फोटो- कैप्टन वरुण सिंह ने अब आईएनएस कर्ण का प्रभार ले लिया है..
नई दिल्ली:
16 साल पहले, वह लगभग मौत की कगार पर थे- एक घायल कमांडो जिसके जीवित रहने की संभावना किसी चमत्कार से कम नहीं थी। जब उन्हें श्रीनगर के बेस अस्पताल ले जाया गया, डॉक्टरों ने उनके दाहिने हिस्से में 75 छर्रे पाए, उनके हाथ के कई टुकड़े हो गए थे, उनके बांह के ऊपर की हड्डी चकनाचूर हो गई थी। उनके दिल में भी छर्रे लगे हुए थे। मौत उनसे बस कुछ ही मिनट की दूरी पर थी। लेकिन वरुण सिंह ने सब झेल लिया।
आज, इतने वर्षों के बाद, वरुण, जो भारतीय नौसेना में एक कैप्टन हैं, ने विशाखापत्तनम में इसी सप्ताह नौसेना के अभिजात वर्ग के मरीन कमांडो के नए बेस पर INS कर्ण की कमान अपने हाथों में ली है। गंभीर चोट और तमाम मुश्किलों के बावजूद नौसेना में बने रहने का उनका जज्बा एक उल्लेखनीय कहानी है।
उन्होंने कहा, एक कमांडो बनना मेरा हमेशा बचपन से सपना था। मैं फौजी सीरियल में शाहरुख खान को देखा करता था। मैं तभी से सैनिकों की वर्दी पहनना चाहता था।' कई मायनों में, वरुण सिंह का एक सिपाही बनना किस्मत में था। मेरे पिता नौसेना में थे। मेरी जन्मकुंडली कहती है कि मैं पानी में मरूंगा। मेरे पिता ने कहा, 'भविष्य की चीजें तकदीर पर छोड़ दो।' और मेरा नाम वरुण रख दिया गया।
2000 में वरुण, जब नौसेना में एक युवा अधिकारी थे, को कश्मीर में वुलर झील क्षेत्र में उच्च प्रशिक्षित समुद्री कमांडो की एक टुकड़ी के साथ तैनात किया गया। कश्मीर में 'दाढ़ी वाली फौज' के नाम से जाने-जानी वाली मार्कोस का मुख्य उद्देश्य झील के जरिए किसी भी तरीके से आतंकी घुसपैठ को रोकने का था। मार्कोस को दाढ़ी रखने की इजाजत थी।
उन्होंने बताया, मई 2000 में पाकिस्तान की तरफ से घुसपैठ शुरू कर दी गई थी। बांदीपुरा के निकट वहां एक पुट्टूशाही नाम के गांव में तीन खूंखार अल-बद्र आतंकवादी एक घर में छिपे थे।
वरुण को किसी और जगह पर तैनात किया गया था, लेकिन उसका यह इरादा था कि आतंकियों से दो-दो हाथ करने का कोई मौका न छूटे। इसलिए उसने अपने कमांडिंग अधिकारी को उक्त जगह पर भेजने के लिए आग्रह किया।
उनके अनुसार, 'आतंकवादी एक बड़े मकान में छिपे थे। उस इलाके में कई बड़े घर थे और मैंने एवं मेरे साथी ने एक अन्य इमारत में छिपकर वहां से आतंकियों को देखने की कोशिश की।'
उनके अनुसार, लेकिन वहां कोई गतिविधि नहीं थी। मैंने दूसरी मंजिल पर एक ग्रेनेड फेंका और उसके बाद पहली मंजिल पर। कुछ नहीं हुआ। ऑपरेशन के कमांडिंग ऑफिसर ने एक आरडीएक्स बम के जरिए इमारत को गिराने की सलाह दी।
उन्होंने कहा, वरुण को बुलाया गया। 'मैं एक विध्वंस विशेषज्ञ था। मैंने किसी के साथ डिवाइस को जांचा, फिर उसे उस मकान में फेंक दिया गया, जहां आतंकवादी छिपे थे। इमारत पूरी तरह ढह गई।'
