था. करबला इराक में एक जगह है. करबला पहुंचते ही यज़ीद की फौज ने इमाम हुसैन अ.स. के काफिले को रोक लिया और उस फौज ने इमाम से कहा कि यज़ीद की आप बैयत कर लें. लेकिन इमाम हुसैन अ.स. ने यज़ीद की बैयत करने से मना कर दिया. इमाम हुसैन के काफिले को घेर लिया जाता है. इसी तरह मोहरम महीने की 7 तारीख हो जाती है और यजीद की फौज इमाम हुसैन को आगे नहीं जाने देती. नहर को भी घेर लेती है जिससे उनका काफिला प्यासा रहे. 7 मोहर्रम से न इमाम हुसैन और उनके काफिले  को पानी पीने को मिलता है और न ही कुछ खाने को. 7 मोहर्रम से लेकर 10 मोहर्रम तक.. यानि तीन दिन तक इमाम हुसैन अस का पूरा काफिला भूखा प्यासा रहता है. उनके 6 महीने का बच्चा भी प्यासा तड़पता रहता है.

आखिरकार 10 मोहर्रम आती है और यज़ीद की फौज इमाम हुसैन के काफिले पर हमला कर देती है. इमाम हुसैन अस के सभी साथियों को शहीद कर दिया जाता है और तो और उनके 6 महीने के बच्चे को भी 3 मुंह के तीर से वार करके शहीद कर दिया जाता है.

यज़ीद का ज़ुल्म यहीं नहीं रुका. यज़ीद ने इमाम हुसैन अस के काफिले में सभी मर्दों को तो शहीद कर दिया. बस इमाम हुसैन के लश्कर में महिलाएं, बच्ची  व उनके एक बेटे सय्येदे सज्जाद बचे थे. सय्येदे सज्जाद बहुत बीमार भी थे लेकिन फिर भी यज़ीदी फौज ने इमाम हुसैन की बच्ची, और घर की औरतों को बाज़ार ए शाम तक पैदल चलवाया. 4 साल की बच्ची जनाबे सकीना सअ के गले में रस्सी और पेरों में तोक़ लगाए. सभी औरतों को बेपर्दा कराया चलाया गया. हज़ारों किमी तक गर्मी की शिद्दत में पूरे काफिले को सताया गया, तड़पाया गया. और अगर कोई भी औरत या बच्ची करबला के शहीद के लिए रोना भी चाहे तो उन्हें रोने भी नहीं दिया जाता था. उनको तमाचे मारे जाते थे. बस यहीं फर्क था इमाम हुसैन अस के इस्लाम में और यज़ीद के इस्लाम में.

आखिर में एक ये ही सवाल कि इमाम हुसैन अस पर आखिर क्यों इतना जुल्म हुआ. तो इसका सीधा सा जवाब है कि इमाम हुसैन ने इस्लाम की खातिर, नेक रास्ते की खातिर... पैगम्बर ए इस्लाम की खातिर... नमाज़ , कुरान बचाने के खातिर.. अपनी और अपने काफिले की जान को कुर्बान करना आसान समझा न कि यज़ीद के गलत और हराम रास्ते पर जाना. अगर इमाम हुसैन यज़ीद की बात मान लेते तो शायद उनके परिवार को भी सताया नहीं जाता न ही उनके काफिले को शहीद किया जाता. इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के सामने दो रास्ते थे, एक ज़िल्लत के साथ ज़िन्दा रहना और दूसरा इज़्ज़त के साथ मौत की आग़ोश में सो जाना. इमाम ने ज़िल्लत की ज़िन्दगी को पसंद नही किया और इज़्ज़त की मौत को कबूल कर लिया. तभी इमाम ने कहा था कि ज़िल्लत की जिंदगी से बेहतर इज़्ज़त की मौत है.  

