शवों को सड़ने से बचाने की कोशिश में जुटे कुकी आदिवासी।
नई दिल्ली:
देश की नजरों और मीडिया की हेडलाइंस से दूर मणिपुर के एक अस्पताल में नौ लोगों के शव पिछले एक महीने से पड़े-पड़े सड़ रहे हैं, लेकिन न तो राज्य सरकार हरकत में है, न ही केंद्र सरकार को इसकी परवाह है। इससे भी बड़ी बात यह है कि राष्ट्रीय मीडिया में इस खबर का कोई अता पता नहीं है।
31 अगस्त को पुलिस फायरिंग में मारे गए थे
इंफाल से कोई सत्तर किलोमीटर दूर चूड़ाचांदपुर में ऊपर से देखने पर एक खामोशी और हताशा दिखती है, लेकिन एक गुस्सा भी भीतर ही भीतर उबल रहा है। गत 31 अगस्त को यहां पुलिस फायरिंग में नौ लोग मारे गए थे। उस दिन राज्य सरकार की ओर से बनाए गए कानूनों के खिलाफ कुकी और नगा आदिवासियों का गुस्सा फूटा और यह लोग विरोध प्रदर्शन के लिए सड़कों पर उतरे। मारे गए लोगों के रिश्तेदार पिछले एक महीने से शवों के साथ मुर्दाघर में बैठे हैं।
शवों को सुरक्षित रखने के लिए तरबूज और नीबू
मौसम में उमस और गरमी है और शव खराब हो रहे हैं। चूड़ाचांदपुर के अस्पताल में रेफ्रिजेरेशन की सुविधा नहीं है, लिहाजा इन शवों को खराब होने से बचाने के लिए अब यहां आदिवासी तरबूज और नीबू का इस्तेमाल कर रहे हैं, ताकि मुर्दाघर के भीतर तापमान कम रखा जा सके और दुर्गंध को रोका जा सके। मणिपुर के पहाड़ी इलाकों में रह रहे कुकी आदिवासी इस बात पर अड़े हैं कि वे अपनों का अंतिम संस्कार तब तक नहीं करेंगे जब तक उनकी मांगें नहीं मानी जातीं, लेकिन उनका इंतजार कितना लंबा होगा अभी इसका पता नहीं है।
सरकारें ही नहीं नेशनल मीडिया भी खामोश
मणिपुर ऑटोनोमस काउंसिल की ग्रेस जामनू इन लोगों की आवाज उठाने दिल्ली आई हैं। हमसे बात करते हुए उनके सब्र का बांध टूट जाता है। वह कहती हैं, 'राज्य सरकार तो हमारी नहीं सुन रही है लेकिन केंद्र सरकार भी क्यों चुप है। हम आदिवासी अपने बच्चों के शव लेकर एक महीने से मुर्दाघर में बैठे हैं। आखिर नेशनल मीडिया को भी इनकी आवाज क्यों नहीं सुनाई देती।'
तीन कानूनों का विरोध
कुकी और नगा आदिवासी मणिपुर सरकार की ओर से पिछली 31 अगस्त को पास किए गए उन तीन कानूनों का विरोध कर रहे हैं जो जमीन खरीदने और दुकानों में काम करने वाले बाहरी लोगों की पहचान से संबंधित हैं। कुकी आदिवासी राज्य के पहाड़ी हिस्से में हैं और उन्हें डर है कि नए कानून के आने के बाद पहाड़ी इलाकों में गैर आदिवासी बसने लगेंगे। वहां जमीन खरीदने पर अब तक पाबंदी है।
संवैधानिक अधिकार छीनने की कोशिश
दिल्ली में मणिपुर ट्राइबल फोरम के सदस्य सैम नगाइटे कहते हैं, 'हमें इस वक्त इन कानूनों का विरोध करना ही होगा क्योंकि यह कानून मैती समुदाय को अधिकार देने के लिए नहीं बल्कि आदिवासियों से उनका संवैधानिक अधिकार छीनने की कोशिश है।'