एक आतंकवादी की लाश को इमारत के पीछे लटका देखा गया, लेकिन किसी ने भी अन्य दो आतंकियों को नहीं देखा और एरिया को पूरी तरह साफ कर दिया गया।
चंद ही सेंकड में वरुण के लिए सब बदल चुका था। उन्होंने कहा, एक बुलेट मेरे सीने के दाहिने तरफ रखे ग्रेनेड पर आकर लगी। ग्रेनेड नहीं फटा, लेकिन उसके छर्रे मेरे सीने में घुस गए। मैं अपना दाहिना हिस्सा उठा नहीं पा रहा था। मैंने अपने बाएं हाथ से राइफल उठाई और वहां से दूर हटा।
वरुण के मरीन कमांडो साथी ने वह सब देखा और उन्हें उठाने गया। उन्हें श्रीनगर के बेस अस्पताल में ले जाया गया। वरुण बताते हैं, 'डॉक्टर ने कहा कि मेरे पास कोई चांस नहीं है, लेकिन उन्होंने हार मानने से इनकार कर दिया।' डॉक्टरों ने वरुण का सीना खोला और उसमें घुसे बम के टुकड़ों (धातु के टुकड़ों) को निकाला। इसके साथ ही उनके फेफड़ों के बीच पालि जरायु का भी ऑपरेशन किया गया। उनके कूल्हे की हड्डी के जरिये उनके बांह के ऊपर की हड्डी में लगी चोट को ठीक करने का उपाय किया गया। वरुण सिंह की छाती और दाहिने हाथ में 75 से अधिक छर्रे अब भी फंसे हुए है।
वरुण बताते हैं, एक साल से ज्यादा वक्त तक मेरा हाथ लकवाग्रस्त रहा और मैंने करीब दो साल अस्पताल में बिताए। जब वरुण की तीन साल की बेटी उन्हें देखने अस्पताल आई, वह लंबे वक्त तक अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख सके। 'उसने मेरे लिए धारा ऑयल वाला विज्ञापन गाकर सुनाया- मेरे पापा मजबूत हैं (My daddy's strongest)। वह पहली बार था जब मैं रोया।
लेफ्टिनेंट वरुण सिंह को साल 2001 में उनकी बहादुरी के लिए शौर्य चक्र से सम्मानित किया गया और विशिष्टता के साथ नौसेना की सेवा को जारी रखा।
आज, इतने वर्षों के बाद, वरुण, जो भारतीय नौसेना में एक कैप्टन हैं, ने विशाखापत्तनम में इसी सप्ताह नौसेना के अभिजात वर्ग के मरीन कमांडो के नए बेस पर INS कर्ण की कमान अपने हाथों में ली है। गंभीर चोट और तमाम मुश्किलों के बावजूद नौसेना में बने रहने का उनका जज्बा एक उल्लेखनीय कहानी है।
उन्होंने कहा, एक कमांडो बनना मेरा हमेशा बचपन से सपना था। मैं फौजी सीरियल में शाहरुख खान को देखा करता था। मैं तभी से सैनिकों की वर्दी पहनना चाहता था।' कई मायनों में, वरुण सिंह का एक सिपाही बनना किस्मत में था। मेरे पिता नौसेना में थे। मेरी जन्मकुंडली कहती है कि मैं पानी में मरूंगा। मेरे पिता ने कहा, 'भविष्य की चीजें तकदीर पर छोड़ दो।' और मेरा नाम वरुण रख दिया गया।
2000 में वरुण, जब नौसेना में एक युवा अधिकारी थे, को कश्मीर में वुलर झील क्षेत्र में उच्च प्रशिक्षित समुद्री कमांडो की एक टुकड़ी के साथ तैनात किया गया। कश्मीर में 'दाढ़ी वाली फौज' के नाम से जाने-जानी वाली मार्कोस का मुख्य उद्देश्य झील के जरिए किसी भी तरीके से आतंकी घुसपैठ को रोकने का था। मार्कोस को दाढ़ी रखने की इजाजत थी।
