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This Article is From Aug 22, 2014

रिव्यू : बिजली संकट को बखूबी बयां करती है फिल्म 'कटियाबाज'

रिव्यू : बिजली संकट को बखूबी बयां करती है फिल्म 'कटियाबाज'
मुंबई:

इस शुक्रवार 'कटियाबाज' नाम की एक डॉक्यूमेंट्री भी रिलीज हुई है। कटियाबाज यानी वे जो बिजली लाइन पर तार फंसाकर बिजली चोरी करते हैं। इस फिल्म का निर्देशन किया है दीप्ति कक्कड़ और फहद मुस्तफा ने।

'कटियाबाज' कहानी है कानपुर की, जहां किसी जमाने में चार सौ कारखाने होते थे, लेकिन अब बिजली की किल्लत के कारण करीब दो सौ कारखाने ही बचे हैं। इस डॉक्यूमेंट्री में दिखाया गया है कि कैसे 15 से 18 घंटे बिजली गुल होने की वजह से लोग बेहाल हैं। 'कटियाबाज' में बिजली चोर और उसके उपभोक्ता दोनों ही गरिमा और बिजली के साथ जीने के लिए संघर्ष करते दिखाई देते हैं।

इस फिल्म का मुख्य किरदार है लोहा सिंह, जो शहर का मशहूर कटियाबाज है। लोहा सिंह लोगों के लिए बिजली की तारों पर कटिया डालता है और यह काम वह फख्र से करता है, क्योंकि उसे लगता है कि वह बिजली से बेहाल लोगों की मदद कर रहा है।

दीवालिया हो चुकी सरकार बिजली कंपनी में एक योग्य महिला अधिकारी काम संभालती हैं, जिनका नाम है ऋतु महेश्वरी। यह महिला उपभोक्ताओं को समय पर बिजली बिलों का भुगतान करने को कहती हैं, साथ ही बिजली चोरों के खिलाफ एक अभियान भी शुरू करती हैं, पर लोगों की नजरों में वह विलेन बन जाती हैं।

इस फिल्म की सबसे अच्छी बात यह है कि यह डॉक्यूमेंट्री होते हुए भी आपको फिल्म का मजा देगी। जो लोग छोटे शहरों में रहते हैं या फिर उन गांव या शहरों में जहां बिजली के नाम पर सिर्फ तार और खंभा हैं, वे खुद को इस फिल्म से बखूबी जोड़ पाएंगे। इस फिल्म में इमोशन है, ड्रामा है, एक्शन है और इंटरटेनमेंट भी। यहां हीरो भी है, विलेन भी और नेता भी।

ये डॉक्यूमेंट्री देखकर आप अंदाजा लगा पाएंगे कि उन शहरों की हालत कैसी होती है, जहां बिजली न के बराबर आती है और कैसे सिस्टम में फंसकर मुद्दा धरा का धरा रह जाता है। फिल्म में ऋतु महेश्वरी का एक डायलॉग है कि पहली बार ऐसा हुआ है कि उनका तबादला नहीं किया गया और उनके बेटे ने एक ही शहर में रहकर अपनी क्लास का सालाना इम्तिहान पास किया है। यह डायलॉग दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर सकता है कि आखिर इस परिस्थिति का जिम्मेदार कौन है और कैसे जनता, राजनेता और नौकरशाह अपनी-अपनी लड़ाइयां लड़ रहे हैं, पर यह ऐसी लड़ाई है जिसमें सही मायने में जीत किसी की नहीं होती।

डॉक्यूमेंट्री में बैकग्राउंड स्कोर जरा फिल्मी रखा गया है। सबसे अच्छी बात यह कि फिल्म एकतरफा नहीं है। इस परिस्थिति से जूझने वाले हर शख्स के पहलू इसमें रखे गए हैं। यह फिल्म किसी एक शख्स पर नहीं, बल्कि समस्या पर अंगुली उठाती है।

बस कमी मुझे यह लगी कि कहानी को थोड़ा और ढंग से बांधा जा सकता था, जैसे कि कई जगहों पर घटनाक्रम या सीन्स मुझे बिखरे हुए लगे। अगर कहानी परत दर परत खुलती, तो और बेहतर होता, लेकिन निर्देशकों ने एक डॉक्यूमेंट्री को भी रोचक बनाकर शानदार काम किया है।

इसे देखकर मुझे भी वे दिन याद आ गए जब टीवी पर रविवार को फिल्म आती थी और बत्ती गुल हो जाती थी, ऐसे में सब मिलकर दुआ करते थे कि काश बिजली आ जाए और रविवार की छुट्टी बरबाद न हो। मेरी ओर से फिल्म को 3.5 स्टार...

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