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This Article is From Oct 12, 2012

'छोटे बजट की फिल्मों का पहला दर्शक है युवा वर्ग'

'छोटे बजट की फिल्मों का पहला दर्शक है युवा वर्ग'
‘सी-हॉक्स’ और ‘अनकही’ जैसे धारावाहिकों और ‘आहिस्ता-आहिस्ता’ एवं ‘महाराथी’ जैसी फिल्मों के निर्देशक शिवम नायर का नाम इंडस्ट्री में बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है। पेश है उनसे खास बात...
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‘सी-हॉक्स’ और ‘अनकही’ जैसे धारावाहिकों और ‘आहिस्ता-आहिस्ता’ एवं ‘महाराथी’ जैसी फिल्मों के निर्देशक शिवम नायर का नाम इंडस्ट्री में बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है। उनका मानना है कि रचनात्मक लोगों के लिए फिलहाल टेलीविजन की दुनिया में ज्यादा जगह नहीं है, क्योंकि टीआरपी केंद्रित चैनल नए विषयों के साथ प्रयोग नहीं करना चाहते। शिवम नायर इन दिनों फिल्म ‘रंगीन’ बनाने जा रहे हैं। पेश है उनसे खास बात...

* टेलीविजन और फिल्म इंडस्ट्री में आपको करीब 20 साल हो गए। इस दौर में कितना बड़ा बदलाव देख रहे हैं...

बहुत...। उस दौर में सिर्फ दूरदर्शन था। अब कई चैनल हैं। बहुत सॉफ्टवेयर बन रहे हैं उनके लिए। इकॉनॉमी के विस्तार का असर चैनल और उनके प्रोग्राम्स पर दिख रहा है। टेक्नोलॉजी शानदार आ गई है। सैट भव्य बनने लगे हैं। लेकिन, मेरा मानना है कि टीवी पर कंटेंट की गुणवत्ता के मामले में हम पीछे गए हैं। नॉन-फिक्शन प्रोग्राम्स में जरूर कुछ प्रयोग हुए हैं, मसलन 'कौन बनेगा करोड़पति' या 'सत्यमेव जयते'। लेकिन, फिक्शन में घिसे-पिटे फॉर्मूले ही चल रहे हैं। फिल्मों में ऐसा नहीं हुआ। फिल्मों में नए-नए प्रयोग हुए हैं।

* तो इसकी बड़ी वजह क्या रही...

शुरुआत में जिन लोगों ने टेलीविजन कार्यक्रमों का निर्माण किया, वे इस माध्यम को लेकर गंभीर थे। साहित्य से विषय उठाए गए। गंभीर लेखक थे। मुझे लगता है कि कहानी घर-घर की और 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' के बाद नया दौर शुरू हुआ। चैनल टीआरपी को लेकर बहुत ज्यादा चिंतित रहने लगे। विज्ञापनों का बड़ा बाजार हाथ से न निकल जाए, इस डर से कोई रिस्क लेने को तैयार नहीं। मार्केटिंग कंपनियों को सिर्फ रेटिंग चाहिए। फिल्मों में भी स्टार आधारित फिल्मों बंधे बंधाए फॉर्मूले पर हैं। बड़ा बजट, बड़ा सैटअप, बड़े स्टार और वही कहानी घुमा-फिराकर कहना। लेकिन, छोटे बजट की फिल्म बनाने वाले अक्सर जुनून की वजह से फिल्म बनाते हैं तो वे नए-नए विषय खोजते हैं।

* छोटे बजट की फिल्मों को लेकर कॉरपोरेट घरानों का क्या रुख है...

कुछ साल पहले जब छोटे बजट की फिल्मों को सफलता मिलना शुरू हुई तो कॉरपोरेट घरानों को लगता था कि यह अपवाद हैं। लेकिन, धीरे-धीरे लीक से हटकर बनी कई फिल्मों ने सफलता पाई तो कॉरपोरेट ने भी दिलचस्पी दिखानी शुरू कर दिया। आज यंग जेनेरेशन वर्ल्ड सिनेमा देख रही है तो वह नए सिनेमा को पसंद करती है। मल्टीप्लेक्स ने नए सिनेमा के लिए संभावनाएं पैदा की हैं। सौ बात की एक बात यह कि कहानी दिलचस्प होनी चाहिए तो दर्शक और कॉरपोरेट सभी दिलचस्पी दिखाते हैं।

* फिल्म को बनाना आसान है लेकिन बेचना मुश्किल। यह लोकप्रिय जुमला है। इसे आप किस तरह व्यक्त करते हैं...