वैसे मणिपुर का यह पूरा मामला जितना भावनात्मक है उतना ही संवेदनशील और जटिल भी है। घाटी में रह रहे मैती समुदाय का तर्क है कि जनसंख्या का सारा दबाव घाटी पर ही है। मैती कहते हैं कि यहां संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है लेकिन पहाड़ी इलाकों में जमीन खरीदने पर मनाही है। घाटी को फैसले के लिए जगह चाहिए, लेकिन कुकी समुदाय के नुमाइंदे आरोप लगाते हैं कि सरकार ने कभी आदिवासियों से इस बारे में बात कर उनका भरोसा जीतने की कोशिश नहीं की।
जाहिर है यह लड़ाई मैती और कुकी या आदिवासी और गैर आदिवासी के बीच या फिर घाटी या पहाड़ी के बीच होने से कहीं बड़ी है। चूड़ाचांदपुर में पड़े यह शव यह याद दिला रहे हैं कि दिल्ली के हुक्मरान हों या राष्ट्रीय मीडिया, उसको दूर दराज़ के इलाकों की आवाज या तो सुनाई ही नहीं देती या फिर वह सुनना नहीं चाहता। मैती समुदाय के 15 साल के सपन रॉबिनहुड का शव ऐसे ही दो महीने तक मुर्दाघर में पड़ा रहा तब भी केंद्र सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगी थी।
हिंसा भड़कने पर ही होता है कवरेज
मैती संगठन यूसीएम के अध्यक्ष एलंगबम जॉनसन कहते हैं, 'राष्ट्रीय मीडिया कभी हमारे मुद्दों पर बहस नहीं करता। यहां की थोड़ी बहुत कवरेज तभी होती है जब हिंसा भड़कती है लेकिन जब यहां पर शांति कायम होती है तब किसी को यहां के बारे में सुध नहीं होती, जबकि उसी समय इन मुद्दों पर बहस की जानी चाहिए।'
यह भावना पूरे उत्तर पूर्व में है। दिल्ली में रह रही इंफाल की निवासी अकोइजाम सुनीता कहती हैं, 'मणिपुर में लोग कर्फ्यू देखने जाते हैं और वहां लोगों को यह सिखाया जाता है कि आंसूगैस का मुकाबला कैसे करें।' सवाल यह है कि जब तक मुर्दाघर में पड़ रहे इन शवों को लेकर फिर से हिंसा की चिंगारी नहीं भड़कती क्या मणिपुर की आवाज दिल्ली को सुनाई नहीं देगी।
31 अगस्त को पुलिस फायरिंग में मारे गए थे
इंफाल से कोई सत्तर किलोमीटर दूर चूड़ाचांदपुर में ऊपर से देखने पर एक खामोशी और हताशा दिखती है, लेकिन एक गुस्सा भी भीतर ही भीतर उबल रहा है। गत 31 अगस्त को यहां पुलिस फायरिंग में नौ लोग मारे गए थे। उस दिन राज्य सरकार की ओर से बनाए गए कानूनों के खिलाफ कुकी और नगा आदिवासियों का गुस्सा फूटा और यह लोग विरोध प्रदर्शन के लिए सड़कों पर उतरे। मारे गए लोगों के रिश्तेदार पिछले एक महीने से शवों के साथ मुर्दाघर में बैठे हैं।
शवों को सुरक्षित रखने के लिए तरबूज और नीबू
मौसम में उमस और गरमी है और शव खराब हो रहे हैं। चूड़ाचांदपुर के अस्पताल में रेफ्रिजेरेशन की सुविधा नहीं है, लिहाजा इन शवों को खराब होने से बचाने के लिए अब यहां आदिवासी तरबूज और नीबू का इस्तेमाल कर रहे हैं, ताकि मुर्दाघर के भीतर तापमान कम रखा जा सके और दुर्गंध को रोका जा सके। मणिपुर के पहाड़ी इलाकों में रह रहे कुकी आदिवासी इस बात पर अड़े हैं कि वे अपनों का अंतिम संस्कार तब तक नहीं करेंगे जब तक उनकी मांगें नहीं मानी जातीं, लेकिन उनका इंतजार कितना लंबा होगा अभी इसका पता नहीं है।
सरकारें ही नहीं नेशनल मीडिया भी खामोश
