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This Article is From Jul 04, 2017

देवशयनी एकादशी से शयनकाल में रहेंगे भगवान विष्णु, अगले चार महीने नहीं होंगे कोई शुभ कार्य

इस दौरान कोई शुभ कार्य जैसे, शादी, गृह प्रवेश या कोई भी मांगलिक कार्य नहीं किया जाता है.

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देवशयनी एकादशी से शयनकाल में रहेंगे भगवान विष्णु, अगले चार महीने नहीं होंगे कोई शुभ कार्य
Devshayani Ekadashi 2017: भगवान विष्‍णु के शयनकाल के दौरान कोई शुभ काम नहीं होता है.
आषाढ़ महीने के शुक्‍ल पक्ष की एकादशी को देवशयनी एकादशी कहते हैं, क्‍यों इस दिन यानि आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल की एकादशी तक यानी चार महीने भगवान विष्णु शयनकाल की अवस्था में होते हैं. इस दौरान कोई शुभ कार्य जैसे, शादी, गृह प्रवेश या कोई भी मांगलिक कार्य नहीं किया जाता है. 31 अक्टूबर को ये शयनकाल समाप्त होगा, इसके बाद ही कोई शुभ कार्य होगा.

Devshayani Ekadashi 2017:  देवशयनी एकादशी पर ऐसे करें पूजा
देवशयनी एकादशी के व्रत की विधि खास होती है. इस दिन सुबह उठकर घर की साफ-सफाई कर स्नान करें और पवित्र जल का घर में छिड़काव करें. घर के पूजन स्थल अथवा किसी भी पवित्र स्थल पर प्रभु श्री हरि विष्णु की सोने, चांदी, तांबे अथवा पीतल की मूर्ति की स्थापना करें. इसके बाद भगवान की पूजा-अर्चना करें और व्रत कथा सुनें. कथा के बाद आरती कर प्रसाद बांटें और खुद भी ग्रहण करें. अंत में सफेद चादर से ढंके गद्दे-तकिए वाले पलंग पर श्री विष्णु को शयन कराना चाहिए.

देवशयनी एकादशी कथा
एक बार देवऋषि नारदजी ने ब्रह्माजी से इस एकादशी के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की, तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया- सतयुग में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे. उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी. किंतु भविष्य में क्या हो जाए, यह कोई नहीं जानता. अतः वे भी इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके राज्य में शीघ्र ही भयंकर अकाल पड़ने वाला है.

उनके राज्य में पूरे तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा. इस अकाल से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई. धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन, पिंडदान, कथा-व्रत आदि में कमी हो गई. जब मुसीबत पड़ी हो तो धार्मिक कार्यों में प्राणी की रुचि कहां रह जाती है. प्रजा ने राजा के पास जाकर अपनी समस्‍या रखी.

राजा तो इस स्थिति को लेकर पहले से ही दुखी थे. वे सोचने लगे कि आखिर मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया है, जिसका दंड मुझे इस रूप में मिल रहा है? फिर इस कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन करने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए. वहां घूमते-घूमते एक दिन वे ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया. ऋषिवर ने जंगल में और अपने आश्रम में आने का कारण जानना चाहा.

तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा- 'महात्मन्‌! सभी प्रकार से धर्म का पालन करता हुआ भी मैं अपने राज्य में प्रजा को सुखी नहीं देख पा रहा हूं. आखिर किस कारण से ऐसा हो रहा है, कृपया इसका समाधान करें. यह सुनकर महर्षि अंगिरा ने कहा- 'हे राजन! सब युगों से उत्तम यह सतयुग है. इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भयंकर दंड मिलता है.

इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है. ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी अन्य जाति को तप करने का अधिकार नहीं है जबकि आपके राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है. यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है. जब तक वह काल को प्राप्त नहीं होगा, तब तक यह दुर्भिक्ष शांत नहीं होगा. दुर्भिक्ष की शांति उसे मारने से ही संभव है.

इसके बाद राजा ने कहा- 'हे देव मैं उस निरपराध को मार दूं, यह बात मेरा मन स्वीकार नहीं कर रहा है. कृपा करके आप कोई और उपाय बताएं.' महर्षि अंगिरा ने बताया- 'आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत करें. इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी.'

राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आए और चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया. व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलधार वर्षा हुई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया.

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