उन्होंने बताया, मई 2000 में पाकिस्तान की तरफ से घुसपैठ शुरू कर दी गई थी। बांदीपुरा के निकट वहां एक पुट्टूशाही नाम के गांव में तीन खूंखार अल-बद्र आतंकवादी एक घर में छिपे थे।
वरुण को किसी और जगह पर तैनात किया गया था, लेकिन उसका यह इरादा था कि आतंकियों से दो-दो हाथ करने का कोई मौका न छूटे। इसलिए उसने अपने कमांडिंग अधिकारी को उक्त जगह पर भेजने के लिए आग्रह किया।
उनके अनुसार, 'आतंकवादी एक बड़े मकान में छिपे थे। उस इलाके में कई बड़े घर थे और मैंने एवं मेरे साथी ने एक अन्य इमारत में छिपकर वहां से आतंकियों को देखने की कोशिश की।'
उनके अनुसार, लेकिन वहां कोई गतिविधि नहीं थी। मैंने दूसरी मंजिल पर एक ग्रेनेड फेंका और उसके बाद पहली मंजिल पर। कुछ नहीं हुआ। ऑपरेशन के कमांडिंग ऑफिसर ने एक आरडीएक्स बम के जरिए इमारत को गिराने की सलाह दी।
उन्होंने कहा, वरुण को बुलाया गया। 'मैं एक विध्वंस विशेषज्ञ था। मैंने किसी के साथ डिवाइस को जांचा, फिर उसे उस मकान में फेंक दिया गया, जहां आतंकवादी छिपे थे। इमारत पूरी तरह ढह गई।'
एक आतंकवादी की लाश को इमारत के पीछे लटका देखा गया, लेकिन किसी ने भी अन्य दो आतंकियों को नहीं देखा और एरिया को पूरी तरह साफ कर दिया गया।
चंद ही सेंकड में वरुण के लिए सब बदल चुका था। उन्होंने कहा, एक बुलेट मेरे सीने के दाहिने तरफ रखे ग्रेनेड पर आकर लगी। ग्रेनेड नहीं फटा, लेकिन उसके छर्रे मेरे सीने में घुस गए। मैं अपना दाहिना हिस्सा उठा नहीं पा रहा था। मैंने अपने बाएं हाथ से राइफल उठाई और वहां से दूर हटा।
वरुण के मरीन कमांडो साथी ने वह सब देखा और उन्हें उठाने गया। उन्हें श्रीनगर के बेस अस्पताल में ले जाया गया। वरुण बताते हैं, 'डॉक्टर ने कहा कि मेरे पास कोई चांस नहीं है, लेकिन उन्होंने हार मानने से इनकार कर दिया।' डॉक्टरों ने वरुण का सीना खोला और उसमें घुसे बम के टुकड़ों (धातु के टुकड़ों) को निकाला। इसके साथ ही उनके फेफड़ों के बीच पालि जरायु का भी ऑपरेशन किया गया। उनके कूल्हे की हड्डी के जरिये उनके बांह के ऊपर की हड्डी में लगी चोट को ठीक करने का उपाय किया गया। वरुण सिंह की छाती और दाहिने हाथ में 75 से अधिक छर्रे अब भी फंसे हुए है।
वरुण बताते हैं, एक साल से ज्यादा वक्त तक मेरा हाथ लकवाग्रस्त रहा और मैंने करीब दो साल अस्पताल में बिताए। जब वरुण की तीन साल की बेटी उन्हें देखने अस्पताल आई, वह लंबे वक्त तक अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख सके। 'उसने मेरे लिए धारा ऑयल वाला विज्ञापन गाकर सुनाया- मेरे पापा मजबूत हैं (My daddy's strongest)। वह पहली बार था जब मैं रोया।
लेफ्टिनेंट वरुण सिंह को साल 2001 में उनकी बहादुरी के लिए शौर्य चक्र से सम्मानित किया गया और विशिष्टता के साथ नौसेना की सेवा को जारी रखा।
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