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This Article is From Jul 17, 2014

प्राइम टाइम इंट्रो : गाजा पर इजराइली हमले पर उदासीनता

फाइल फोटो

नई दिल्ली:

नमस्कार मैं रवीश कुमार। ग्लोबल और गूगल काल ने हमारी जागरूकता को किस हद तक बेहतर किया है या बदतर किया है इसकी एक मिसाल है गाज़ा पर इज़राइली हमले को लेकर हमारी उदासीनता। चैनल अभी-अभी वैदिक काल से निकल अशोक सिंघल के मुस्लिम विरोधी बयान काल में प्रवेश कर गए हैं। पर कब लोकल बेहतर थे और कब ग्लोबल इसके लिए आपको दो प्रकार के टाइम ज़ोन यानी काल खंड में ले चलता हूं।

तब जब 700 न्यूज चैनल नहीं थे और ट्वीटर पर लाखों लोग एक नेता को फौलो नहीं करते थे। महीना यही था जुलाई का मगर साल था 1936। भारत अपनी आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा था।
जुलाई 1936 में इलाहाबाद में फिलिस्तीन कांफ्रेंस बुलाई जाती है जिसमें हिस्सा लेते हैं, राम मनोहर लोहिया, जेपी कृपलानी और शौकत अली जैसे कई बड़े नेता। इसी साल यूपी के हर ज़िले में फिलिस्तीन के प्रति भाईचारा जताने के लिए कांग्रेस फिलिस्तीन दिवस मनाती है। सोचिये इटावा, सहारनपुर में फिलिस्तीन दिवस मन रहा था और आज कहीं कोई हरकत नहीं दिखती है।

तब कांग्रेस पर दबाव पड़ता था कि जिस तरह तुर्की में उस्मानिया साम्राज्य के अंत और अपमानजनक समझौते के खिलाफ कांग्रेस ने लाइन ली थी, उसी तरह फिलिस्तीन के सवाल पर भी ले। तब के नेताओं ने खिलाफत को, न फिलिस्तीन के सवाल को, हिन्दू मुस्लिम एंगल से देखा था। खिलाफत का साथ देने वालों में लाला लाजपत राय और मदन मोहन मालवीय जैसे नेता भी थे।
बल्कि तब इस बात का ख्याल रखा गया कि फिलिस्तीन के समर्थन को यहूदी विरोधी न देखा जाए, मगर इस बात ने कांग्रेस को हर साल फिलिस्तीन पर प्रस्ताव पास करने से किसी ने नहीं रोका। महात्मा गांधी ने फिलिस्तीन के सवाल पर कहा था, फिलिस्तीन अरबों का है जिस तरह इंग्लैंड इंग्लिश का है, फ्रांस फ्रेंच का। अरबों पर यहुदियों को थोपना गलत और अमानवीय है।

अब आते हैं जुलाई 2014 के भारत में। आज भारत के तमाम शहर खामोश हैं। कोई नेता नहीं है जो अपने रोज़ाना के प्रदर्शनों को रोक कर देश का ध्यान इस ओर खींच सके। यहां तक कि हमारी संसद भी इस मसले पर महज़ चर्चा के लिए एक आम सहमति नहीं बना सकी।

बुधवार को राज्यसभा में गाज़ा को लेकर चर्चा लिस्ट हो गई थी, मगर विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ने सभापति को लिखा कि यह चर्चा किसी नियम के तहत स्वीकार नहीं है और न ही वांछित अर्थात डिज़ायरेबल नहीं है। विपक्ष ने हंगामा किया और राज्यसभा की कार्यवाही स्थगित हो गई। बृहस्पतिवार को सभापति ने कहा कि सदन के नेता अरुण जेटली ने आग्रह किया है कि चर्चा टाल दी जाए। तब विपक्ष के सदस्यों ने फिर हंगामा किया और कहा कि एक बार कोई चर्चा लिस्ट हो जाए तो वह सदन की संपत्ति हो जाती है। ऐसा करना असंवैधानिक है। लिहाज़ा हंगामे के बाद राज्यसभा स्थगित हो गई।

बुधवार को विदेश मंत्री सुषमा स्वराज बयान देती हैं कि हमारा दोनों देशों से राजनयिक संबंध हैं। किसी मित्र राष्ट्र के प्रति किसी भी प्रकार की अशिष्ट टिप्पणी उनके साथ हमारे संबंधों पर असर डाल सकती है।

