मेरे ध्यान में करीब 50 साल पहले का वक्त याद आ रहा है, जब मैंने पहली बार लोकसभा को देखा था। साल 1960 का था, और जहां तक मुझे याद पड़ता है, फरवरी का महीना था। मेरी तुलना में कहीं बेहतर संपर्कों वाले मेरे एक मित्र ने अपने और अपने मित्रों के लिए पासों का इंतजाम किया था, ताकि हम संसद में बहस की कार्यवाही को देख सकें। वह बहस उस वक्त के बेहद चर्चित घटना पर थी - जवाहरलाल नेहरू की केंद्र सरकार ने देश के इतिहास की पहली निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार - केरल में ईएमएस नंबूदरीपाद की सरकार - को भंग कर दिया था। राज्य सरकार ने राज्य के सभी स्कूलों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। चूंकि राज्य में ज्यादातर शैक्षणिक संस्थान ईसाइयों द्वारा चलाए जा रहे थे, जिनमें 2,000 साल पुराना सीरियाई ईसाई समुदाय का स्कूल भी शामिल था, इसलिए उस निजी शिक्षण व्यवस्था का इस तरह खात्मा किए जाने का भारी विरोध हुआ था, जिसकी बदौलत स्कूल और कॉलेज शिक्षा के मामले में केरल देशभर में पहले स्थान पर पहुंचा था। लोग सरकार के इस कदम के विरोध में सड़कों पर उतर आए और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी ने विरोध-प्रदर्शन करने वालों का नेतृत्व करने का फैसला किया। शासन व्यवस्था गड़बड़ाने की वजह से नेहरू सरकार ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की घोषणा कर दी। सदन में राष्ट्रपति शासन लगाने के कारणों पर बहस हो रही थी, और नेहरू सरकार इस मुद्दे पर बैकफुट पर नजर आ रही थी।
हम लोग अपने कॉलेज से बस के जरिये पार्लियामेंट हाउस बस स्टैंड तक गए थे, जो तब ठीक उस जगह था, जहां आज महात्मा गांधी की प्रतिमा स्थापित है। हम दर्शक दीर्घा की अपनी सीटों पर बैठ गए, और मंत्रमुग्ध होकर कॉमरेड एसए डांगे का संबोधन सुना, जिसमें उन्होंने नेहरू और कांग्रेस की गलतियों के बारे में बताया। सदन में सिर्फ उन्हीं की आवाज़ गूंज रही थी - उनकी आवाज़ के अलावा पिन-ड्रॉप साइलेंस था। नेहरू उनके सामने ही बैठे हुए, किसी गहरे विचार में डूबे हुए थे। ट्रेजरी बेंच भी अनुशासित डेकोरम में मौजूद था, कसमसाते हुए, लेकिन कोई व्यवधान नहीं, कोई नारेबाजी नहीं। डांगे ने संबोधन का समापन जिन शब्दों में किया, वे 50 साल बाद भी मेरे जेहन में बसे हुए हैं। उन्होंने नेहरू की तुलना युधिष्ठिर से की, जिनका रथ हमेशा जमीन से ऊपर रहता था, क्योंकि उन्होंने कभी झूठ नहीं बोला था। डांगे ने कहा कि जब युधिष्ठिर को सफेद झूठ बोलने को विवश किया गया कि अश्वत्थामा मारा गया, जिससे द्रोणाचार्य को विश्वास हो कि उनका बेटे अश्वत्थामा की मौत हो गई है, जबकि वास्तव में अश्वत्थामा नामक हाथी की मौत हुई थी। इस झूठ के बाद युधिष्ठिर का रथ जमीन पर आ गिरा था। डांगे ने कहा था कि केरल सरकार की बर्खास्तगी के साथ ही नेहरू का रथ जमीन पर आ गिरा है।
इसके बाद नेहरू इसका जवाब देने के लिए खड़े हुए। उन्होंने क्या कहा था, उसमें से मुझे कुछ भी याद नहीं।। हां, मुझे याद है कि उस बहादुर योद्धा ने संसदीय प्रोटोकॉल और लोकतांत्रिक मूल्यों के चलते दूसरों को बोलने का हर मौका दिया, सभी आरोपों को सुना, और उसके बाद ही अपने बचाव में कुछ बोलने के लिए उठे।
हम लोग नरेंद्र मोदी से भी यही उम्मीद करते आ रहे हैं, लेकिन उन्होंने दिखा दिया कि वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति कतई निर्लिप्त हैं, और संसद के प्रति अवमानना का भाव रखते हैं, वरना संसद में आते, और विपक्ष के आरोपों का सामना करते - या सार्वजनिक आलोचना का डर उन्हें सता रहा है। जिस समय उन्हें संसद का सामना करना चाहिए था, वह जम्मू-कश्मीर में चुनाव प्रचार करने चल दिए। यह संभवतः इस बात का संकेत था कि वह कितने घबराए हुए थे कि जम्मू-कश्मीर के चुनाव परिणाम मोदी लहर की समाप्ति के संकेत होंगे।