मणिपुर ऑटोनोमस काउंसिल की ग्रेस जामनू इन लोगों की आवाज उठाने दिल्ली आई हैं। हमसे बात करते हुए उनके सब्र का बांध टूट जाता है। वह कहती हैं, 'राज्य सरकार तो हमारी नहीं सुन रही है लेकिन केंद्र सरकार भी क्यों चुप है। हम आदिवासी अपने बच्चों के शव लेकर एक महीने से मुर्दाघर में बैठे हैं। आखिर नेशनल मीडिया को भी इनकी आवाज क्यों नहीं सुनाई देती।'
तीन कानूनों का विरोध
कुकी और नगा आदिवासी मणिपुर सरकार की ओर से पिछली 31 अगस्त को पास किए गए उन तीन कानूनों का विरोध कर रहे हैं जो जमीन खरीदने और दुकानों में काम करने वाले बाहरी लोगों की पहचान से संबंधित हैं। कुकी आदिवासी राज्य के पहाड़ी हिस्से में हैं और उन्हें डर है कि नए कानून के आने के बाद पहाड़ी इलाकों में गैर आदिवासी बसने लगेंगे। वहां जमीन खरीदने पर अब तक पाबंदी है।
संवैधानिक अधिकार छीनने की कोशिश
दिल्ली में मणिपुर ट्राइबल फोरम के सदस्य सैम नगाइटे कहते हैं, 'हमें इस वक्त इन कानूनों का विरोध करना ही होगा क्योंकि यह कानून मैती समुदाय को अधिकार देने के लिए नहीं बल्कि आदिवासियों से उनका संवैधानिक अधिकार छीनने की कोशिश है।'
वैसे मणिपुर का यह पूरा मामला जितना भावनात्मक है उतना ही संवेदनशील और जटिल भी है। घाटी में रह रहे मैती समुदाय का तर्क है कि जनसंख्या का सारा दबाव घाटी पर ही है। मैती कहते हैं कि यहां संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है लेकिन पहाड़ी इलाकों में जमीन खरीदने पर मनाही है। घाटी को फैसले के लिए जगह चाहिए, लेकिन कुकी समुदाय के नुमाइंदे आरोप लगाते हैं कि सरकार ने कभी आदिवासियों से इस बारे में बात कर उनका भरोसा जीतने की कोशिश नहीं की।
जाहिर है यह लड़ाई मैती और कुकी या आदिवासी और गैर आदिवासी के बीच या फिर घाटी या पहाड़ी के बीच होने से कहीं बड़ी है। चूड़ाचांदपुर में पड़े यह शव यह याद दिला रहे हैं कि दिल्ली के हुक्मरान हों या राष्ट्रीय मीडिया, उसको दूर दराज़ के इलाकों की आवाज या तो सुनाई ही नहीं देती या फिर वह सुनना नहीं चाहता। मैती समुदाय के 15 साल के सपन रॉबिनहुड का शव ऐसे ही दो महीने तक मुर्दाघर में पड़ा रहा तब भी केंद्र सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगी थी।
हिंसा भड़कने पर ही होता है कवरेज
मैती संगठन यूसीएम के अध्यक्ष एलंगबम जॉनसन कहते हैं, 'राष्ट्रीय मीडिया कभी हमारे मुद्दों पर बहस नहीं करता। यहां की थोड़ी बहुत कवरेज तभी होती है जब हिंसा भड़कती है लेकिन जब यहां पर शांति कायम होती है तब किसी को यहां के बारे में सुध नहीं होती, जबकि उसी समय इन मुद्दों पर बहस की जानी चाहिए।'
यह भावना पूरे उत्तर पूर्व में है। दिल्ली में रह रही इंफाल की निवासी अकोइजाम सुनीता कहती हैं, 'मणिपुर में लोग कर्फ्यू देखने जाते हैं और वहां लोगों को यह सिखाया जाता है कि आंसूगैस का मुकाबला कैसे करें।' सवाल यह है कि जब तक मुर्दाघर में पड़ रहे इन शवों को लेकर फिर से हिंसा की चिंगारी नहीं भड़कती क्या मणिपुर की आवाज दिल्ली को सुनाई नहीं देगी।
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