यह ख़बर 07 नवंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

मणि-वार्ता : वासन साहब, अब वापसी का कोई रास्ता नहीं है...

मणिशंकर अय्यर कांग्रेस की ओर से राज्यसभा सदस्य हैं...

मिस्टर वासन, गुडबाय... गुडबॉय इसलिए, क्योंकि अब आपकी वापसी संभव नहीं है... आपने सुना ही होगा कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीता है...

जब वासन के पिता जीके मूपनार ने कांग्रेस छोड़कर क्षेत्रीय पार्टी तमिल मनीला कांग्रेस (यहां मनीला का अर्थ प्रांतीय है और इसका फिलीपीन्स की राजधानी से कोई लेना-देना नहीं है), यानि टीएमसी का गठन किया था तो वह पार्टी के टूटने से ज़्यादा दबाव की राजनीति का हिस्सा था। यह 1996 का वह दौर था, जब पार्टी गैर नेहरू-गांधी नेता के नेतृत्व में बिखराव का सामना कर रही थी।

मूपनार और उनकी टीएमसी को तीन साल के बाद तब सबक मिला, जब 1999 में वे जहां-जहां से चुनाव लड़े, पी चिदम्बरम सहित वे सभी सीटें हार गए। इस करारी हार के बाद विद्रोही नेता बहुत दिन तक जीवित नहीं रहे, और इसके बाद वासन के नेतृत्व में टीएमसी (सिवाय चिदंबरम के, जो वित्तमंत्री बनाए जाने के बाद ही लौटे) 'दुम दबाकर' वर्ष 2002 में कांग्रेस में लौट आई।

हम सब लोग यह सोच रहे थे कि तमिला मनीला कांग्रेस का विलय कांग्रेस में हुआ है, लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि वासन यह सोच रहे थे कि कांग्रेस का विलय उनकी पार्टी में हुआ था। ऐसे में दोनों पार्टियों का आपसी रिश्ता बीते 11 साल के दौरान कभी सहज नहीं हो पाया और वासन के धड़े ने अपनी अलग पहचान को खुद से अलग भी नहीं किया। वर्ष 1999 में उन्होंने कहा भी था कि उनकी पार्टी ही वास्तविक कांग्रेस है और कम से कम तमिलनाडु में सोनिया गांधी की कांग्रेस उनकी पिछलग्गू है।

मैंने उस वक्त भी इस विलय का विरोध किया था, क्योंकि इससे समस्याएं कम होने के बजाए बढ़ने वाली थीं। अगर सत्ता को बांटने का फॉर्मूला ऊपरी स्तर तक लागू नहीं होता तो कांग्रेस को तमिलनाडु कांग्रेस कमेटी के अंदर कभी नहीं खत्म होने वाले संघर्ष का सामना करना पड़ता।

यही हुआ। जब तक कांग्रेस के पास केंद्र की सत्ता रही, टीएमसी को दिल्ली में पार्टी के अंदर या फिर सरकार के अंदर पद मिलते रहे और उन्हें लगता रहा कि चेन्नई के सत्यमूर्ति भवन में समर्पण के बदले उन्हें ये सब मिल रहा है। अब केंद्र में कांग्रेस सत्ता में नहीं रही, सो, ऐसे में वासन और उनकी टीम ने सबसे पहले तमिलनाडु कांग्रेस कमेटी पर नियंत्रण करने की कोशिश की और जब उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा तो उन्होंने अपना रास्ता अलग कर लिया।

लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिलेगी। द्रविड़ों ने पहले ही प्रांतीय स्पेस पर कब्ज़ा जमाया हुआ है। मैं द्रविड़ के बहुवचन का इस्तेमाल कर रहा हूं, क्योंकि द्रविड़ भले ही अब विभिन्न पार्टियों में बंटे हुए हैं (वैसे भ्रष्टाचार को लेकर सब एक ही हैं) - जयललिता की एआईएडीएमके, करुणानिधि की डीएमके, रामदॉस की पीएमके, कैप्टन विजयकांत की डीएमडीके, वाइको की एमडीएमके और कुछ अन्य समूहों में - लेकिन इन सबकी सोच एक ही है - ये सब प्रांतीय दल हैं, राष्ट्रीय दल नहीं, चाहे कोई मसला पार्टी की बनावट से जुड़ा हो या फिर लक्ष्य से जुड़ा हो।

इन सबकी पहचान यह भी है कि ये कांग्रेस नहीं हैं। ऐसे में इन सबके लिए वासन अपने असर (कुल तमिल वोटों का महज तीन फीसदी हिस्सा) से कांग्रेस के वोट को कम करेंगे। वासन ने जिस आधार पर अपनी नाव को तैयार किया है, उसका डूबना तय है। और अगर वह अपने लिए किसी द्रविड़ साझीदार को तलाश भी लेते हैं, तो टीएमसी को उसके अधीनस्थ साझीदार की भूमिका ही निभानी होगी।

सच यह भी है कि तमिलनाडु में अब कांग्रेस की पूंछ भर बची है, लेकिन वही कांग्रेस है - एक राष्ट्रीय पार्टी, जिसका दायरा तमिलनाडु सहित दूसरी जगहों पर भी फैला हुआ है। वासन के धड़े को दूसरा मौका देने की गलती हमें भविष्य में दोहराने से बचना होगा।

उन्हें अपने रास्ते पर जाने देना चाहिए। हमें अपने रास्ते पर बढ़ना चाहिए। सबसे ज़्यादा मोलभाव करने वाले धड़े से मुक्त होने पर हम पार्टी को फिर से खड़ा करने का रास्ता तलाश लेंगे।

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