बस्तर के सुकमा जिले में छोटे तोंगपाल गांव के मुक्का कवासी पिछले 4 महीनों से अपने घर में नहीं सोते। उनको डर है कि पुलिस रात के वक्त उन्हें उठा ले जाएगी।
‘मैं घर में सोने में डरता हूं साहब। थानेदार हमें गाली देता है। वो मुझे यहां से पकड़ कर ले जाना चाहता है। मैं उसे देखकर ही भाग जाता हूं।’
बस्तर के गांवों में ये दहशत सरेंडर को लेकर है। जगदलपुर से कोई 100 किलोमीटर दूर सुकमा के बड़े गुरबे गांव में पहुंचते ही आदिवासी अपना अपना दुखड़ा सुनाने लगते हैं। यहां आसपास के आधा दर्जन गांवों से इकट्ठा हुए लोग आरोप लगाते हैं, पुलिस जबरन माओवादी या उनका समर्थक बताकर सरेंडर करवा रही है।
जंगमपाल गांव के मड़काराम सोढ़ी कहते हैं कि अखबारों में आ रही सरेंडर की खबरें झूठी हैं। सोढ़ी को डर है कि बस्तर के आदिवासी पुलिस के डर से अपने गांव छोड़कर भाग जाएंगे। पिछले दिनों बड़े गुरबे गांव के कोई बारह हज़ार लोगों ने सुकमा के पास कूकानार थाने में बड़ा विरोध प्रदर्शन किया। लोगों का आरोप था कि पुलिस बड़े गुरबे के एक आदिवासी आयताराम मंडावी पर नक्सली समर्थक के तौर पर समर्पण करने का दबाव डाल रही है।
‘जब मैंने समर्पण करने से मना किया तो पुलिस ने मुझे धमकाना शुरू कर दिया। मैं घर छोड़कर भागा तो पुलिस मुझे ढूंढते हुए घर आ गई और मेरी पत्नी को उठाकर ले गई। उसके बाद बारह हज़ार आदिवासियों ने थाने पर प्रदर्शन किया।’
पुलिस इन आरोपों से इनकार करती है। लेकिन आयाताराम ने अपनी पत्नी के साथ रायपुर पहुंचकर प्रेस कांफ्रेंस की और आरोप लगाया कि कई आदिवासियों पर समर्पण का दबाव है। इस साल बस्तर में अब तक करीब 400 सरेंडर हो चुके हैं। इन आत्मसमर्पणों पर पहले ही सवाल उठ चुके हैं।
ज्यादातर लोगों पर कोई मुकदमा नहीं चल रहा या उनके खिलाफ कोई वारंट भी नहीं है। अधिकांश आदिवासी छोटे मोटे अपराधों के दोषी हैं।
पेंदलनार गांव में एक आदिवासी एर्राराम मरकाम ने हमसे कहा, ‘पुलिस यहां आकर उन आदिवासियों को पकड़ रही है, जो निर्दोष हैं। उन्हें खड़ा कर उनके मुंह पर कपड़ा बांध कर हाथ में बंदूक पकड़ा देते हैं और फोटो खींचते हैं और फिर उन्हें सरेंडर्ड माओवादी के तौर पर पेश कर देते हैं।’
एनडीटीवी इंडिया ने इस पूरे मामले की तफ्तीश के लिए बस्तर के कई गांवों का दौरा किया। यह सही है कि समर्पण करने वाले ज्यादातर आदिवासी न तो नक्सली हैं और न नक्सलियों के समर्थक। लेकिन माओवाद प्रभावित ज़ोन में रहने की वज़ह से शक के घेरे में हैं। इनमें से कई लोगों ने माना कि माओवादियों के प्रभाव वाले इलाके में कभी-कभी उनके दबाव में छोटे-मोटे काम करने पड़ते हैं, जैसे उनके लिए राशन लाना या फिर उन्हें खाना खिलाना।