यज़ीद यही चाहता था कि पैगम्बरे इस्लाम (स.) की सुन्नत को मिटाकर जमान-ए-जाहिलियत [1] की सुन्नत को जारी किया जाए. यह बात हज़रत इमाम हुसैन के इस कौल से समझ में आती है कि “मैं ऐशो आराम की ज़िन्दगी बसर करने या फ़साद फैलाने के लिए नहीं जा रहा हूं. बल्कि मेरा मक़सद उम्मते इस्लाम की इस्लाह और अपने जद पैगम्बरे इस्लाम (स.) व अपने बाबा ह. अली इब्ने अबि तालिब अस की सुन्नत पर चलना है.”

इमाम हुसैन अस की शहादत की वजह से ही पूरी दुनिया में इमाम हुसैन अस का गम मनाया जाता है.. हर जगह मोहर्रम का महिना शुरू होते ही  इमाम हुसैन अस की मजलिस शुरू हो जाती है... जिसमें मौलाना करबला का वाकया सुनाते हैं. और लोग 61 हिजरी में हुई शहादत को आज भी याद करके रोते हैं. उनके गम में नौहा पड़ते हैं और मातम करते हैं, जुलूस निकालते हैं. मोहर्रम के 40 दिन बाद चेहल्लुम होता है. इस दिन भी इमाम हुसैन की याद में जुलूस निकलता है.

इमाम हुसैन अस को हिंदुस्तान से बहुत प्यार था. वे हिंदुस्तान जाना चाहते थे. इमाम हुसैन की ख्वाहिश को आज तक हर हिंदुस्तानी याद करता है.

 
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हर कौम के मशहूर लोगों ने इमाम हुसैन अस की शहादत के सिलसिले में क्या क्या फरमाया..
महात्मा गांधी : मैंने हुसैन से सीखा कि मज़लूमियत में किस तरह जीत हासिल की जा सकती है. इस्लाम की बढ़ोतरी तलवार पर निर्भर नहीं करती बल्कि हुसैन के बलिदान का एक नतीजा है जो एक महान संत थे.

रवीन्द्र नाथ टैगौर : इन्साफ और सच्चाई को जिंदा रखने के लिए, फौजों या हथियारों की जरुरत नहीं होती है. कुर्बानियां देकर भी फ़तह (जीत) हासिल की जा सकती है, जैसे की इमाम हुसैन ने कर्बला में किया.

पंडित जवाहरलाल नेहरू : इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की क़ुर्बानी तमाम गिरोहों और सारे समाज  के लिए है, और यह क़ुर्बानी इंसानियत की भलाई की एक अनमोल मिसाल है.

डॉ राजेंद्र प्रसाद : इमाम हुसैन की कुर्बानी किसी एक मुल्क या कौम तक सीमित नहीं है, बल्कि यह लोगों में भाईचारे का एक असीमित राज्य है.

डॉ राधाकृष्णन : अगरचे इमाम हुसैन ने सदियों  पहले अपनी शहादत दी, लेकिन इनकी पाक रूह आज भी लोगों के दिलों पर राज करती है.

स्वामी शंकराचार्य : यह इमाम हुसैन की कुर्बानियों का नतीजा है कि आज इस्लाम का नाम बाकी है, नहीं तो आज इस्लाम का नाम लेने वाला पूरी दुनिया में कोई भी नहीं होता.

श्रीमती सरोजिनी नायडू : मैं मुसलमानों को इसलिए मुबारकबाद पेश करना चाहती हूं कि यह उनकी खुशकिस्मती है कि उनके बीच दुनिया की सबसे बड़ी हस्ती इमाम हुसैन (अ:स) पैदा हुए जिन्होंने संपूर्ण रूप से दुनिया भर के तमाम जातीय समूह के दिलों पर राज किया और करते हैं.

एडवर्ड ब्राउन : कर्बला में खूनी सहरा की याद जहां अल्लाह के रसूल का नवासा प्यास के मारे ज़मीन पर गिरा और जिसके चारों तरफ सगे सम्बन्धियों की लाशें थीं, यह इस बात को समझने के लिए काफी है कि दुश्मनों की दीवानगी अपनी चरम सीमा पर थी, और यह सबसे बड़ा गम है जहां भावनाओं और आत्मा पर इस तरह नियंत्रण था कि इमाम हुसैन को किसी भी प्रकार का दर्द, खतरा और किसी भी प्रिय की मौत ने उनके क़दम को नहीं डगमगाया.