मगर ब्राजील में ब्रिक्स नेताओं के सामने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बयान सुषमा स्वराज के बयान से काफी अलग बल्कि उलट दिखता है। मंगलवार को ब्रिक्स के पांचों मुल्कों ने गाज़ा पर इज़रायल के हमले की निंदा की है। वहां नरेंद्र मोदी ने कहा कि एक्सिलेंसिज़ अफगानिस्तान से लेकर अफ्रीका तक के इलाकों में टकराव और उफान का दौर चल रहा है। गंभीर अस्थिरता पैदा हो रही है और हम सब पर असर पड़ रहा है। मुल्क के मुल्क तार तार हो रहे हैं। हमारे मूक दर्शक बने रहने से खतरनाक परिणाम हो सकते हैं।

फिर चर्चा करने से क्या डर है। 1936 के उत्तर प्रदेश में फिलिस्तीन दिवस मना था और हम 2014 के राज्य सभा में फिलिस्तीन के गाज़ा पर हमले को लेकर एक दिन की चर्चा नहीं कर सके। 8 अप्रैल 2003 को इराक पर अमरीकी हमले के खिलाफ हमारी संसद ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास किया था। क्या इससे अमरीका से हमारे संबंध बिगड़ गए। इस प्रस्ताव का समर्थन बीजेपी से लेकर लेफ्ट तक सबने किया था। पूरी दुनिया में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। स्पेन, न्यूयार्क, लंदन, टोक्यो सहित कई मुल्कों में। मगर व्हाट्स अप, फेसबुक और ट्वीटर से ग्लोबल हुए भारतीय बेखबर हैं।

बृहस्पतिवार को कश्मीर में बंद का आयोजन किया गया तो सीपीएम ने दिल्ली और कोलकाता में प्रदर्शन किया। आइसा ने किया। कांग्रेस ने कोई प्रदर्शन नहीं किया, मगर मणिशंकर अय्यर फिलिस्तीन दूतावास ज़रूर गए। आखिर हम किस दौर में चले आए हैं, जहां ऐसी तस्वीरें साझा हो रही हैं। इज़राइल के लोग कुर्सी लगाकर बैठे हैं और गाज़ा पर गिरते बमों के धमाके सुनकर तालियां बजाते हैं। एएफपी की ऐसी तस्वीरें दुनिया के किस अखबार में नहीं छपी होगी। यह तस्वीर एक डच पत्रकार के ट्वीट से दुनिया भर में पहुंची जिसमें लोग पोपकार्न खाते हुए हुक्का पीते हुए गाज़ा पर गिरते बमों का लुत्फ उठा रहे हैं।

दस दिन से इज़राइल गाज़ा पर हमले कर रहा है। अठारह लाख लोगों की आबादी वाला गाज़ा घिर गया है। 1370 घर तबाह हो चुके हैं। आबादी का बड़ा हिस्सा बिजली पानी से वंचित हो गया है। 230 लोग मारे जा चुके हैं। मरने वालों में बच्चों की भी बड़ी संख्या है। स्कूलों को ध्वस्त कर दिया गया है। अस्पताल विकलांग केंद्रों पर हमला किया गया है। आज के दि हिन्दू अखबार में ट्रिनिटी कालेज के प्रोफेसर विजय प्रसाद ने लिखा है कि इज़राइल हमास नाम के आतंकवादी संगठन की सज़ा पूरे गाज़ा को नहीं दे सकता। गाज़ा को हमास मान लेना और पूरी आबादी को हमास के लिए कसूरवार ठहराना अंतरराष्ट्रीय कानून के हिसाब से भी गलत है। 9 जुलाई को इज़राइल के डिप्टी स्पीकर ने फिलिस्तीनी मूल के तीन सांसदों को अपने कमरे से निकाल दिया। कहा कि गाज़ा में बिजली काट देनी चाहिए ताकि उसके अस्पताल ठप्प पड़ जाएं। इजराइल कह रहा है कि जब हमास मौत की संस्कृति पर चल रहा है तो उसका जवाब भी मौत ही है। हमास इनकार कर रहा है कि उसने इज़राइल के तीन किशोरों का अपहरण किया जिसके बाद ये ताज़ा हमाला शुरु हुआ।

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून का बयान है कि गाज़ा इस वक्त छुरी की धार पर है। 10 जुलाई को सुरक्षा परिषद की बैठक हुई। अमरीका ईजिप्ट सब सीजफायर की मांग कर रहे हैं मगर इज़राइल किसी की नहीं सुन रहा है।

क्या बीजेपी या मोदी सरकार इज़राइल से अपने करीबी संबंधों या रुझान के कारण चर्चा का विरोध कर रही है। क्या भारत इज़राइल को नाराज़ करने का जोखिम उठा सकता है... प्राइम टाइम

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