‘कोई भी माओवादियों का सक्रिय समर्थक नहीं है, लेकिन पुलिस हम पर शक करती है। अगर पुलिस वाले इस गांव में आ जाएं तो खाना तो उन्हें भी हम खिलाते हैं’। गोरली गांव के हन्नूराम ने हमें बताया।
लेकिन ऐसा नहीं है कि पिछले 6 महीनों में सारे सरेंडर फर्ज़ी हुए हैं। माओवादियों के सक्रिय काडर ने भी हथियार डाले हैं। जगदलपुर में हमारी मुलाकात सरिता और संपत महरू से हुई, जिन्होंने नवंबर में बीजापुर के भैरमगढ़ में हथियार डाले। सरिता और संपत दोनों पीएलजीए की 16वीं पलाटून के कमांडर रहे हैं और पिछले नौ साल से वो सीपीआई (माओवादी ) के सदस्य रहे। उन्होंने हमसे बातचीत में माना कि उन्होंने कई माओवादी हमलों में हिस्सा लिया। हालांकि उन्हें अभी 5-5 हज़ार रुपये ही मिले हैं, लेकिन पुलिस ने भरोसा दिया है कि राज्य सरकार की सरेंडर नीति के तहत बसाया जाएगा।
बस्तर के आईजी एसआरपी कल्लूरी फर्ज़ी सरेंडर या दबाव डालने के किसी भी आरोप को गलत बताते हैं। ‘जिन लोगों को माओवाद के बारे में पता नहीं वे ये नहीं जानते कि माओवादियों के कई फ्रंट हैं। मिसाल के तौर पर चेतना नाट्य मंच और दण्डकारण्य मज़दूर किसान संघ का हिंसा से तो कोई लेना-देना नहीं, लेकिन वो माओवादी विचारधारा को आगे बढ़ाते हैं। ऐसे कई संगठनों पर सरकार ने पाबंदी लगा रखी है। अगर उनमें से कुछ लोग आकर समर्पण कर रहे हैं तो मीडिया और कई लोग ये सवाल उठा रहे हैं कि इन लोगों के खिलाफ तो कोई मुकदमा नहीं है। इन लोगों ने तो कभी कोई एम्बुश नहीं किया। कोई गोली नहीं चलाई। किसी को थप्पड़ तक नहीं मारा। इनको कैसे सरेंडर माओवादी के तौर पर दिखाया जा रहा है। ये गलत समझ है। जो भी लोग माओवाद से किसी भी तरह से जुड़े हैं, उन्हें हम वापस मुख्यधारा में लाना चाह रहे हैं और जब वो लोग समर्पण करते हैं तो सवाल उठता है कि हम फर्ज़ी सरेंडर करवा रहे हैं।’
आई जी कल्लूरी ने कहा कि, ‘मैं बस्तर के नक्सलियों को नक्सली नहीं कहता। नक्सलवाद का पीड़ित कहता हूं, क्योंकि बाहर से आए लोगों ने यहां आकर माओवाद फैलाया है। गुड्सा उसेंडी जैसे बड़े माओवादी नेता (गुड्सा उसेंडी मूल रूप से तेलगू है) जब आंध्र प्रदेश में जाकर सरेंडर कर सकते हैं तो हम अपने गोंड आदिवासियों को क्यों हथियार न डलवाएं। उन्हें बहला-फुसला कर ये माओवादी अपने साथ शामिल करते हैं। हम उन्हें वापस लाना चाहते हैं’।
लेकिन छत्तीसगढ़ में पुलिस महकमे में भी सरेंडर के इस तरीके पर दो राय है। बड़े अधिकारियों का एक धड़ा ये मानता है कि इस तरह से कराए जा रहे सरेंडर आत्मघाती साबित होंगे, क्योंकि सरेंडर करने वाले लोगों के पास वापस गांव में जाने का विकल्प नहीं बचता और अगर उन्हें पुनर्वास नीति के तहत मुआवजा नहीं दिया जा सका तो फिर वो शहरी ज़िदगी कैसे बिता पाएगें।
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