नई दिल्ली:
नए ज़मीन अधिग्रहण बिल पर सहमति बनाना एनडीए सरकार के लिए मुश्किल होता दिख रहा है। इस बिल पर राजनीतिक सहमति बनाने के लिए गठित संसद की संयुक्त समिति के सामने कई किसान और मजदूर संगठनों ने 2013 के जमीन अधिग्रहण कानून में किसी भी बदलाव का जम कर विरोध किया है।
सोमवार को नर्मदा बचाव आंदोलन की नेता और क़रीब 250 किसान और मजदूर संगठनों की नुमाइंदगी कर रहीं मेधा पाटेकर संयुक्त समिति के सामने पेश हुईं। अपने प्रेज़ेन्टेशन में मेधा ने कानून में बदलाव को किसान-विरोधी बताते हुए कहा कि किसानों की सहमति के बिना किसी भी सरकारी या निजी परियोजना के लिए ज़मीन न ली जाए।
मेधा पाटेकर ने यह भी मांग की कि ज़मीन लिए जाने के सामाजिक असर के आकलन के बिना कोई सही राहत-पुनर्वास पैकेज संभव नहीं है। उन्होंने यह भी सलाह दी कि अगर पांच साल तक किसानों की ज़मीन का इस्तेमाल ना हुआ तो ज़मीन वापस करने के मौजूदा प्रावधान को कानून से ना हटाया जाए।
नेशनल एलायंस फॉर पीपल्स मुवमेंट का आरोप है कि पिछले दस साल में 150 लाख हेक्टेयर ज़मीन को गैर-कृषि कामों में लगा दिया गया है, जिससे खाद्य सुरक्षा को लेकर बड़े सवाल खड़े होते हैं।
सवाल कई दूसरे संगठनों ने भी उठाए हैं। संयुक्त समिति के सामने ऑल इंडिया किसान कॉर्डिनेशन कमेटी ने भी कहा कि ज़मीन का सही मुआवज़ा तभी मुमकिन है, जब मोलतोल से उसकी क़ीमत तय की जाए और इसलिए प्रस्तावित संशोधन रद्द किया जाए। साथ ही, हरियाणा की भारतीय किसान यूनियन (अराजनीतिक) ने संयुक्त समिति के सामने अपने प्रेज़ेन्टेशन में कहा कि सिंचाई वाली और कई फसलें देने वाली ज़मीन किसी भी हाल में न ली जाए।
ज़ाहिर है, नए ज़मीन अधिग्रहण बिल के प्रारूप पर किसान संगठनों के विरोध ने सरकार की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। अब देखना अहम होगा कि नए बिल के प्रारूप पर राजनीतिक सहमति बनाने की जद्दोजहद में जुटी भारत सरकार किसान और मज़दूर संगठनों के इस विरोध से कैसे निपटती है।
सोमवार को नर्मदा बचाव आंदोलन की नेता और क़रीब 250 किसान और मजदूर संगठनों की नुमाइंदगी कर रहीं मेधा पाटेकर संयुक्त समिति के सामने पेश हुईं। अपने प्रेज़ेन्टेशन में मेधा ने कानून में बदलाव को किसान-विरोधी बताते हुए कहा कि किसानों की सहमति के बिना किसी भी सरकारी या निजी परियोजना के लिए ज़मीन न ली जाए।
मेधा पाटेकर ने यह भी मांग की कि ज़मीन लिए जाने के सामाजिक असर के आकलन के बिना कोई सही राहत-पुनर्वास पैकेज संभव नहीं है। उन्होंने यह भी सलाह दी कि अगर पांच साल तक किसानों की ज़मीन का इस्तेमाल ना हुआ तो ज़मीन वापस करने के मौजूदा प्रावधान को कानून से ना हटाया जाए।
नेशनल एलायंस फॉर पीपल्स मुवमेंट का आरोप है कि पिछले दस साल में 150 लाख हेक्टेयर ज़मीन को गैर-कृषि कामों में लगा दिया गया है, जिससे खाद्य सुरक्षा को लेकर बड़े सवाल खड़े होते हैं।
सवाल कई दूसरे संगठनों ने भी उठाए हैं। संयुक्त समिति के सामने ऑल इंडिया किसान कॉर्डिनेशन कमेटी ने भी कहा कि ज़मीन का सही मुआवज़ा तभी मुमकिन है, जब मोलतोल से उसकी क़ीमत तय की जाए और इसलिए प्रस्तावित संशोधन रद्द किया जाए। साथ ही, हरियाणा की भारतीय किसान यूनियन (अराजनीतिक) ने संयुक्त समिति के सामने अपने प्रेज़ेन्टेशन में कहा कि सिंचाई वाली और कई फसलें देने वाली ज़मीन किसी भी हाल में न ली जाए।
ज़ाहिर है, नए ज़मीन अधिग्रहण बिल के प्रारूप पर किसान संगठनों के विरोध ने सरकार की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। अब देखना अहम होगा कि नए बिल के प्रारूप पर राजनीतिक सहमति बनाने की जद्दोजहद में जुटी भारत सरकार किसान और मज़दूर संगठनों के इस विरोध से कैसे निपटती है।
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