इग्नाज़ गोल्ज़ेहर : बुराइयों और हज़रत अली के खानदान पर हुए ज़ुल्म और प्रकोप पर उनके शहीदों पर रोना और आंसू बहाना इस बात का प्रमाण है कि संसार की कोई भी ताक़त इनके अनुयायियों को रोने या गम मनाने से नहीं रोक सकती है और अक्षर “शिया” अरबी भाषा में कर्बला की निशानी बन गए हैं.

डॉ के शेल्ड्रेक : इस बहादुर और निडर लोगों में सभी औरतें और बच्चे इस बात को अच्छी तरह से जानते और समझते थे कि दुश्मन की फौजों ने इनका घेरा किया हुआ है और दुश्मन सिर्फ लड़ने के लिए नहीं बल्कि इनको कत्ल करने के लिए तैयार हैं. जलती रेत, तपता सूरज और बच्चों की प्यास ने भी एक पल के इनके कदम डगमगाने नहीं दिए. हुसैन अपनी एक छोटी टुकड़ी के साथ आगे बढ़े, न किसी शान के लिए, न धन के लिए, न ही किसी अधिकार और सत्ता के लिए, बल्कि वे बढ़े एक बहुत बड़ी क़ुर्बानी देने के लिए जिसमें उन्होंने हर कदम पर सारी मुश्किलों का सामना करते हुए भी अपनी सत्यता का कारनामा दिखा दिया.

चार्ल्स डिकेन्स : अगर हुसैन अपनी संसारिक इच्छाओं के लिए लड़े थे तो मुझे यह समझ नहीं आता कि उन्होंने अपनी बहन, पत्नी और बच्चों को साथ क्यों लिया! इसी कारण मैं यह सोचने और कहने पर विवश हूं कि उन्होंने पूरी तरह से सिर्फ इस्लाम के लिए अपने पूरे परिवार का बलिदान दिया, ताकि इस्लाम बच जाए.

अंटोनी बारा : मानवता के वर्तमान और अतीत के इतिहास में कोई भी युद्ध ऐसा नहीं है जिसने इतनी मात्रा में सहानूभूति और प्रशंसा हासिल की है और सारी मानव जाति को इतना अधिक उपदेश व उदाहरण दिया है जितनी इमाम हुसैन की शहादत ने कर्बला के युद्ध से दी है.

थॉमस कार्लाईल : कर्बला की दुखद घटना से जो हमें सबसे बड़ी सीख मिलती है वह यह है कि इमाम हुसैन और इनके साथियों का भगवान पर अटूट विश्वास था और वो सब मोमिन (भगवान से डरने वाले) थे! इमाम हुसैन ने यह दिखा दिया कि सैन्य विशालता ताकत नहीं बन सकती.

रेनौल्ड निकोल्सन : हुसैन गिरे, तीरों से छिदे हुए, इनके बहादुर सदस्य आखरी हद तक मारे-काटे जा चुके थे, मुहम्मदी परम्परा अपने अंत पर पहुंच जाती, अगर इस असाधारण शहादत और क़ुर्बानी को पेश न किया जाता. इस घटना ने पूरी बनी उमय्या को हुसैन के परिवार का दुश्मन, यज़ीद को हत्यारा और इमाम हुसैन को “शहीद” घोषित कर दिया.

''इंसान को बेदार तो हो लेने दो, हर कौम पुकारेगी हमारे हैं हुसैन” — जोश मलीहाबादी

इमाम हुसैन अस की शहादत अमर है. उनकी शहादत की वजह से हर वह इंसान जो इंसानयित के रास्ते पर चलता है उन्हें सलाम करता है. बेशक इसीलिए हर इंसान कहता है हुसैन ज़िंदाबाद...हुसैन ज़िंदाबाद..

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