मुझे एक और बात याद आ रही है, करगिल युद्ध के दौरान मुझे 26 अक्टूबर, 1962 के द हिन्दुस्तान टाइम्स के पिछले पृष्ठ पर एक छोटी-सी ख़बर मिली थी, जिसमें कहा गया था कि राज्यसभा में जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी - जो उस समय मात्र 36 वर्ष के थे - प्रधानमंत्री - जो उस समय उनसे दोगुनी उम्र यानि 72 वर्ष के थे - से मिलने गए, और मांग की कि लोकसभा में अवकाश होने की सूरत में भारत-चीन सीमा पर चल रहे युद्ध पर चर्चा के लिए राज्यसभा की बैठक तुरंत बुलाई जाए। हालांकि खुद वाजपेयी ने वर्ष 1999 में ऐसे ही अनुरोध को ठुकरा दिया था, लेकिन नेहरू उसके लिए तत्परता से तैयार हो गए थे। तब राज्यसभा की बैठक 8 नवंबर, 1962 को बुलाई गई और युवा वाजपेयी ने प्रधानमंत्री पर तीखा हमला किया, लेकिन प्रधानमंत्री महोदय ने सामान्य गरिमा के साथ उन्हें सुना एवं संसदीय आचरण के मुताबिक अपने ऊपर लगे आरोपों का जवाब दिया। हीरेन मुखर्जी के मुताबिक 'कोमल बादशाह' नेहरू ने उस गरिमा के साथ लोकतांत्रिक संस्थाओं को विकसित नहीं किया होता तो आज भारत की स्थिति उन 150 देशों जैसी होती, जिन्हें हमारे बाद अब तक आजादी मिली है, और यह भी संभव है कि हमारी स्थिति पड़ोसी पाकिस्तान जैसी होती।
मोदी इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं दिख रहे हैं कि संसदीय लोकतंत्र का पौधा कितना कमजोर होता है। शायद वह इस पौधे को उस तरह से पालना भी नहीं चाहेंगे, ताकि वह हर समय मनमर्जी कर सकें, हर उस शासक की तरह, जो इतिहास के पन्ने बदलवाता रहता है। कुछ भी हो, लेकिन हकीकत यही है कि उच्च सदन के ज्यादातर सदस्यों की मांग के बावजूद मोदी सदन में नहीं आए, जबकि उनकी साथी सांसद उनसे उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं, पिछली बेंच पर बैठने वाले जनप्रतिनिधियों और उनके मंत्रियों के आचरण पर उनसे कुछ कहना चाहते थे। मोदी सब मामलों में अपने गृहमंत्री को अपने से कमतर मानते हैं, लेकिन संसद में जवाब देने के मामले में ऐसा नहीं मानते।
दूसरी ओर, नेहरू कभी अपने लोकतांत्रिक दायित्वों से नहीं भागे। चाहे वह संसद के उनके शुरुआती सालों में हुआ जीप स्कैंडल रहा हो या फिर वर्ष 1957-58 में हुआ मूंदड़ा स्कैंडल हो, जिसे उनके अपने दामाद ने ही उठाया था। नेहरू हमेशा सदन में अपनी निर्धारित जगह पर बैठे नजर आए, अपने और अपनी सरकार के ऊपर लगे आरोपों को तल्लीनता से सुनते और आरोपों का जवाब देते। कई बार कार्रवाई भी करते। उन्होंने 1952 में स्टाक मार्केट को प्रभावित करने के आरोप में कांग्रेस के एक सांसद को निलंबित किया था, और इसके बाद उन्होंने अपने पसंदीदा वित्तमंत्री टीटीके को मूंदड़ा कांड में हटाया। उन्होंने लालबहादुर शास्त्री को भी अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनने की आज़ादी दी, जब उन्होंने दूर तमिलनाडु के अरियालूर में हुई एक रेल दुर्घटना के बाद रेलमंत्री के पद से इस्तीफा देना चाहा था।
लेकिन मोदी अपने बदनाम साथियों के साथ चिपके रहना चाहते हैं। उनके मंत्रिमंडल में बलात्कार मामले का आरोपी अब भी है। बेलगाम गिरिराज सिंह, जो मोदी को वोट नहीं देने वालों को पाकिस्तान भेज देना चाहते हैं, को मंत्रिपद देकर नवाजा गया है। एक महिला, जिसकी खराब भाषा के चलते उसे महिला भी नहीं कहा जाना चाहिए, की मंत्रिमंडल में जगह कायम है। पिछली बेंच पर बैठने वाला और साधु के वेश में संसद आने वाला एक शख्स, जो अपनी भाषा की वजह से भगवान कम, शैतान ज़्यादा लगता है, को न सिर्फ मंत्रिमंडल में बनाए रखा जा रहा है, बल्कि उसे प्रोत्साहित भी किया जा रहा है, ताकि वह दूसरे समुदायों के खिलाफ विद्वेष फैलाना जारी रखे।
एक कट्टर आरएसएस प्रचारक को प्रधानमंत्री चुनने के बाद देश के लोगों को यही सब मिला है। उनके कट्टर साथियों को प्रधानमंत्री का संरक्षण इसलिए मिला हुआ है, क्योंकि वे प्रधानमंत्री की सोच के मुताबिक बोलते हैं। हमारी राष्ट्रीय एकता को इस प्रधानमंत्री के होने से ज्यादा खतरा पहले कभी नहीं हुआ, क्योंकि इन्हें हमारे लोकतंत्र की गरिमा का बहुत सम्मान नहीं है, हालांकि उन्होंने इस पवित्र परिसर में प्रवेश के वक्त इसकी सीढियों को चूमने का आडंबर बखूबी किया था।