यह ख़बर 10 नवंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

39 साल बाद आएगा फैसला : क्या था पूर्व रेलमंत्री ललित नारायण मिश्रा की हत्या का मामला?

नई दिल्ली:

पूर्व रेलमंत्री एलएन मिश्रा हत्याकांड कत्ल का एक ऐसा मुकदमा, जो पिछले 39 सालों से अदालती सुनवाई के फंदे में झूल रहा है, अब जाकर इंसाफ की चौखट तक पहुंचा है। दिल्ली की कड़कड़डूमा कोर्ट ने मामले में फैसला सुनाने के लिए 8 दिसंबर की तारीख तय की है।
 
क्या था मामला

मामला 2 जनवरी 1975 जब तत्कालीन रेलमंत्री और इंदिरागांधी के बेहद करीबी रहे एलएन मिश्रा समस्तीपुर में समस्तीपुर से मुजफ्फरपुर रेलवेलाइन का उदघाटन करने स्पेशल ट्रेन से शाम 5 बजे पहुंचे। उनके साथ उनके भाई और बिहार के सिंचाई मंत्री जगन्नाथ मिश्रा और एमएलसी रामविलास झा साथ थे। करीब पौने 6 बजे जैसे ही एलएन मिश्रा ने अपना भाषण खत्म किया उनके मंच पर एक जोरदार धमाका हुआ। मिश्रा के पैर में बम के कुछ छर्रे धंस गए थे। इस धमाके में मिश्रा के अलावा कई और लोगों को गंभीर चोटें आई थीं। वो रात करीब को स्पेशल ट्रेन से ही दानापुर के हॉस्पीटल पहुंचे, जहां डॉक्टरों ने उन्हें बचाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन अगले दिन सुबह उनकी मौत हो गई। इस धमाके में कुल तीन लोगों की मौत हुई थी।
 
मामले की जांच
रेल मंत्री के कत्ल ने पूरे देश को हिला दिया। मामले की गंभीरता को देखते हुए जांच सीबीआई को सौंपी गई। जांच में बिहार पुलिस सीआईडी भी सहयोग कर रही थी। सीबीआई में पीडब्लूडी के एक पूर्व कर्मचारी मदन मोहन श्रीवास्तव के बयान के आधार पर संतोषानंद, सुदेवानंद, रंजन द्विवेदी और गोपाल जी नाम के आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया। ये सभी लोग आनंद मार्ग संगठन से जुड़े थे। 1 नवंबर 1977 को पटना के सीबीआई कोर्ट में चार्जशीट दाखिल की गई। एडवोकेट रंजन द्विवेदी के साथ आनंद मार्ग संगठन के  सदस्यों संतोषानंद, सुधेवानंद, गोपाल जी को आरोपी बनाया गया। इनमें एक आरोपी की मौत हो चुकी है।
 
चार्जशीट में सीबीआई ने आरोप लगाया कि इस संगठन के लोगों ने संगठन के मुखिया आनंदमूर्ति की गिरफ्तारी के विरोध में सरकार पर दबाब डालने के लिए यह पूरी साजिश रची। आनंदमूर्ति को 1971 में गिरफ्तार किया गया था। सीबीआई के मुताबिक, आनंद मार्ग से जुड़े लोग अपने गुरु की गिरफ्तारी  के लिए बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री अब्दुल गफ्फूर और ललित नारायण मिश्रा को कसूरवार मानते थे। इसीलिए आनंद मार्ग संगठन के लोगों ने 1974 में अब्दुल गफ्फूर को मारने की भी नाकाम कोशिश की। वहीं ललित नारायण मिश्रा के परिवार को लोगों ने कहा कि इस मामले में आनंद मार्ग संगठन का हाथ नहीं है, बल्कि यह एक राजनैतिक कत्ल का मामला है।
 
1978 में रंजन द्विवेदी को जमानत मिल गई। अन्य आरोपियों भी 1986 में जमानत पर बाहर आ गये
 