यह बात सही है। पब्लिसिटी का खर्च बहुत बढ़ गया है आज। थिएटर का अपना शुल्क है। रिलीज के लिए बहुत धन खर्च होता है। सारा खेल विजिबिलिटी का है। दर्शकों को आपकी फिल्म के बारे में पता लगे, सिर्फ इस बात को तय करने में करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। डिस्ट्रिब्यूशन एक अलग मसला है। यहीं कॉरपोरेट की भूमिका बड़ी हो जाती है। उनके पास पैसे हैं, रणनीति है और रिसर्च भी। कौन से लोग, कहां किस तरह की फिल्में देख रहे हैं, इस तरह की वह रिसर्च करते रहते हैं। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि छोटे बजट की फिल्में रिलीज ही नहीं हो सकतीं। उन्हें अथक परिश्रम करना पड़ता है। छोटे निर्माताओं को तय करना चाहिए कि उनका बजट बेहद सीमित रहे।

* बड़े बजट की फिल्मों के पास पब्लिसिटी का बड़ा बजट होता है। लेकिन, छोटे बजट की फिल्मों के निर्माता-निर्देशक क्या करें...

पब्लिसिटी महत्वपूर्ण है, इसमें शक नहीं। आप कितनी भी अच्छी कहानी कह लीजिए, अगर दर्शकों ने देखा ही नहीं तो सब बेकार है। लेकिन, न्यू मीडिया ने नए फिल्मकारों की राहें कुछ आसान की हैं। एमएमएस, फेसबुक, ट्विटर वगैरह की मदद से फिल्मकार प्रचार करते हैं और यंग जनेरेशन तक संदेश पहुंचा सकते हैं। नए सिनेमा के पहले दर्शक युवा ही हैं। आज सिनेमा देखना महंगा सौदा है। पूरे परिवार के साथ फिल्म देखने का मतलब एक-डेढ़ हजार रुपये खर्च होना है। लेकिन, युवा वर्ग अकेले या दोस्तों के साथ फिल्म देखता है। फिल्म अच्छी होती है तो फिर बाकी लोग भी देखते हैं।

* आप इतने साल से फिल्म जगत में हैं, लेकिन आपने फिल्में सिर्फ दो निर्देशित की हैं... 'आहिस्ता आहिस्ता' और 'महाराथी'। ऐसा क्यों...

शुरुआत में टेलीविजन में बहुत व्यस्त रहा। फिर एक फिल्म अनुराग कश्यप की लिखी कहानी पर करने की योजना थी- इनफॉर्मर। लेकिन वह बन नहीं पाई। इम्तियाज अली ने कहानी लिखी तो उन्होंने मुझे पुश किया। तो 'आहिस्ता आहिस्ता' डायरेक्ट की। इन दोनों ही फिल्मों की कहानी रेडिमेड मिली मुझे। मैं स्क्रिप्ट राइटिंग की प्रोसेस से जुड़ा नहीं रहा तो मुझे दोनों फिल्मों के बाद लगा कि मेरी दिक्कत यह थी कि फिल्म के लिहाज से मुझे तकनीक मालूम है लेकिन ठीक तरीके से कहानी नहीं कह पा रहा। मैंने कुछ साल ब्रेक लिया और इस तरफ खासा ध्यान दिया।

* आपने टेलीविजन पर भी हाल के सालों में कुछ काम नहीं किया...

जी...। मैंने कहा न कि क्रिएटिव लोगों के लिए फिलहाल टीवी पर खास जगह नहीं है। लेकिन, जल्द वक्त बदलेगा। और तब मैं जरूर टीवी के लिए काम करुंगा। टेलीविजन की पहुंच बहुत ज्यादा है।

* एक निजी सवाल। आप मूलत: केरल से हैं। फिर लंबे वक्त तक बिहार में रहे तो मुंबई आना कैसे हुआ... और फिल्मों से जुड़ना कैसे हुआ...

बचपन में केरल से बिहार आना हुआ। शत्रुघ्न सिन्हा का बहुत बड़ा फैन था मैं। मुंबई सिर्फ उनके चक्कर में आ गया। मुंबई आना हुआ तो लगा कि एक्टर तो बन नहीं सकता, डायरेक्शन में ही हाथ आजमाया जाए। धीरे-धीरे सीखने की शुरुआत हुई। इसकी गंभीरता को समझा और अनुभव और मेहनत के आसरे काम शुरू किया। समय गुजरा तो समझ आया कि सिनेमा तो बहुत ताकतवर माध्यम है।

* तो आपने किसी इंस्टीट्यूट में ट्रेनिंग नहीं ली? लेकिन, क्या इस तरह के कोर्स का मतलब है कोई...

मैंने तो नहीं ली ट्रेनिंग। फिल्म इंस्टीट्यूट तकनीक सिखाते हैं लेकिन मुझे लगता है कि आज निर्देशक-लेखक की पहली समस्या यह है कि उसकी अपने निजी अनुभव या कहें कि उसकी अपनी इनर जर्नी नहीं है। वे इधर-उधर से प्रभावित होकर कुछ कहना चाहते हैं तो उसमें वह बात नहीं आ पाती, जो आनी चाहिए। ये ट्रेनिंग की दिक्कत भी है। इस पर काम किया जाना चाहिए।

* चलिए आखिरी सवाल आजकल किस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं...

मनोज बाजपेयी और रिचा चड्ढा के साथ फिल्म 'रंगीन' बना रहा हूं। इस फिल्म को नवंबर में फ्लोर पर ले जाने की योजना है।

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