मुंबई:
'लुटेरा’ का निर्देशन किया है, विक्रमादित्य मोटवानी ने और फिल्म में अहम किरदार निभाए हैं, सोनाक्षी सिन्हा और रणवीर सिंह ने। इससे पहले कि मैं आगे बढ़ूं आपको बता दूं कि फिल्में दो तरह की होती हैं, एक वह जो बॉक्स ऑफिस पर पैसों की बरसात कर दे, दूसरी वह जो आपके दिल को छू जाए।
'लुटेरा' दूसरी श्रेणी में आती है, जो आपके दिल को छू जाएगी। फिल्म का पहला शॉट ही काफी असरदार है और लगा कि मैं अलग ही दुनिया में पहुंच गया। वैसे, यह फिल्म आधारित है, 1953 में आजादी के बाद जमींदारी के दौर पर।
फिल्म में जमींदार बने बरुन चंदा की बेटी ’पाखी’ बनी हैं, सोनाक्षी सिन्हा, जिन्हें किताबें पढ़ने और लिखने का बड़ा शौक है। वरुण यानी रणवीर सिंह इस परिवार में शामिल होते हैं, आर्कियोलोजिस्ट बनकर। पाखी और वरुण में प्यार हो जाता है, लेकिन कुछ वजहों से दोनों की शादी नहीं हो पाती और वरुण यानी रणवीर सिंह को पाखी को छोड़कर जाना पड़ता है।
आगे की कहानी के लिए आपको फिल्म देखनी होगी, पर मैं आपको बता दूं कि फिल्म का एक हिस्सा ओ हेनरी की लघु कथा ’द लास्ट लीफ’ पर आधारित है। विक्रमादित्य मोटवानी ने बेहतरीन निर्देशन किया है, पर इनसे भी लाजवाब काम किया है, सिनेमैटोग्राफर महेंद्र जे शेट्टी ने, जिनके शूट किए गए सीन का एक-एक फ्रेम मास्टरपीस है।
सोनाक्षी की झकझोर देनी वाली परफॉर्मेंस है और रणवीर सिंह ने भी अपना किरदार बखूबी संभाला है। अमित त्रिवेदी का बैकग्राउंड−स्कोर कमाल का है और गाने तो पहले से ही लोगों को काफी पसंद आ रहे हैं।
जमींदार के किरदार में सोनाक्षी के पिता बने बरुन चंदा फिल्म में मजबूत पिलर के तौर पर उभरते हैं, पर जैसा मैं अक्सर कहता हूं एक डायरेक्टर को कहीं-कहीं अपनी फिल्म के लिए ’जल्लाद’ जैसा दिल रखना जरूरी है ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि फिल्म का पहला भाग बेहद धीमा है। खूबसूरत लम्हे बनाने के चक्कर में विक्रमादित्य इतने खो गए कि उन्हें अंदाजा नहीं रहा कि फिल्म के खूबसूरत सीन्स के चक्कर ने कहानी में ब्रेक लगा दिया। मैं मानता हूं कि दोनों किरदारों के बीच पनपते इश्क को दिखाना जरूरी था, पर वह कहानी को आगे बढ़ाते हुए भी हो सकता था और यह इस हद तक खिंचा की स्टार रेटिंग के लिए मुझे दोबारा सोचने पर मजबूर होना पड़ा। खैर, इस फिल्म में ठहराव भी है, इमोशन भी है और ड्रामा भी। फास्ट फिल्में देखने के आदी लोगों को यह फिल्म स्लो लग सकती है। काफी हिसाब-किताब करने के बाद मेरी ओर से फिल्म को 3 स्टार्स।
'लुटेरा' दूसरी श्रेणी में आती है, जो आपके दिल को छू जाएगी। फिल्म का पहला शॉट ही काफी असरदार है और लगा कि मैं अलग ही दुनिया में पहुंच गया। वैसे, यह फिल्म आधारित है, 1953 में आजादी के बाद जमींदारी के दौर पर।
फिल्म में जमींदार बने बरुन चंदा की बेटी ’पाखी’ बनी हैं, सोनाक्षी सिन्हा, जिन्हें किताबें पढ़ने और लिखने का बड़ा शौक है। वरुण यानी रणवीर सिंह इस परिवार में शामिल होते हैं, आर्कियोलोजिस्ट बनकर। पाखी और वरुण में प्यार हो जाता है, लेकिन कुछ वजहों से दोनों की शादी नहीं हो पाती और वरुण यानी रणवीर सिंह को पाखी को छोड़कर जाना पड़ता है।
आगे की कहानी के लिए आपको फिल्म देखनी होगी, पर मैं आपको बता दूं कि फिल्म का एक हिस्सा ओ हेनरी की लघु कथा ’द लास्ट लीफ’ पर आधारित है। विक्रमादित्य मोटवानी ने बेहतरीन निर्देशन किया है, पर इनसे भी लाजवाब काम किया है, सिनेमैटोग्राफर महेंद्र जे शेट्टी ने, जिनके शूट किए गए सीन का एक-एक फ्रेम मास्टरपीस है।
सोनाक्षी की झकझोर देनी वाली परफॉर्मेंस है और रणवीर सिंह ने भी अपना किरदार बखूबी संभाला है। अमित त्रिवेदी का बैकग्राउंड−स्कोर कमाल का है और गाने तो पहले से ही लोगों को काफी पसंद आ रहे हैं।
जमींदार के किरदार में सोनाक्षी के पिता बने बरुन चंदा फिल्म में मजबूत पिलर के तौर पर उभरते हैं, पर जैसा मैं अक्सर कहता हूं एक डायरेक्टर को कहीं-कहीं अपनी फिल्म के लिए ’जल्लाद’ जैसा दिल रखना जरूरी है ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि फिल्म का पहला भाग बेहद धीमा है। खूबसूरत लम्हे बनाने के चक्कर में विक्रमादित्य इतने खो गए कि उन्हें अंदाजा नहीं रहा कि फिल्म के खूबसूरत सीन्स के चक्कर ने कहानी में ब्रेक लगा दिया। मैं मानता हूं कि दोनों किरदारों के बीच पनपते इश्क को दिखाना जरूरी था, पर वह कहानी को आगे बढ़ाते हुए भी हो सकता था और यह इस हद तक खिंचा की स्टार रेटिंग के लिए मुझे दोबारा सोचने पर मजबूर होना पड़ा। खैर, इस फिल्म में ठहराव भी है, इमोशन भी है और ड्रामा भी। फास्ट फिल्में देखने के आदी लोगों को यह फिल्म स्लो लग सकती है। काफी हिसाब-किताब करने के बाद मेरी ओर से फिल्म को 3 स्टार्स।
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