कत्ल की एक और थ्योरी  
सीबीआई ने 3 फरवरी 1975 को एलएन मिश्रा हत्याकांड में सबसे पहले अरुण मिश्रा को गिरफ्तार किया था और उसी की निशानदेही पर उसके एक और साथी अरुण कुमार ठाकुर को 5 फरवरी को गिरफ्तार किया था। अरुण कुमार ठाकुर ने अपना जुर्म कबूल किया और कहा कि धमाके के लिए उसे पैसे का लालच दिया था और किसी झा बॉस से मिलवाने की बात हुई थी। इसमें शिव शर्मा नाम के एक शख्स का नाम भी सामने आया।

इसी बीच बिहार की एक जेल में जेलर को दिए अपने बयान में अरुण कुमार मिश्रा ने बताया इस पूरी साजिश के पीछे जिस झा बॉस की बात हो रही है वह एमएलसी रामविलास झा हैं। उनके साथ धमाके में उसका ट्रांसपोटर दोस्त रघुनाथ पांडे भी शामिल रहा है। इनके अलावा इंदिरा गांधी के ओएसडी रहे यशपाल कपूर का नाम भी उछला।
 
इस मामले में इंदिरा गांधी की भूमिका पर भी कई सवाल उठे। उसके मुताबिक रामविलास झा पहले मिश्रा के करीबी थे, लेकिन बाद में दोनों की अनबन हो गई हालांकि बाद में आरोपियों ने कहा कि उन्होंने सीबीआई के दबाब में गलत बयान दिए थे। कुछ महीनों बाद सीबीआई ने भी पलटी मारी और कहा कि उसके बाद अरुण ठाकुर और अरुण मिश्रा के खिलाफ पुख्ता सबूत नहीं हैं। वहीं स्टेशन पर चाय बेचने वाले शंकर सहाय ने दोनों अरुण के मौका-ए-वारदात पर होने की तस्दीक थी।
 
केस दिल्ली ट्रांसफर हुआ
तत्कालीन अटॉर्नी जनरल के कहने पर सुप्रीम कोर्ट ने दिसंबर 1979 को केस दिल्ली की कड़कड़डूमा कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया। 1981 में सभी आरोपियों के खिलाफ आरोप तय हो गए। आरोपियों ने सुनवाई में देरी के आधार पर इस को रद्द किए जाने की मांग की, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 17 अगस्त 2012 को आरोपियों की ये याचिका खारिज कर दी। कोर्ट ने कहा कि महज इस आधार पर कार्रवाई बंद नहीं की जा सकती, क्योंकि मामले की सुनवाई में 37 साल में भी पूरी न हो सकी।
 
गवाहों की भरमार
इस केस में 200 से ज्यादा गवाहियां हुईं, जिसमें 161 अभियोजन पक्ष की ओर से जबकि 40 से ज्यादा गवाह बचाव पक्ष की ओर से पेश किए गए, जिसमें 39 गवाहों की मौत हो चुकी है। 22 से ज्यादा जजों ने मामले में सुनवाई की है। मामले का मुख्य आरोपी रंजन द्विवेदी जब गिरफ्तार हुआ तब वह 27 साल का था जबकि अब उसकी उम्र 67 साल है। गोपाल जी को छोड़कर इस केस के सभी आरोपी आरोपी सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन जज अजीत रे पर हमले के मामले में दोषी ठहराए जा चुके हैं।
 
नहीं हुआ था पोस्टमार्टम
कत्ल का केस होने के बाद भी ललित नारायण मिश्रा का पोस्टमार्टम नहीं होने दिया गया। यह भी साफ नहीं हुआ कि घायल होने के बाद एल एन मिश्रा को अस्पताल पहुंचाने में 6 घंटे का वक्त क्यों लगा? जानकार इन दोनों बातों को केस कमजोर करने की एक बड़ी कड़ी मानते हैं।
 
बिहार सीआईडी और सीबीआई में मतभेद
इस मामले में बिहार सीआईडी और सीबीआई में मतभेद लगातार सामने आते रहे। यही वजह कि सीआईडी ने चुपके से जेल के अंदर आरोपी अरुण मिश्रा का बयान करवाया। सीआईडी के लोग सीबीआई की जांच से सहमत नहीं थे उनका मानना था कि हत्याकांड में आनंगमार्ग संगठन के लोग शामिल नहीं थे।

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